नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ।
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ॥8॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥9॥
न, एव, किञ्चित्, करोमि, इति, युक्त:, मन्येत, तत्त्ववित्,
पश्यन्, शृण्वन्, स्पृशन्, जिघ्रन्, अश्नन्, गच्छन्, स्वपन्, श्वसन्,॥ ८॥
प्रलपन्, विसृजन्, गृह्णन्, उन्मिषन्, निमिषन्, अपि,
इन्द्रियाणि, इन्द्रियार्थेषु, वर्तन्ते, इति, धारयन्॥ ९॥
तत्त्ववित् = तत्त्वको जाननेवाला, युक्त: = सांख्ययोगी (तो), पश्यन् = देखता हुआ, शृण्वन् = सुनता हुआ, स्पृशन् = स्पर्श करता हुआ, जिघ्रन् = सूँघता हुआ, अश्नन् = भोजन करता हुआ, गच्छन् = गमन करता हुआ, स्वपन् = सोता हुआ, श्वसन् = श्वास लेता हुआ, एव = नि:सन्देह, इति = ऐसा, मन्येत = माने (कि मैं), किंचित् = कुछ भी, न = नहीं, करोमि = करता हूँ। प्रलपन् = बोलता हुआ, विसृजन् = त्यागता हुआ, गृह्णन् = ग्रहण करता हुआ (तथा), उन्मिषन् = आँखोंको खोलता (और), निमिषन् = मूँदता हुआ, अपि = भी, इन्द्रियाणि = सब इन्द्रियाँ, इन्द्रियार्थेषु = अपने-अपने अर्थोंमें, वर्तन्ते = बरत रही हैं, इति = इस प्रकार, धारयन् = समझकर।
‘सत्य को जानने वाले को ‘स्व’ में केन्द्रित होकर सोचना चाहिये “मैं कदापि कुछ भी नहीं करता” – यद्यपि वह देखना, सुनना, छूना, गंध लेना, खाना, जाना, श्वास लेना, बोलना, छोड़ना, पकड़ना, आँखें खोलना और मूँदना, सब कुछ करता है; लेकिन उसे विश्वास होता है कि इन्द्रियाँ ही इन्द्रिय विषयों में विचरण कर रही हैं’।
व्याख्या—‘तत्त्ववित् युक्त:’—यहाँ ये पद सांख्ययोगके विवेकशील साधकके वाचक हैं, जो तत्त्ववित् महापुरुषकी तरह निर्भ्रान्त अनुभव करनेके लिये तत्पर रहता है। उसमें ऐसा विवेक जाग्रत् हो गया है कि सब क्रियाएँ प्रकृतिमें ही हो रही हैं, उन क्रियाओंका मेरे साथ कोई सम्बन्ध है ही नहीं।
जो अपनेमें अर्थात् स्वरूपमें कभी किंचिन्मात्र भी किसी क्रियाके कर्तापनको नहीं देखता, वह ‘तत्त्ववित्’ है। उसमें नित्य-निरन्तर स्वाभाविक ही यह सावधानी रहती है कि स्वरूपमें कर्तापन है ही नहीं। प्रकृतिके कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिके साथ वह कभी भी अपनी एकता स्वीकार नहीं करता, इसलिये इनके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको वह अपनी क्रियाएँ मान ही कैसे सकता है?
वास्तवमें उपर्युक्त स्थिति स्वरूपसे सभी मनुष्योंकी है; परन्तु वे भूलसे स्वरूपको क्रियाओंका कर्ता मान लेते हैं (गीता—तीसरे अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक)। परमात्माकी जिस शक्तिसे समष्टि संसारकी क्रियाएँ हो रही हैं, उसी शक्तिसे व्यष्टि शरीरकी क्रियाएँ भी हो रही हैं। परन्तु समष्टिके ही क्षुद्र अंश व्यष्टिके साथ अपना सम्बन्ध मान लेनेके कारण मनुष्य व्यष्टिकी कुछ क्रियाओंको अपनी क्रियाएँ मानने लग जाता है। इस मान्यताको हटानेके लिये ही भगवान् कहते हैं कि साधक अपनेको कभी कर्ता न माने। जबतक किसी भी अंशमें कर्तापनकी मान्यता है, तबतक वह साधक कहा जाता है। जब अपनेमें कर्तापनकी मान्यताका सर्वथा अभाव होकर अपने स्वरूपका अनुभव हो जाता है, तब वह तत्त्ववित् महापुरुष कहा जाता है। जैसे स्वप्नसे जगनेपर मनुष्यका स्वप्नसे बिलकुल सम्बन्ध नहीं रहता, ऐसे ही तत्त्ववित् महापुरुषका शरीरादिसे होनेवाली क्रियाओंसे बिलकुल सम्बन्ध (कर्तापन) नहीं रहता।
यहाँ ‘तत्त्ववित्’ वही है, जो प्रकृति और पुरुषके विभागको अर्थात् गुण और क्रिया सब प्रकृतिमें है, प्रकृतिसे अतीत तत्त्वमें गुण और क्रिया नहीं है—इसको ठीक-ठीक जानता है। प्रकृतिसे अतीत निर्विकार तत्त्व तो सबका प्रकाशक और आधार है। सबका प्रकाशक होता हुआ भी वह प्रकाश्यके अन्तर्गत ओत-प्रोत है। प्रकाश्य (शरीर आदि) में घुला-मिला रहनेपर भी प्रकाशक प्रकाशक ही है और प्रकाश्य प्रकाश्य ही है। ऐसे ही वह सबका आधार होता हुआ भी सबके (आधेयके) कण-कणमें व्याप्त है; पर वह कभी आधेय नहीं होता। कारण कि जो प्रकाशक और आधार है, उसमें करना और होना नहीं है। करना और होनारूप परिवर्तन तो प्रकाश्य अथवा आधेयमें ही है। इस तरह प्रकाशक और प्रकाश्य, आधार और आधेयके भेद-(विभाग-) को जो ठीक तरहसे जानता है, वही ‘तत्त्ववित् ’ है। इसी प्रकृति (क्षेत्र) और पुरुष-(क्षेत्रज्ञ) के विभागको जाननेकी बात भगवान् ने पहले दूसरे अध्यायके सोलहवें श्लोकमें और आगे सातवें अध्यायके चौथे-पाँचवें तथा तेरहवें अध्यायके दूसरे, उन्नीसवें, तेईसवें और चौंतीसवें श्लोकमें कही है।
‘पश्यञ्शृण्वन्स्पृशन् ….. उन्मिषन्निमिषन्नपि’— यहाँ देखना, सुनना, स्पर्श करना, सूँघना और खाना—ये पाँचों क्रियाएँ (क्रमश: नेत्र, श्रोत्र, त्वचा, घ्राण और रसना—इन पाँच) ज्ञानेन्द्रियोंकी हैं। चलना, ग्रहण करना, बोलना और मल-मूत्रका त्याग करना—ये चारों क्रियाएँ (क्रमश: पाद, हस्त, वाक्, उपस्थ और गुदा—इन पाँच) कर्मेन्द्रियोंकी हैं*।
[* यहाँ पाँचों कर्मेन्द्रियोंकी क्रियाओंका वर्णन चार क्रियाओंके अन्तर्गत किया गया है अर्थात् ‘विसृजन्’ क्रियाके अन्तर्गत ही उपस्थ और गुदाकी क्रियाओंका वर्णन किया गया है।]
सोना—यह एक क्रिया अन्त:करणकी है। श्वास लेना—यह एक क्रिया प्राणकी और आँखें खोलना तथा मूँदना—ये दो क्रियाएँ ‘कूर्म’ नामक उपप्राणकी हैं।
उपर्युक्त तेरह क्रियाएँ देकर भगवान् ने ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, अन्त:करण, प्राण और उपप्राणसे होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंका उल्लेख कर दिया है। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिके कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिके द्वारा ही होती हैं, स्वयंके द्वारा नहीं। दूसरा एक भाव यह भी प्रतीत होता है कि सांख्ययोगीके द्वारा वर्ण, आश्रम, स्वभाव, परिस्थिति आदिके अनुसार शास्त्रविहित शरीर-निर्वाहकी क्रियाएँ, खान-पान, व्यापार करना, उपदेश देना, लिखना, पढ़ना, सुनना, सोचना आदि क्रियाएँ न होती हों—ऐसी बात नहीं है। उसके द्वारा ये सब क्रियाएँ हो सकती हैं।
मनुष्य अपनेको उन्हीं क्रियाओंका कर्ता मानता है, जिनको वह जानकर अर्थात् मन-बुद्धिपूर्वक करता है; जैसे पढ़ना, लिखना, सोचना, देखना, भोजन करना आदि। परन्तु अनेक क्रियाएँ ऐसी होती हैं, जिन्हें मनुष्य जानकर नहीं करता; जैसे—श्वासका आना-जाना, आँखोंका खुलना और बंद होना आदि। फिर इन क्रियाओंका कर्ता अपनेको न माननेकी बात इस श्लोकमें कैसे कही गयी? इसका उत्तर यह है कि सामान्यरूपसे श्वासोंका आना-जाना आदि क्रियाएँ स्वाभाविक होनेवाली हैं; किन्तु प्राणायाम आदिमें मनुष्य श्वास लेना आदि क्रियाएँ जानकर करता है। ऐसे ही आँखोंको खोलना और बंद करना भी जानकर किया जा सकता है। इसलिये इन क्रियाओंका कर्ता भी अपनेको न माननेके लिये कहा गया है। दूसरी बात, जैसे मनुष्य ‘श्वसन् उन्मिषन् निमिषन्’ (श्वास लेना, आँखोंको खोलना और मूँदना)—इन क्रियाओंको स्वाभाविक मानकर इनमें अपना कर्तापन नहीं मानता, ऐसे ही अन्य क्रियाओंको भी स्वाभाविक मानकर उनमें अपना कर्तापन नहीं मानना चाहिये।
यहाँ ‘पश्यन्’ आदि जो तेरह क्रियाएँ बतायी हैं, इनका बिना किसी आधारके होना सम्भव नहीं है। ये क्रियाएँ जिसके आश्रित होती हैं अर्थात् इन क्रियाओंका जो आधार है, उसमें कभी कोई क्रिया नहीं होती। ऐसे ही प्रकाशित होनेवाली ये सम्पूर्ण क्रियाएँ बिना किसी प्रकाशके सिद्ध नहीं हो सकतीं। जिस प्रकाशसे ये क्रियाएँ प्रकाशित होती हैं, जिस प्रकाशके अन्तर्गत होती हैं, उस प्रकाशमें कभी कोई क्रिया हुई नहीं, होती नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं और होनी सम्भव भी नहीं। ऐसा वह तत्त्व सबका आधार, प्रकाशक और स्वयं प्रकाशस्वरूप है। वह सबमें रहता हुआ भी कुछ नहीं करता। उस तत्त्वकी तरफ लक्ष्य करानेमें ही उपर्युक्त इन तेरह क्रियाओंका तात्पर्य है।
‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्’—जब स्वरूपमें कर्तापन है ही नहीं, तब क्रियाएँ कैसे और किसके द्वारा हो रही हैं?—इस प्रश्नका उत्तर देते हुए भगवान् उपर्युक्त पदोंमें कहते हैं कि सम्पूर्ण क्रियाएँ इन्द्रियोंके द्वारा इन्द्रियोंके विषयोंमें ही हो रही हैं। यहाँ भगवान् का तात्पर्य इन्द्रियोंमें कर्तृत्व बतानेमें नहीं है, प्रत्युत स्वरूपको कर्तृत्वरहित (निर्लिप्त) बतानेमें है।
ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, अन्त:करण, प्राण, उपप्राण आदि सबको यहाँ ‘इन्द्रियाणि’ पदके अन्तर्गत लिया गया है। इन्द्रियोंके पाँच विषय हैं—शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। इन विषयोंमें ही इन्द्रियोंका बर्ताव होता है। सम्पूर्ण इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंके विषय प्रकृतिका कार्य हैं। इसलिये इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिमें ही हो रही हैं—
(१) प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:। (गीता ३। २७)
(२) प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश:। (गीता १३। २९)
गुणोंका कार्य होनेसे इन्द्रियों और उनके विषयोंको ‘गुण’ ही कहा जाता है। अत: गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं—‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ (गीता ३।२८)। गुणोंके सिवाय दूसरा कोई कर्ता नहीं है—‘नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति’ (गीता १४। १९)। तात्पर्य यह है कि क्रियामात्रको चाहे प्रकृतिसे होनेवाली कहें, चाहे प्रकृतिके कार्य गुणोंके द्वारा होनेवाली कहें, चाहे इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली कहें, बात वास्तवमें एक ही है।
क्रियाका तात्पर्य है—परिवर्तन। परिवर्तनरूप क्रिया प्रकृतिमें ही होती है। स्वरूपमें परिवर्तनरूप क्रिया लेशमात्र भी नहीं है। कारण कि प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है और स्वरूप कर्तापनसे रहित है। प्रकृति कभी अक्रिय नहीं हो सकती और स्वरूपमें कभी क्रिया नहीं हो सकती। क्रियामात्र प्रकाश्य है और स्वरूप प्रकाशक है।
‘नैव किञ्चित्करोमीति मन्येत’—यहाँ ‘मैं (स्वरूपसे) कर्ता नहीं हूँ’—इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मैं (स्वरूप) पहले कर्ता था। स्वरूपमें कर्तापन न तो वर्तमानमें है, न भूतमें था और न भविष्यमें ही होगा। क्रियामात्र प्रकृतिमें ही हो रही है; क्योंकि प्रकृति सदा क्रियाशील है और पुरुष अर्थात् चेतन-तत्त्व सदा क्रियारहित है। जब चेतन अनादि भूलसे प्रकृतिके कार्यके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब वह प्रकृतिकी क्रियाओंको अपनी क्रियाएँ मानने लग जाता है और उन क्रियाओंका कर्ता स्वयं बन जाता है (गीता—तीसरे अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक)।
जैसे, एक मनुष्य चलती हुई रेलगाड़ीके डिब्बेमें बैठा हुआ है, चल नहीं रहा है; परन्तु रेलगाड़ीके चलनेके कारण उसका चले बिना ही चलना हो जाता है। रेलगाड़ीमें चढ़नेके कारण अब वह चलनेसे रहित नहीं हो सकता। ऐसे ही क्रियाशील प्रकृतिके कार्यरूप स्थूल, सूक्ष्म और कारण—किसी भी शरीरके साथ जब स्वयं अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है, तब स्वयं कर्म न करते हुए भी वह उन शरीरोंसे होनेवाली क्रियाओंका कर्ता हुए बिना रह नहीं सकता।
सांख्ययोगी शरीर, इन्द्रियाँ, अन्त:करण आदिके साथ कभी अपना सम्बन्ध नहीं मानता, इसलिये वह कर्मोंका कर्तापन अपनेमें कभी अनुभव नहीं करता (गीता—पाँचवें अध्यायका तेरहवाँ श्लोक)। जैसे शरीरका बालकसे युवा होना, बालोंका कालेसे सफेद होना, खाये हुए अन्नका पचना, शरीरका सबल अथवा निर्बल होना आदि क्रियाएँ स्वाभाविक (अपने-आप) होती हैं, ऐसे ही दूसरी सम्पूर्ण क्रियाओंको भी सांख्ययोगी स्वाभाविक होनेवाली अनुभव करता है। तात्पर्य है कि वह अपनेको किसी भी क्रियाका कर्ता अनुभव नहीं करता।
गीतामें स्वयंको कर्ता माननेवालेकी निन्दा की गयी है (तीसरे अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक)। इसी प्रकार शुद्ध स्वरूपको कर्ता माननेवालेको मलिन अन्त:करणवाला और दुर्मति कहा गया है (अठारहवें अध्यायका सोलहवाँ श्लोक)। परन्तु स्वरूपको अकर्ता माननेवालेकी प्रशंसा की गयी है (तेरहवें अध्यायका उनतीसवाँ श्लोक)।
‘एव’ पद देनेका तात्पर्य है कि साधक कभी किंचिन्मात्र भी अपनेमें कर्तापनकी मान्यता न करे अर्थात् कभी किसी भी अंशमें अपनेको किसी कर्मका कर्ता न माने। इस प्रकार जब अपनेमें कर्तापनका भाव नहीं रहता, तब उसके द्वारा होनेवाले कर्मोंकी संज्ञा ‘कर्म’ नहीं रहती, प्रत्युत ‘क्रिया’ रहती है। उन्हें ‘चेष्टामात्र’ कहा जाता है। इसी लक्ष्यसे तीसरे अध्यायके तैंतीसवें श्लोकमें ज्ञानी महापुरुषसे होनेवाली क्रियाको ‘चेष्टते’ पदसे कहा गया है।
यहाँ ‘एव’ पद देनेका दूसरा तात्पर्य यह है कि स्वयंका शरीरके साथ तादात्म्य होनेपर भी, शरीरके साथ कितना ही घुल-मिल जानेपर भी और अपनेको ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसे मान लेनेपर भी स्वयंमें कभी कर्तृत्व आता ही नहीं और न कभी आ ही सकता है। किंतु प्रकृतिके साथ तादात्म्य करके यह स्वयं अपनेमें कर्तृत्व मान लेता है; क्योंकि इसमें मानने और न माननेकी सामर्थ्य है, स्वतन्त्रता है, इसलिये यह अपनेको कर्ता भी मान लेता है और जब यह अपनी तरफ देखता है तो अकर्तापन भी इसके अनुभवमें आता है। ये दोनों बातें (अपनेमें कर्तृत्व मानना और न मानना) होनेपर भी स्वयंमें कभी कर्तृत्व आता ही नहीं। तेरहवें अध्यायके इकतीसवें श्लोकमें भगवान् ने कहा है—शरीरमें रहता हुआ भी वह न करता है और न लिप्त ही होता है। भोक्ता तो प्रकृतिस्थ पुरुष ही बनता है (गीता—तेरहवें अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक)। गुणोंका—क्रियाफलका भोक्ता बननेपर भी वह वास्तवमें अपने स्वरूपसे कभी च्युत नहीं होता; किन्तु अपने स्वरूपकी तरफ दृष्टि न रहनेसे अपनेमें लिप्तताका भाव पैदा होता है।
यद्यपि पुरुष स्वयं स्वरूपसे निर्लिप्त है, उसमें भोक्तापन है नहीं, हो सकता नहीं, तथापि सुख-दु:खका भोक्ता तो स्वयं पुरुष (चेतन) ही बनता है अर्थात् सुखी-दु:खी तो स्वयं पुरुष (चेतन) ही होता है, जड नहीं; क्योंकि जडमें सुखी-दु:खी होनेकी शक्ति और योग्यता नहीं है। तो फिर पुरुषमें भोक्तापन है नहीं और सुख-दु:खका भोक्ता पुरुष ही बनता है—ये दोनों बातें कैसे? भोगके समय जो भोगाकार—सुख-दु:खाकार वृत्ति बनती है, वह तो प्रकृतिकी होती है और प्रकृतिमें ही होती है। परन्तु उस वृत्तिके साथ तादात्म्य होनेसे सुखी-दु:खी होना अर्थात् ‘मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ’—ऐसी मान्यता अपनेमें स्वयं पुरुष ही करता है। कारण कि यह मानना पुरुषके बिना नहीं होता अर्थात् यह मानना पुरुषमें ही हो सकता है, जडमें नहीं; इस दृष्टिसे पुरुष भोक्ता कहा गया है। सुखी-दु:खी होना अपनेमें माननेपर भी अर्थात् सुखके समय सुखी और दु:खके समय दु:खी—ऐसी मान्यता अपनेमें करनेपर भी पुरुष स्वयं अपने स्वरूपसे निर्लिप्त और सुख-दु:खका प्रकाशकमात्र ही रहता है; इस दृष्टिसे पुरुषमें भोक्तापन है नहीं और हो सकता ही नहीं। कारण कि एकदेशीयपनसे ही भोक्तापन होता है और एकदेशीयपन अहंकारसे होता है। अहंकार प्रकृतिका कार्य है और प्रकृति जड है; अत: उसका कार्य भी जड ही होता है अर्थात् भोक्तापन भी जड ही होता है। इसलिये भोक्तापन पुरुष-(चेतन) में नहीं है। अगर यह पुरुष सुखके समय सुखी और दु:खके समय दु:खी होता तो इसका स्वरूप परिवर्तनशील ही होता; क्योंकि सुखका भी आरम्भ और अन्त होता है तथा दु:खका भी आरम्भ और अन्त होता है। ऐसे ही यह पुरुष भी आरम्भ और अन्तवाला हो जाता, जो कि सर्वथा अनुचित है। कारण कि गीताने इसको अक्षर, अव्यय और निर्लिप्त कहा है और तत्त्वज्ञ पुरुषोंने इसका स्वरूप एकरस, एकरूप माना है। अगर इस पुरुषको सुखके समय सुखी और दु:खके समय दु:खी होनेवाला ही मानें, तो फिर पुरुष सदा एकरस, एकरूप रहता है—ऐसा कैसे कह सकते हैं?
विशेष बात
तीसरे अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें ‘अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’—इसमें आये ‘मन्यते’ पदसे जो बात आयी थी, उसीका निषेध यहाँ ‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ’—इसमें आये ‘मन्येत’ पदसे किया गया है। ‘मन्येत’ पदका अर्थ मानना नहीं है, प्रत्युत अनुभव करना है; क्योंकि स्वरूपमें क्रिया नहीं है—यह अनुभव है, मान्यता नहीं। कर्म करते समय अथवा न करते समय—दोनों अवस्थाओंमें स्वरूपमें अकर्तापन ज्यों-का-त्यों है। इसलिये तत्त्ववित् पुरुष यह अनुभव करता है कि कर्म करते समय भी मैं वही था और कर्म न करते समय भी मैं वही रहा; अत: कर्म करने अथवा न करनेसे अपने स्वरूप-(अपनी सत्ता) में क्या फर्क पड़ा? अर्थात् स्वरूप तो अकर्ता ही रहा। इस प्रकार प्रकृतिके परिवर्तनका ज्ञान (अनुभव) तो सबको होता है, पर अपने स्वरूपके परिवर्तनका ज्ञान किसीको नहीं होता। स्वरूप सम्पूर्ण क्रियाओंका निर्लिप्तरूपसे आश्रय, आधार और प्रकाशक है। उसमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तनकी सम्भावना नहीं है।
स्वरूपमें कभी अभाव नहीं होता। जब वह प्रकृतिके साथ रागसे तादात्म्य मान लेता है, तब उसे अपनेमें अभाव प्रतीत होने लग जाता है। उस अभावकी पूर्तिके लिये वह पदार्थोंकी कामना करने लग जाता है। कामनाकी पूर्तिके लिये उसमें कर्तापन आ जाता है; क्योंकि कामना हुए बिना स्वरूपमें कर्तापन नहीं आता।
प्रकृतिसे सम्बन्धके बिना स्वयं कोई क्रिया नहीं कर सकता। कारण कि जिन करणोंसे कर्म होते हैं, वे करण प्रकृतिके ही हैं। कर्ता करणके अधीन होता है। जैसे कितना ही योग्य सुनार क्यों न हो, पर वह अहरन, हथौड़ा आदि औजारोंके बिना कार्य नहीं कर सकता, ऐसे ही कर्ता करणोंके बिना कोई क्रिया नहीं कर सकता। इस प्रकार योग्यता, सामर्थ्य और करण—ये तीनों प्रकृतिमें ही हैं और प्रकृतिके सम्बन्धसे ही अपनेमें प्रतीत होते हैं। ये तीनों घटते-बढ़ते हैं और स्वरूप सदा ज्यों-का-त्यों रहता है। अत: इनका स्वरूपसे सम्बन्ध है ही नहीं।
कर्तापन प्रकृतिके सम्बन्धसे है, इसलिये अपनेको कर्ता मानना परधर्म है। स्वरूपमें कर्तापन नहीं है, इसलिये अपनेको अकर्ता मानना स्वधर्म है। जैसे ब्राह्मण अपने ब्राह्मणपन (मैं ब्राह्मण हूँ, इस) में निरन्तर स्थित रहता है, ऐसे ही तत्त्ववित् अपने अकर्तापन-(स्वधर्म)में निरन्तर स्थित रहता है—यही ‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’ पदोंका भाव है।
परिशिष्ट भाव—विवेकशील ज्ञानयोगी पहले ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, अन्त:करण तथा प्राणोंसे होनेवाली क्रियाओंको करते हुए भी ‘मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता हूँ’—ऐसा मानता है, फिर उसको ऐसा अनुभव हो जाता है। वास्तवमें चिन्मय सत्तामात्रमें न करना है, न होना है! स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीरमें होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिमें ही होती हैं, स्वयंमें नहीं। अत: स्वयंका किसी भी क्रियासे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है।
अविवेकपूर्वक अहम् को अपना स्वरूप माननेसे जो ‘अहङ्कारविमूढात्मा’ हो गया था (गीता ३। २७), वही विवेकपूर्वक अपनेको अहम् से अलग अनुभव करनेपर ‘तत्त्ववित्’ हो जाता है अर्थात् उसमें कर्तृत्व नहीं रहता। वह निरन्तर चिन्मय तत्त्वमें ही स्थित रहता है।
अहंकारसे मोहित होकर स्वयंने भूलसे अपनेको कर्ता मान लिया तो वह कर्मोंसे तथा उनके फलोंसे बँध गया और चौरासी लाख योनियोंमें चला गया। अब अगर वह अपनेको अहम् से अलग माने और अपनेको कर्ता न माने अर्थात् स्वयं वास्तवमें जैसा है, वैसा ही अनुभव कर ले तो उसके तत्त्ववित् (मुक्त) होनेमें आश्चर्य ही क्या है? तात्पर्य है कि जो असत्य है, वह भी जब सत्य मान लेनेसे सत्य दीखने लग गया, तो फिर जो वास्तवमें सत्य है, उसको मान लेनेपर वह वैसा ही दीखने लग जाय तो इसमें क्या आश्चर्य है?
वास्तवमें स्वयं जिस समय अपनेको कर्ता-भोक्ता मानता है, उस समय भी वह कर्ता-भोक्ता नहीं है—‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३। ३१)। कारण कि अपना स्वरूप सत्तामात्र है। सत्तामें अहम् नहीं है और अहम् की सत्ता नहीं है। अत: ‘मैं कर्ता हूँ’—यह मान्यता कितनी ही दृढ़ हो, है तो भूल ही! भूलको भूल मानते ही भूल मिट जाती है—यह नियम है। किसी गुफामें सैकड़ों वर्षोंसे अन्धकार हो तो प्रकाश करते ही वह तत्काल मिट जाता है, उसके मिटनेमें अनेक वर्ष-महीने नहीं लगते। इसलिये साधक दृढ़तासे यह मान ले कि ‘मैं कर्ता नहीं हूँ।’ फिर यह मान्यता मान्यतारूपसे नहीं रहेगी, प्रत्युत अनुभवमें परिणत हो जायगी।
जड़-चेतनका तादात्म्य होनेसे ‘मैं’ का प्रयोग जड़ (तादात्म्यरूप अहम्) के लिये भी होता है और चेतन (स्वरूप) के लिये भी होता है। जैसे, ‘मैं कर्ता हूँ’—इसमें जड़की तरफ दृष्टि है और ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’—इसमें (जड़का निषेध होनेसे) चेतनकी तरफ दृष्टि है। जिसकी दृष्टि जड़की तरफ है अर्थात् जो अहम् को अपना स्वरूप मानता है, वह ‘अहंकारविमूढात्मा’ है और जिसकी दृष्टि चेतन (अहंरहित स्वरूप) की तरफ है, वह ‘तत्त्ववित्’ है।
जब साधक वर्तमानमें ‘मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता हूँ’—इस प्रकार स्वयंको अकर्ता अनुभव करनेकी चेष्टा करता है, तब उसके सामने एक बड़ी समस्या आती है। जब उसको भूतकालमें किये हुए अच्छे कर्मोंकी याद आती है, तब वह प्रसन्न हो जाता है कि मैंने बहुत अच्छा काम किया, बहुत ठीक किया! और जब उसको निषिद्ध कर्मोंकी याद आती है, तब वह दु:खी हो जाता है कि मैंने बहुत बुरा काम किया, बहुत गलती की। इस प्रकार भूतकालमें किये गये कर्मोंके संस्कार उसको सुखी-दु:खी करते हैं। इस विषयमें एक मार्मिक बात है। स्वरूपमें कर्तापन न तो वर्तमानमें है, न भूतकालमें था और न भविष्यमें ही होगा। अत: साधकको यह देखना चाहिये कि जैसे वर्तमानमें स्वयं अकर्ता है, ऐसे ही भूतकालमें भी स्वयं अकर्ता ही था। कारण कि वर्तमान ही भूतकालमें गया है। स्वरूप सत्तामात्र है और सत्तामात्रमें कोई कर्म करना बनता ही नहीं। कर्म केवल अहंकारसे मोहित अन्त:करणवाले अज्ञानी मनुष्यके द्वारा ही होते हैं (गीता—तीसरे अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक)। साधकको भूतकालमें किये हुए कर्मोंकी याद आनेसे जो सुख-दु:ख होता है, चिन्ता होती है, यह भी वास्तवमें अहंकारके कारण ही है। वर्तमानमें अहंकारविमूढात्मा होकर अर्थात् अहंकारके साथ अपना सम्बन्ध मानकर ही साधक सुखी-दु:खी होता है। स्थूलदृष्टिसे देखें तो जैसे अभी भूतकालका अभाव है, ऐसे ही भूतकालमें किये गये कर्मोंका भी अभी प्रत्यक्ष अभाव है। सूक्ष्मदृष्टिसे देखें तो जैसे भूतकालमें वर्तमानका अभाव था, ऐसे ही भूतकालका भी अभाव था। इसी तरह वर्तमानमें जैसे भूतकालका अभाव है, ऐसे ही वर्तमानका भी अभाव है। परन्तु सत्ताका नित्य-निरन्तर भाव है। तात्पर्य है कि सत्तामात्रमें भूत, भविष्य और वर्तमान—तीनोंका ही सर्वथा अभाव है। सत्ता कालसे अतीत है। अत: वह किसी भी कालमें कर्ता नहीं है। उस कालातीत और अवस्थातीत सत्तामें किसी कालविशेष और अवस्थाविशेषको लेकर कर्तृत्व तथा भोक्तृत्वका आरोप करना अज्ञान है। अत: भूतकालमें किये गये कर्मोंकी स्मृति अहंकारविमूढात्माकी स्मृति है, तत्त्ववित् की नहीं।
‘नैव किञ्चित्करोमि’ का तात्पर्य है कि क्रिया नहीं है, पर सत्ता है। अत: साधककी दृष्टि सत्तामात्रकी तरफ रहनी चाहिये। वह सत्ता चिन्मय होनेसे ज्ञानस्वरूप है और निर्विकार होनेसे आनन्दस्वरूप है। यह आनन्द अखण्ड, शान्त, एकरस है।
शरीरसे तादात्म्य होनेके कारण प्रत्येक क्रियामें स्वयंकी मुख्यता रहती है कि मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ आदि। क्रिया तो होती है शरीरमें, पर मान लेते हैं अपनी। स्वयंमें कोई क्रिया नहीं है, वह करने और न करने—दोनोंसे रहित है (गीता—तीसरे अध्यायका अठारहवाँ श्लोक), इसलिये शरीरके द्वारा क्रिया होनेपर भी सत्तामात्र अपने स्वरूपपर दृष्टि रहनी चाहिये कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ।
सम्बन्ध—सातवें श्लोकमें कर्मयोगीकी और आठवें-नवें श्लोकोंमें सांख्ययोगीकी कर्मोंसे निर्लिप्तता बताकर अब भगवान् भक्तियोगीकी कर्मोंसे निर्लिप्तता बताते हैं।