साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥4॥
साङ्ख्ययोगौ, पृथक्, बाला:, प्रवदन्ति, न, पण्डिता:,
एकम्, अपि, आस्थित:, सम्यक्, उभयो:, विन्दते, फलम्॥ ४॥
साङ्ख्ययोगौ = संन्यास और कर्मयोगको, बाला: = मूर्खलोग, पृथक् = पृथक्-पृथक् (फल देनेवाले), प्रवदन्ति = कहते हैं, न = न (कि), पण्डिता: = पण्डितजन, हि = क्योंकि (दोनोंमेंसे), एकम् = एकमें, अपि = भी, सम्यक् आस्थित: = सम्यक् प्रकारसे स्थित (पुरुष), उभयो: = दोनोंके, फलम् = फलरूप (परमात्माको), विन्दते = प्राप्त होता है।
‘बालक बुद्धि व अपरिपक्व बुद्धि के लोग, न कि बुद्धिमान लोग, आत्मज्ञान तथा कर्म के योग को भिन्न मानते हैं; जो वास्तव में किसी एक में स्थित है, वह दोनों के फल प्राप्त करता है’।
व्याख्या—‘साङ्ख्योगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:’—इसी अध्यायके पहले श्लोकमें अर्जुनने कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके तत्त्वदर्शी महापुरुषके पास जाकर ज्ञान प्राप्त करनेके साधनको ‘कर्मसंन्यास’ नामसे कहा है। भगवान् ने भी दूसरे श्लोकमें अपने सिद्धान्तकी मुख्यता रखते हुए उसे ‘संन्यास’ और ‘कर्मसंन्यास’ नामसे कहा है। अब उस साधनको भगवान् यहाँ ‘सांख्य’ नामसे कहते हैं। भगवान् शरीर-शरीरीके भेदका विचार करके स्वरूपमें स्थित होनेको ‘सांख्य’ कहते हैं। भगवान् के मतमें ‘संन्यास’ और ‘सांख्य’ पर्यायवाची हैं, जिसमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी आवश्यकता नहीं है।
अर्जुन जिसे ‘कर्मसंन्यास’ नामसे कह रहे हैं, वह भी नि:सन्देह भगवान् के द्वारा कहे ‘सांख्य’ का ही एक अवान्तर भेद है। कारण कि गुरुसे सुनकर भी साधक शरीर-शरीरीके भेदका ही विचार करता है।
‘बाला:’ पदसे भगवान् यह कहते हैं कि आयु और बुद्धिमें बड़े होकर भी जो सांख्ययोग और कर्मयोगको अलग-अलग फलवाले मानते हैं, वे बालक अर्थात् बेसमझ ही हैं।
जिन महापुरुषोंने सांख्ययोग और कर्मयोगके तत्त्वको ठीक-ठीक समझा है, वे ही पण्डित अर्थात् बुद्धिमान् हैं। वे लोग दोनोंको अलग-अलग फलवाले नहीं कहते; क्योंकि वे दोनों साधनोंकी प्रणालियोंको न देखकर उन दोनोंके वास्तविक परिणामको देखते हैं।
साधन-प्रणालीको देखते हुए स्वयं भगवान् ने तीसरे अध्यायके तीसरे श्लोकमें सांख्ययोग और कर्मयोगको दो प्रकारका साधन स्वीकार किया है। दोनोंकी साधन-प्रणाली तो अलग-अलग है, पर साध्य अलग-अलग नहीं है।
‘एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्’— गीतामें जगह-जगह सांख्ययोग और कर्मयोगका परमात्मप्राप्तिरूप फल एक ही बताया गया है। तेरहवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें दोनों साधनोंसे अपने-आपमें परमात्मतत्त्वका अनुभव होना बताया गया है। तीसरे अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें कर्मयोगीके लिये परमात्माकी प्राप्ति बतायी गयी है और बारहवें अध्यायके चौथे श्लोकमें तथा तेरहवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें ज्ञानयोगीके लिये परमात्माकी प्राप्ति बतायी गयी है। इस प्रकार भगवान् के मतमें दोनों साधन एक ही फलवाले हैं।
परिशिष्ट भाव—जो अन्य शास्त्रीय बातोंको तो जानता है, पर सांख्ययोग और कर्मयोगके तत्त्वको गहराईसे नहीं जानता, वह वास्तवमें बालक अर्थात् बेसमझ है।
गीताभरमें अविनाशी तत्त्वके लिये ‘फल’ शब्द इसी श्लोकमें आया है। ‘फल’ शब्दका अर्थ है—परिणाम। कर्मयोग और ज्ञानयोग—दोनों साधनोंसे प्राप्त होनेवाले तत्त्वको ‘फल’ कहनेका तात्पर्य है कि इन दोनों साधनोंमें मनुष्यका अपना उद्योग मुख्य है। ज्ञानयोगमें विवेकरूप उद्योग मुख्य है और कर्मयोगमें परहितकी क्रियारूप उद्योग मुख्य है। साधकका अपना उद्योग, परिश्रम सफल हो गया, इसलिये इसको ‘फल’ कहा गया है। यह फल नष्ट होनेवाला नहीं है। कर्मयोग तथा ज्ञानयोग—दोनोंका फल आत्मज्ञान अथवा ब्रह्मज्ञान है।
कर्तव्य-कर्म करना कर्मयोग है और कुछ न करना ज्ञानयोग है। कुछ न करनेसे जिस तत्त्वकी प्राप्ति होती है, उसी तत्त्वकी प्राप्ति कर्तव्य-कर्म करनेसे हो जाती है। ‘करना’ और ‘न करना’ तो साधन हैं और इनसे जिस तत्त्वकी प्राप्ति होती है, वह साध्य है।