ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥22॥
ये, हि, संस्पर्शजा:, भोगा:, दु:खयोनय:, एव, ते,
आद्यन्तवन्त:, कौन्तेय, न, तेषु, रमते, बुध:॥ २२॥
ये = जो (ये) इन्द्रिय तथा, संस्पर्शजा: = विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले, भोगा: = सब भोग हैं, ते = वे (यद्यपि विषयी पुरुषोंको सुखरूप भासते हैं तो भी), हि = नि:सन्देह, दु:खयोनय: एव = दु:खके ही हेतु हैं (और), आद्यन्तवन्त: = आदि-अन्तवाले अर्थात् अनित्य हैं। (इसलिये), कौन्तेय = हे अर्जुन!, बुध: = बुद्धिमान् विवेकी पुरुष, तेषु = उनमें, न = नहीं, रमते = रमता।
‘चूँकि त्वचा-स्पर्श जनित सुख, दुख के ही कारण बन जाते हैं, और उनका एक आरम्भ तथा एक अन्त होता है, हे कुन्तीपुत्र, एक बुद्धिमान व्यक्ति उनमें सुख नहीं खोजता’।
व्याख्या—‘ये हि संस्पर्शजा भोगा:’—शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—इन विषयोंसे इन्द्रियोंका रागपूर्वक सम्बन्ध होनेपर जो सुख प्रतीत होता है, उसे ‘भोग’ कहते हैं। सम्बन्ध-जन्य अर्थात् इन्द्रिय-जन्य भोगमें मनुष्य कभी स्वतन्त्र नहीं है। सुख-सुविधा और मान-बड़ाई मिलनेपर प्रसन्न होना भोग है। अपनी बुद्धिमें जिस सिद्धान्तका आदर है, दूसरे व्यक्तिसे उसी सिद्धान्तकी प्रशंसा सुनकर जो प्रसन्नता होती है, सुख होता है, वह भी एक प्रकारका भोग ही है। तात्पर्य यह है कि परमात्माके सिवाय जितने भी प्रकृतिजन्य प्राणी, पदार्थ, परिस्थितियाँ, अवस्थाएँ आदि हैं, उनसे किसी भी प्रकृतिजन्य करणके द्वारा सुखकी अनुभूति करना भोग ही है।
शास्त्रनिषिद्ध भोग तो सर्वथा त्याज्य हैं ही, शास्त्र-विहित भोग भी परमात्मप्राप्तिमें बाधक होनेसे त्याज्य ही हैं। कारण कि जडताके सम्बन्धके बिना भोग नहीं होता, जब कि परमात्मप्राप्तिके लिये जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करना आवश्यक है।
‘आद्यन्तवन्त:’—सम्पूर्ण भोग आने-जानेवाले हैं, अनित्य हैं, परिवर्तनशील हैं (गीता—दूसरे अध्यायका चौदहवाँ श्लोक)। ये कभी एकरूप रह सकते ही नहीं। तात्पर्य है कि इन भोगोंकी स्वयंके साथ किसी भी अंशमें एकता नहीं है। भोग आने-जानेवाले हैं और स्वयं सदा रहनेवाला है। भोग जड हैं और स्वयं चेतन है। भोग विकारी हैं और स्वयं निर्विकार है। भोग आदि-अन्तवाले हैं और स्वयं आदि-अन्तसे रहित है। इसलिये स्वयंको भोगोंसे कभी सुख नहीं मिल सकता। जीव परमात्माका अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५। ७), इसलिये उसे परमात्मासे ही अक्षय सुख मिल सकता है—‘स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते’ (गीता ५। २१)।
भोग आने-जानेवाले हैं—इस तरफ ध्यान जाते ही सुख-दु:खका प्रभाव कम हो जाता है। इसलिये ‘आद्यन्तवन्त:’ पद भोगोंके प्रभावको मिटानेके लिये औषधरूप है।
‘दु:खयोनय एव ते’—जितने भी सम्बन्ध-जन्य सुख हैं, वे सब दु:खके उत्पत्तिस्थान हैं। सम्बन्ध-जन्य सुख दु:खसे ही उत्पन्न होता है और दु:खमें ही परिणत होता है। पहले वस्तुके अभावका दु:ख होता है, तभी उस वस्तुके मिलनेपर सुख होता है। वस्तुके अभावका दु:ख जितनी मात्रामें होता है, वस्तुके मिलनेका सुख भी उतनी ही मात्रामें होता है।
भोगी व्यक्ति दु:खोंसे नहीं बच सकता। कारण कि भोग जडताके सम्बन्धसे होता है और जडताका सम्बन्ध ही जन्म-मरणरूप महान् दु:खका कारण है।
पातंजलयोगदर्शनमें कहा गया है—
‘परिणामतापसंस्कारदु:खैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दु:खमेव सर्वं विवेकिन:।’ (२। १५)
‘परिणामदु:ख, तापदु:ख और संस्कारदु:ख—ऐसे तीन प्रकारके दु:ख सबमें विद्यमान रहनेके कारण तथा तीनों गुणोंकी वृत्तियोंमें परस्पर विरोध होनेके कारण विवेकी पुरुषके लिये सब-के-सब भोग दु:खरूप ही हैं।’
सम्पूर्ण विषयभोग आरम्भमें सुखरूप प्रतीत होनेपर भी परिणाममें दु:ख ही देनेवाले हैं (गीता—अठारहवें अध्यायका अड़तीसवाँ श्लोक); क्योंकि भोगोंके परिणाममें अपनी शक्तिका ह्रास और भोग्य-पदार्थका नाश होता है— यह ‘परिणामदु:ख’ है।
दूसरे व्यक्तियोंके पास अपनेसे अधिक भोग देखनेसे, अपने इच्छानुसार पूरे भोग न मिलनेसे, भीतर भोगोंकी आसक्ति होनेपर भी भोग भोगनेकी सामर्थ्य न होनेसे तथा प्राप्त भोगोंके बिछुड़ जानेकी आशंकासे भोगोंके पास रहते हुए भी हृदयमें सन्ताप रहता है—यह ‘तापदु:ख’ है।
किसी कारणवश भोगोंका वियोग हो जानेसे मनुष्य उन भोगोंको याद कर-करके दु:खी होता है—यह ‘संस्कारदु:ख’ है।
भोगोंमें रुचि होनेके कारण मन उन भोगोंको भोगना चाहता है; परन्तु विवेकके कारण बुद्धि उन्हें भोगनेसे रोकती है। ऐसे ही सत्संग करते समय तामसी वृत्तिके कारण नींद आने लगती है और नींदका सुख मनुष्यको अपनी ओर खींचता है; परन्तु सात्त्विक वृत्तिके कारण उसे विचार आता है कि अभी सत्संग कर लें; क्योंकि यह मौका बार-बार मिलेगा नहीं—यह ‘गुणवृत्ति-विरोध’ है, जिससे साधकोंको बहुत दु:ख होता है।
भोगोंको प्राप्त करना अपने वशकी बात नहीं है; क्योंकि इसमें प्रारब्धकी प्रधानता और अपनी परतन्त्रता है। परन्तु भगवान् की प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य कर सकता है; क्योंकि उनकी प्राप्तिके लिये ही मनुष्य-शरीर मिला है। भोग दो मनुष्योंको भी समानरूपसे प्राप्त नहीं हो सकते, पर भगवान् मनुष्यमात्रको समानरूपसे प्राप्त हो सकते हैं। सत्ययुग आदिमें बड़े-बड़े ऋषियोंको जो भगवान् प्राप्त हुए थे, वही आज कलियुगमें भी सबको प्राप्त हो सकते हैं। भोगोंकी प्राप्ति सदाके लिये नहीं होती और सबके लिये नहीं होती। परन्तु भगवान् की प्राप्ति सदाके लिये होती है और सबके लिये होती है। तात्पर्य यह हुआ कि भोगों-(जडता) की प्राप्तिमें तो विभिन्नता रहती ही है, पर उनके त्यागमें सब एक हो जाते हैं।
‘एव’ पदका तात्पर्य है कि भोग नि:सन्देह और निश्चितरूपसे दु:खके कारण हैं। उनमें सुख प्रतीत होनेपर भी वास्तवमें सुखका लेश भी नहीं है।
‘न तेषु रमते बुध:’—साधारण मनुष्यको जिन भोगोंमें सुख प्रतीत होता है, उन भोगोंको विवेकशील मनुष्य दु:खरूप ही समझता है। इसलिये वह उन भोगोंमें रमण नहीं करता, उनके अधीन नहीं होता।
विवेकी मनुष्यको इस बातका ज्ञान रहता है कि संसारके समस्त दु:ख, सन्ताप, पाप, नरक आदि संयोग-जन्य सुखकी इच्छापर ही आधारित हैं। अपने इस ज्ञानको महत्त्व देनेसे ही वह बुद्धिमान् है। परन्तु जिसने यह जान लिया है कि भोग दु:खप्रद हैं, फिर भी भोगोंकी कामना करता है और उनमें ही रमण करता है, वह वास्तवमें अपने ज्ञानको पूर्णरूपसे महत्त्व न देनेके कारण बुद्धिमान् कहलानेका अधिकारी नहीं है। अपने ज्ञानको महत्त्व देनेवाला बुद्धिमान् मनुष्य भोगोंकी कामना और उनमें रमण कर ही नहीं सकता।
परिशिष्ट भाव—वस्तु, व्यक्ति और क्रियाके सम्बन्धसे होनेवाला सुख दु:खोंका कारण है। सुखके भोगीको नियमसे दु:ख भोगना ही पड़ता है। सुखकी आशा, कामना और भोगसे वास्तवमें सुख नहीं मिलता, प्रत्युत दु:ख ही मिलता है। भोगोंका संयोग अनित्य है और वियोग नित्य है। मनुष्य अनित्यको महत्त्व देकर ही दु:ख पाता है। उसको विचार करना चाहिये कि क्या सुख चाहनेसे सुख मिल जायगा और दु:खोंका नाश हो जायगा? सुखकी इच्छा करनेसे न तो सुख मिलता है और न दु:ख मिटता है। दु:खको मिटानेके लिये सुखकी इच्छा करना दु:खकी जड़ है।
एक दु:खका भोग होता है और एक दु:खका प्रभाव होता है। जब मनुष्य दु:खका भोग करता है, तब उसमें सुखकी इच्छा उत्पन्न होती है और जब उसपर दु:खका प्रभाव होता है, तब सुखकी इच्छा मिट जाती है, उससे अरुचि हो जाती है। दु:खके भोगसे मनुष्य दु:खी होता है और दु:खके प्रभावसे वह दु:खसे ऊँचा उठता है। दु:खके प्रभावसे वह दु:खमें तल्लीन न होकर उसके कारणपर विचार करता है कि मेरेको दु:ख क्यों हुआ? विचार करनेपर उसको पता लगता है कि सुखासक्तिके सिवाय दु:खका और कोई कारण है नहीं, था नहीं, होगा नहीं और हो सकता ही नहीं। परिस्थिति भी दु:खका कारण नहीं है; क्योंकि वह बेचारी एक क्षण भी टिकती नहीं। कोई प्राणी भी दु:खका कारण नहीं है; क्योंकि वह हमारे पुराने पापोंका नाश करता है और आगे विकास करता है। संसार भी दु:खका कारण नहीं है; क्योंकि जो भी परिवर्तन होता है, वह हमें दु:ख देनेके लिये नहीं होता, प्रत्युत हमारे विकासके लिये होता है। अगर परिवर्तन न हो तो विकास कैसे होगा? परिवर्तनके बिना बीजका वृक्ष कैसे बनेगा? रज-वीर्यका शरीर कैसे बनेगा? बालकसे जवान कैसे बनेगा? मूर्खसे विद्वान् कैसे बनेगा? रोगीसे नीरोग कैसे बनेगा? तात्पर्य है कि स्वाभाविक परिवर्तन विकास करनेवाला है। संसारमें परिवर्तन ही सार है। परिवर्तनके बिना संसार एक अचल, स्थिर चित्रकी तरह ही होता। अत: परिवर्तन दोषी नहीं है, प्रत्युत उसमें सुखबुद्धि करना दोषी है। भगवान् भी दु:खके कारण नहीं हैं, क्योंकि वे आनन्दघन हैं, उनके यहाँ दु:ख है ही नहीं।
‘न तेषु रमते बुध:’—विवेकी मनुष्य भोगोंमें रमण नहीं करता; क्योंकि भोगोंकी कामना विवेकियोंकी नित्य वैरी है—‘ज्ञानिनो नित्यवैरिणा’ (गीता ३। ३९)। अविवेकीको भोग अच्छे लगते हैं; क्योंकि दोषोंमें गुणबुद्धि अविवेकसे ही होती है। सभी भोग दोषजनित होते हैं। अन्त:करणमें कोई दोष न हो तो कोई भोग नहीं होता। दोष विवेकीको ही दीखता है। इसलिये वह भोगोंमें रमण नहीं करता अर्थात् उनसे सुख नहीं लेता।
विवेकी मनुष्य उस वस्तुको नहीं चाहता, जो सदा उसके साथ न रहे। अपने विवेकसे वह इस सत्यको स्वीकार कर लेता है कि मिली हुई कोई भी वस्तु, व्यक्ति, योग्यता और सामर्थ्य मेरी नहीं है और मेरे लिये भी नहीं है। इतना ही नहीं, अनन्त सृष्टिमें कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो मेरी हो और मेरे लिये हो। प्यारी-से-प्यारी वस्तु भी सदाके लिये मेरी नहीं है, सदा मेरे साथ रहनेवाली नहीं है। इसलिये विवेकी मनुष्य यह निश्चय कर लेता है कि जो वस्तु और व्यक्ति सदा मेरे साथ रहनेवाले नहीं हैं, उनके बिना मैं सदाके लिये प्रसन्नतासे रह सकता हूँ।
सम्बन्ध—पूर्वश्लोकमें भगवान् ने बताया कि संयोगजन्य सुख भोगनेवाला दु:खोंसे नहीं बच सकता, तो फिर सुखी कौन होता है—इसका उत्तर आगेके श्लोकमें देते हैं।