न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥20॥
न, प्रहृष्येत्, प्रियम्, प्राप्य, न, उद्विजेत्, प्राप्य, च, अप्रियम्,
स्थिरबुद्धि:, असम्मूढ:, ब्रह्मवित्, ब्रह्मणि, स्थित:॥ २०॥
प्रियम् = प्रियको, प्राप्य = प्राप्त होकर, न प्रहृष्येत् = हर्षित नहीं हो, च = और, अप्रियम् = अप्रियको, प्राप्य = प्राप्त होकर, न उद्विजेत् = उद्विग्न न हो (वह), स्थिरबुद्धि: = स्थिरबुद्धि, असम्मूढ: = संशयरहित, ब्रह्मवित् = ब्रह्मवेत्ता पुरुष, ब्रह्मणि = सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मामें (एकीभावसे नित्य), स्थित: = स्थित है।
‘ब्रह्म में स्थित होकर, बुद्धि को स्थिर रखते हुए, मोह रहित होकर, ब्रह्म का ज्ञाता, न तो प्रिय को प्राप्त करके सुख का अनुभव करता है, और न अप्रिय को प्राप्त होने पर दुख का अनुभव करता है’।
व्याख्या—‘न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्’—शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, सिद्धान्त, सम्प्रदाय, शास्त्र आदिके अनुकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदिकी प्राप्ति होना ही ‘प्रिय’ को प्राप्त होना है।
शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, सिद्धान्त, सम्प्रदाय, शास्त्र आदिके प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदिकी प्राप्ति होना ही ‘अप्रिय’ को प्राप्त होना है।
प्रिय और अप्रियको प्राप्त होनेपर भी साधकके अन्त:करणमें हर्ष और शोक नहीं होने चाहिये। यहाँ प्रिय और अप्रियकी प्राप्तिका यह अर्थ नहीं है कि साधकके हृदयमें अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी-पदार्थोंके प्रति राग या द्वेष है, प्रत्युत यहाँ उन प्राणी-पदार्थोंकी प्राप्तिके ज्ञानको ही प्रिय और अप्रियकी प्राप्ति कहा गया है। प्रिय या अप्रियकी प्राप्ति अथवा अप्राप्तिका ज्ञान होनेमें कोई दोष नहीं है। अन्त:करणमें उनकी प्राप्ति अथवा अप्राप्तिका असर पड़ना अर्थात् हर्ष-शोकादि विकार होना ही दोष है।
प्रियता और अप्रियताका ज्ञान तो अन्त:करणमें होता है, पर हर्षित और उद्विग्न कर्ता होता है। अहंकारसे मोहित अन्त:करणवाला पुरुष प्रकृतिके करणोंद्वारा होनेवाली क्रियाओंको लेकर ‘मैं कर्ता हूँ’—ऐसा मान लेता है तथा हर्षित और उद्विग्न होता रहता है। परन्तु जिसका मोह दूर हो गया है, जो तत्त्ववेत्ता है, वह ‘गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं’—ऐसा जानकर अपनेमें (स्वरूपमें) वास्तविक अकर्तृत्वका अनुभव करता है (गीता—तीसरे अध्यायका अट्ठाईसवाँ श्लोक)। स्वरूपका हर्षित और उद्विग्न होना सम्भव ही नहीं है।
‘स्थिरबुद्धि:’—स्वरूपका ज्ञान स्वयंके द्वारा ही स्वयंको होता है। इसमें ज्ञाता और ज्ञेयका भाव नहीं रहता। यह ज्ञान करण-निरपेक्ष होता है अर्थात् इसमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि किसी करणकी अपेक्षा नहीं होती। करणोंसे होनेवाला ज्ञान स्थिर तथा सन्देहरहित नहीं होता, इसलिये वह अल्पज्ञान है। परन्तु स्वयं(अपने होनेपन) का ज्ञान स्वयंको ही होनेसे उसमें कभी परिवर्तन या सन्देह नहीं होता। जिस महापुरुषको ऐसे करण-निरपेक्ष ज्ञानका अनुभव हो गया है, उसकी कही जानेवाली बुद्धिमें यह ज्ञान इतनी दृढ़तासे उतर आता है कि उसमें कभी विकल्प, सन्देह, विपरीत भावना, असम्भावना आदि होती ही नहीं। इसलिये उसे ‘स्थिरबुद्धि:’ कहा गया है।
‘असम्मूढ:’—जो परमात्मतत्त्व सदा-सर्वत्र विद्यमान है, उसका अनुभव न होना और जिसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, उस उत्पत्ति-विनाशशील संसारको सत्य मानना— ऐसी मूढ़ता साधारण मनुष्यमें रहती है। इस मूढ़ताका जिसमें सर्वथा अभाव हो गया है, उसे ही यहाँ ‘असम्मूढ:’ कहा गया है।
‘ब्रह्मवित् ’—परमात्मासे अलग होकर परमात्माका अनुभव नहीं होता। परमात्माका अनुभव होनेमें अनुभविता, अनुभव और अनुभाव्य—यह त्रिपुटी नहीं रहती, प्रत्युत त्रिपुटीरहित अनुभवमात्र (ज्ञानमात्र) रहता है। वास्तवमें ब्रह्मको जाननेवाला कौन है—यह बताया नहीं जा सकता। कारण कि ब्रह्मको जाननेवाला ब्रह्मसे अभिन्न हो जाता है*, इसलिये वह अपनेको ब्रह्मवित् मानता ही नहीं अर्थात् उसमें ‘मैं ब्रह्मको जानता हूँ’ ऐसा अभिमान नहीं रहता।
* ‘ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति’ (मुण्डक० ३। २। ९); ‘ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति’ (बृहदारण्यक० ४। ४। ६)
‘ब्रह्मणि स्थित:’—वास्तवमें सम्पूर्ण प्राणी तत्त्वसे नित्य-निरन्तर ब्रह्ममें ही स्थित हैं; परन्तु भूलसे अपनी स्थिति शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें ही मानते रहनेके कारण मनुष्यको ब्रह्ममें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव नहीं होता। जिसे ब्रह्ममें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो गया है, ऐसे महापुरुषके लिये यहाँ ‘ब्रह्मणि स्थित:’ पदोंका प्रयोग हुआ है। ऐसे महापुरुषको प्रत्येक परिस्थितिमें नित्य-निरन्तर ब्रह्ममें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव होता रहता है।
यद्यपि एक वस्तुकी दूसरी वस्तुमें स्थिति होती है, तथापि ब्रह्ममें स्थिति इस प्रकारकी नहीं है। कारण कि ब्रह्मका अनुभव होनेपर सर्वत्र एक ब्रह्म-ही-ब्रह्म रह जाता है। उसमें स्थिति माननेवाला दूसरा कोई रहता ही नहीं। जबतक कोई ब्रह्ममें अपनी स्थिति मानता है, तबतक ब्रह्मकी वास्तविक अनुभूतिमें कमी है, परिच्छिन्नता है।
परिशिष्ट भाव—सुषुप्ति और मूर्च्छामें मनुष्यका शरीरसे अज्ञानपूर्वक सम्बन्ध-विच्छेद होता है अर्थात् मन अविद्यामें लीन होता है; अत: इन अवस्थाओंमें मनुष्यको प्रिय और अप्रियका, शारीरिक पीड़ा आदिका ज्ञान ही नहीं होता। परन्तु जीवन्मुक्त महापुरुषका शरीरसे ज्ञानपूर्वक सम्बन्ध-विच्छेद होता है। इसलिये उसको प्रिय और अप्रियका, शरीरकी पीड़ा आदिका ज्ञान तो होता है, पर उनसे वह हर्षित-उद्विग्न, सुखी-दु:खी नहीं होता। उसकी शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिकी परवशता मिट जाती है।
ब्रह्मको जानना और उसमें स्थित होना—दोनों एक ही हैं।
सम्बन्ध—ब्रह्ममें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव किस प्रकार होता है, इसका विवेचन आगेके श्लोकमें करते हैं।