अर्जुन उवाच ।
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥ ५-१॥
सन्न्यासम्, कर्मणाम्, कृष्ण, पुन:, योगम्, च, शंससि,
यत्, श्रेय:, एतयो:, एकम्, तत्, मे, ब्रूहि, सुनिश्चितम्॥ १॥
कृष्ण = हे कृष्ण! (आप), कर्मणाम् = कर्मोंके, सन्न्यासम् = संन्यासकी, च = और, पुन: = फिर, योगम् = कर्मयोगकी, शंससि = प्रशंसा करते हैं (इसलिये), एतयो: = इन दोनोंमेंसे, यत् = जो, एकम् = एक, मे = मेरे लिये, सुनिश्चितम् = भलीभाँति निश्चित, श्रेय: = कल्याणकारक साधन (हो), तत् = उसको, ब्रूहि = कहिये।
अर्जुन ने कहा : ‘हे कृष्ण, आपने कर्म के संन्यास की प्रशंसा की, और फिर कर्म करने की प्रशंसा भी की; मुझे निश्चयपूर्वक बताइये कि इन दोनों में से कौनसा श्रेष्ठतर है’।
व्याख्या—‘सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण’—कौटुम्बिक स्नेहके कारण अर्जुनके मनमें युद्ध न करनेका भाव पैदा हो गया था। इसके समर्थनमें अर्जुनने पहले अध्यायमें कई तर्क और युक्तियाँ भी सामने रखीं। उन्होंने युद्ध करनेको पाप बताया (गीता—पहले अध्यायका पैंतालीसवाँ श्लोक)। वे युद्ध न करके भिक्षाके अन्नसे जीवन-निर्वाह करनेको श्रेष्ठ समझने लगे (दूसरे अध्यायका पाँचवाँ श्लोक) और उन्होंने निश्चय करके भगवान् से स्पष्ट कह भी दिया कि मैं किसी भी स्थितिमें युद्ध नहीं करूँगा (दूसरे अध्यायका नवाँ श्लोक)।
प्राय: वक्ताके शब्दोंका अर्थ श्रोता अपने विचारके अनुसार लगाया करते हैं। स्वजनोंको देखकर अर्जुनके हृदयमें जो मोह पैदा हुआ, उसके अनुसार उन्हें युद्धरूप कर्मके त्यागकी बात उचित प्रतीत होने लगी। अत: भगवान् के शब्दोंको वे अपने विचारके अनुसार समझ रहे हैं कि भगवान् कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके प्रचलित प्रणालीके अनुसार तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी ही प्रशंसा कर रहे हैं।
‘पुनर्योगं च शंससि’—चौथे अध्यायके अड़तीसवें श्लोकमें भगवान् ने कर्मयोगीको दूसरे किसी साधनके बिना अवश्यमेव तत्त्वज्ञान प्राप्त होनेकी बात कही है। उसीको लक्ष्य करके अर्जुन भगवान् से कह रहे हैं कि कभी तो आप ज्ञानयोगकी प्रशंसा (चौथे अध्यायका तैंतीसवाँ श्लोक) करते हैं और कभी कर्मयोगकी प्रशंसा करते हैं (चौथे अध्यायका इकतालीसवाँ श्लोक)।
‘यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्’—इसी तरहका प्रश्न अर्जुनने दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें भी ‘यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’ पदोंसे किया था। उसके उत्तरमें भगवान् ने दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें-अड़तालीसवें श्लोकोंमें कर्मयोगकी व्याख्या करके उसका आचरण करनेके लिये कहा। फिर तीसरे अध्यायके दूसरे श्लोकमें अर्जुनने ‘तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्’ पदोंसे पुन: अपने कल्याणकी बात पूछी, जिसके उत्तरमें भगवान् ने तीसरे अध्यायके तीसवें श्लोकमें निष्काम, निर्मम और नि:संताप होकर युद्ध करनेकी आज्ञा दी तथा पैंतीसवें श्लोकमें अपने धर्मका पालन करनेको श्रेयस्कर बताया।
यहाँ उपर्युक्त पदोंसे अर्जुनने जो बात पूछी है, उसके उत्तरमें भगवान् ने कहा है कि कर्मयोग श्रेष्ठ है (पाँचवें अध्यायका दूसरा श्लोक), कर्मयोगी सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है (पाँचवें अध्यायका तीसरा श्लोक), कर्मयोगके बिना सांख्ययोगका साधन सिद्ध होना कठिन है; परन्तु कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है (पाँचवें अध्यायका छठा श्लोक)। इस प्रकार कहकर भगवान् अर्जुनको मानो यह बता रहे हैं कि कर्मयोग ही तेरे लिये शीघ्रता और सुगमतापूर्वक ब्रह्मकी प्राप्ति करानेवाला है; अत: तू कर्मयोगका ही अनुष्ठान कर।
अर्जुनके मनमें मुख्यरूपसे अपने कल्याणकी ही इच्छा थी। इसलिये वे बार-बार भगवान् के सामने श्रेयविषयक जिज्ञासा रखते हैं (दूसरे अध्यायका सातवाँ, तीसरे अध्यायका दूसरा और पाँचवें अध्यायका पहला श्लोक)। कल्याणकी प्राप्तिमें इच्छाकी प्रधानता है। साधनकी सफलतामें देरीका कारण भी यही है कि कल्याणकी इच्छा पूरी तरह जाग्रत् नहीं हुई। जिन साधकोंमें तीव्र वैराग्य नहीं है, वे भी कल्याणकी इच्छा जाग्रत् होनेपर कर्मयोगका साधन सुगमतापूर्वक कर सकते हैं*।
[* योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया।
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तेष्वनिर्विण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम्॥
(श्रीमद्भा० ११। २०। ६-७)]
अर्जुनके हृदय में भोगोंसे पूरा वैराग्य नहीं है, पर उनमें अपने कल्याणकी इच्छा है, इसलिये वे कर्मयोगके अधिकारी हैं।
पहले अध्यायके बत्तीसवें तथा दूसरे अध्यायके आठवें श्लोकको देखनेसे पता लगता है कि अर्जुन मृत्युलोकके राज्यकी तो बात ही क्या है, त्रिलोकीका राज्य भी नहीं चाहते। परन्तु वास्तवमें अर्जुन राज्य तथा भोगोंको सर्वथा नहीं चाहते हों, ऐसी बात भी नहीं है। वे कहते हैं कि युद्धमें कुटुम्बीजनोंको मारकर राज्य तथा विजय नहीं चाहता। इसका तात्पर्य है कि यदि कुटुम्बीजनोंको मारे बिना राज्य मिल जाय तो मैं उसे लेनेको तैयार हूँ। दूसरे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें अर्जुन यही कहते हैं कि गुरुजनोंको मारकर भोग भोगना ठीक नहीं है। इससे यह ध्वनि भी निकलती है कि गुरुजनोंको मारे बिना राज्य मिल जाय तो वह स्वीकार है। दूसरे अध्यायके छठे श्लोकमें अर्जुन कहते हैं कि कौन जीतेगा—इसका हमें पता नहीं और उन्हें मारकर हम जीना भी नहीं चाहते। इसका तात्पर्य है कि यदि हमारी विजय निश्चित हो तथा उनको मारे बिना राज्य मिलता हो तो मैं लेनेको तैयार हूँ। आगे दूसरे अध्यायके सैंतीसवें श्लोकमें भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तेरे तो दोनों हाथोंमें लड्डू हैं; यदि युद्धमें तू मारा गया तो तुझे स्वर्ग मिलेगा और जीत गया तो राज्य मिलेगा। यदि अर्जुनके मनमें स्वर्ग और संसारके राज्यकी किंचिन्मात्र भी इच्छा नहीं होती तो भगवान् शायद ही ऐसा कहते। अत: अर्जुनके हृदयमें प्रतीत होनेवाला वैराग्य वास्तविक नहीं है। परन्तु उनमें अपने कल्याणकी इच्छा है, जो इस श्लोकमें भी दिखायी दे रही है।
सम्बन्ध—अब भगवान् अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देते हैं।