ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥16॥
ज्ञानेन, तु, तत्, अज्ञानम्, येषाम्, नाशितम्, आत्मन:,
तेषाम्, आदित्यवत्, ज्ञानम्, प्रकाशयति, तत्परम्॥ १६॥
तु = परंतु, येषाम् = जिनका, तत् = वह, अज्ञानम् = अज्ञान, आत्मन: = परमात्माके, ज्ञानेन = तत्त्वज्ञानद्वारा, नाशितम् = नष्ट कर दिया गया है, तेषाम् = उनका (वह), ज्ञानम् = ज्ञान, आदित्यवत् = सूर्यके सदृश, तत्परम् = उस सच्चिदानन्दघन परमात्माको, प्रकाशयति = प्रकाशित कर देता है।
‘लेकिन जिनका आध्यात्मिक अंधापन या अज्ञान (स्व के) ज्ञान द्वारा नष्ट हो गया है – उनके उस ज्ञान द्वारा, सूर्य की भाँति, सर्वोच्च (ब्रह्म) व्यक्त होता है’।
व्याख्या—‘ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन:’— पीछेके श्लोकमें कही बातसे विलक्षण बात बतानेके लिये यहाँ ‘तु’ पदका प्रयोग किया गया है।
पीछेके श्लोकमें जिसको ‘अज्ञानेन’ पदसे कहा था, उसको ही यहाँ ‘तत् अज्ञानम्’ पदसे कहा गया है।
अपनी सत्ताको और शरीरको अलग-अलग मानना ‘ज्ञान’ है और एक मानना ‘अज्ञान’ है।
उत्पत्ति-विनाशशील संसारके किसी अंशमें तो हमने अपनेको रख लिया अर्थात् मैं-पन (अहंता) कर लिया और किसी अंशको अपनेमें रख लिया अर्थात् मेरापन (ममता) कर लिया। अपनी सत्ताका तो निरन्तर अनुभव होता है और मैं-मेरापन बदलता हुआ प्रत्यक्ष दीखता है; जैसे—पहले मैं बालक था और खिलौने आदि मेरे थे, अब मैं युवा या वृद्ध हूँ और स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि मेरे हैं। इस प्रकार मैं-मेरेपनके परिवर्तनका ज्ञान हमें है, पर अपनी सत्ताके परिवर्तनका ज्ञान हमें नहीं है—यह ज्ञान अर्थात् विवेक है।
मैं-मेरेपनको जडके साथ न मिलाकर साधक अपने विवेकको महत्त्व दे कि मैं-मेरापन जिससे मिलाता हूँ, वह सब बदलता है; परन्तु मैं-मेरा कहलानेवाला मैं (मेरी सत्ता) वही रहता हूँ। जडका बदलना और अभाव तो समझमें आता है, पर स्वयंका बदलना और अभाव किसीकी समझमें नहीं आता; क्योंकि स्वयंमें किंचित् भी परिवर्तन और अभाव कभी होता ही नहीं—इस विवेकके द्वारा मैं-मेरेपनका त्याग कर दे कि शरीर ‘मैं’ नहीं और बदलनेवाली वस्तु ‘मेरी’ नहीं। यही विवेकके द्वारा अज्ञानका नाश करना है। परिवर्तनशीलके साथ अपरिवर्तनशीलका सम्बन्ध अज्ञानसे अर्थात् विवेकको महत्त्व न देनेसे है। जिसने विवेकको जाग्रत् करके परिवर्तनशील मैं मेरेपनके सम्बन्धका विच्छेद कर दिया है, उसका वह विवेक सच्चिदानन्दघन परमात्माको प्रकाशित कर देता है अर्थात् अनुभव करा देता है।
‘तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्’—विवेकके सर्वथा जाग्रत् होनेपर परिवर्तनशीलकी निवृत्ति हो जाती है। परिवर्तनशीलकी निवृत्ति होनेपर अपने स्वरूपका स्वच्छ बोध हो जाता है, जिसके होते ही सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्व प्रकाशित हो जाता है अर्थात् उसके साथ अभिन्नताका अनुभव हो जाता है।
यहाँ ‘परम्’ पद परमात्मतत्त्वके लिये प्रयुक्त हुआ है। दूसरे अध्यायके उनसठवें श्लोकमें तथा तेरहवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भी परमात्मतत्त्वके लिये ‘परम्’ पद आया है।
‘प्रकाशयति’ पदका तात्पर्य है कि सूर्यका उदय होनेपर नयी वस्तुका निर्माण नहीं होता, प्रत्युत अन्धकारसे ढके जानेके कारण जो वस्तु दिखायी नहीं दे रही थी, वह दीखने लग जाती है। इसी प्रकार परमात्मतत्त्व स्वत:सिद्ध है, पर अज्ञानके कारण उसका अनुभव नहीं हो रहा था। विवेकके द्वारा अज्ञान मिटते ही उस स्वत:सिद्ध परमात्मतत्त्वका अनुभव होने लग जाता है।
परिशिष्ट भाव—अज्ञानका नाश विवेकसे ही होता है, उद्योगसे नहीं—‘यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतस:’ (गीता १५। ११)। कारण कि अज्ञानका नाश क्रियासाध्य, परिश्रमसाध्य नहीं है। परिश्रम करनेसे शरीरके साथ सम्बन्ध बना रहता है; क्योंकि शरीरसे सम्बन्ध जोड़े बिना परिश्रम नहीं होता। दूसरी बात, अज्ञानको हटानेका उद्योग करनेसे अज्ञान दृढ़ होता है; क्योंकि उसकी सत्ता मानकर ही उसको हटानेका उद्योग करते हैं।
अस्वाभाविकतामें स्वाभाविकताकी विपरीत भावना (अज्ञान) अपनेमें ही है। अत: विवेकका आदर करनेसे उसका निराकरण हो जाता है।
सम्बन्ध—जिस स्थितिमें सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है, उस स्थितिकी प्राप्तिके लिये आगेके श्लोकमें साधन बताते हैं।