नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥15॥
न, आदत्ते, कस्यचित्, पापम्, न, च, एव, सुकृतम्, विभु:,
अज्ञानेन, आवृतम्, ज्ञानम्, तेन, मुह्यन्ति, जन्तव:॥ १५॥
विभु: = सर्वव्यापी परमेश्वर (भी), न = न, कस्यचित् = किसीके, पापम् = पापकर्मको, च = और, न = न (किसीके), सुकृतम् = शुभकर्मको, एव = ही, आदत्ते = ग्रहण करता है (किंतु), अज्ञानेन = अज्ञानके द्वारा, ज्ञानम् = ज्ञान, आवृतम् = ढका हुआ है, तेन = उसीसे, जन्तव: = सब अज्ञानी मनुष्य, मुह्यन्ति = मोहित हो रहे हैं।
‘वह सर्वव्यापी दिव्य किसी की अच्छाइयाँ एवं बुराइयाँ नहीं ग्रहण करता । ज्ञान, अज्ञान द्वारा आच्छादित है, इसीलिये प्राणी मोहित होते हैं’।
व्याख्या—‘नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु:’—पूर्वश्लोकमें जिसको ‘प्रभु:’ पदसे कहा गया है, उसी परमात्माको यहाँ ‘विभु:’ पदसे कहा गया है।
कर्मफलका भागी होना दो प्रकारसे होता है—जो कर्म करता है, वह भी कर्मफलका भागी होता है और जो दूसरेसे कर्म करवाता है, वह भी कर्मफलका भागी होता है। परन्तु परमात्मा न तो किसीके कर्मको करनेवाला है और न कर्म करवानेवाला ही है; अत: वह किसीके भी कर्मका फलभागी नहीं हो सकता।
सूर्य सम्पूर्ण जगत् को प्रकाश देता है और उस प्रकाशके अन्तर्गत मनुष्य पाप और पुण्य-कर्म करते हैं; परन्तु उन कर्मोंसे सूर्यका किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार परमात्मतत्त्वसे प्रकृति सत्ता पाती है अर्थात् सम्पूर्ण संसार सत्ता पाता है। उसीकी सत्ता पाकर प्रकृति और उसका कार्य संसार-शरीरादि क्रियाएँ करते हैं। उन शरीरादिसे होनेवाले पाप-पुण्योंका परमात्मतत्त्वसे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। कारण कि भगवान् ने मनुष्यमात्रको स्वतन्त्रता दे रखी है; अत: मनुष्य उन कर्मोंका फलभागी अपनेको भी मान सकता है और भगवान् को भी मान सकता है अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों और कर्मफलोंको भगवान् के अर्पण भी कर सकता है। जो भगवान् की दी हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके कर्मोंका कर्ता और भोक्ता अपनेको मान लेता है, वह बन्धनमें पड़ जाता है। उसके कर्म और कर्मफलको भगवान् ग्रहण नहीं करते। परन्तु जो मनुष्य उस स्वतन्त्रताका सदुपयोग करके कर्म और कर्मफल भगवान् के अर्पण करता है, वह मुक्त हो जाता है। उसके कर्म और कर्मफलको भगवान् ग्रहण करते हैं।
जैसे सातवें अध्यायके पचीसवें श्लोकमें ‘सर्वस्य’ पदसे और छब्बीसवें श्लोकमें ‘कश्चन’ पदसे सामान्य मनुष्योंकी बात कही गयी है, ऐसे ही यहाँ ‘कस्यचित्’ पदसे अपनेको कर्ता और भोक्ता मानकर कर्म करनेवाले सामान्य मनुष्योंकी बात कही गयी है, न कि भक्तोंकी। कारण कि भावग्राही होनेसे भगवान् भक्तोंके द्वारा अर्पण किये हुए पत्र, पुष्प आदि पदार्थोंको और सम्पूर्ण कर्मोंको ग्रहण करते हैं (गीता—नवें अध्यायका छब्बीसवाँ-सत्ताईसवाँ श्लोक)।
‘अज्ञानेनावृतं ज्ञानम्’—स्वरूपका ज्ञान सभी मनुष्योंमें स्वत:सिद्ध है; किन्तु अज्ञानके द्वारा यह ज्ञान ढका हुआ है। उस अज्ञानके कारण जीव मूढ़ताको प्राप्त हो रहे हैं। अपनेको कर्मोंका कर्ता मानना मूढ़ता है (गीता—तीसरे अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक)। भगवान् के द्वारा मनुष्य-मात्रको विवेक दिया हुआ है, जिसके द्वारा इस मूढ़ताका नाश किया जा सकता है। इसलिये इस अध्यायके आठवें श्लोकमें कहा गया है कि सांख्ययोगी कभी भी अपनेको किसी कर्मका कर्ता न माने और तेरहवें श्लोकमें कहा गया है कि सम्पूर्ण कर्मोंके कर्तापनको विवेकपूर्वक मनसे छोड़ दे।
शरीरादि सम्पूर्ण पदार्थोंमें निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। स्वरूपमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। स्वरूपसे अपरिवर्तनशील होनेपर भी अपनेको परिवर्तनशील पदार्थोंसे एक मान लेना अज्ञान है। शरीरादि सब पदार्थ बदल रहे हैं—ऐसा जिसे अनुभव है वह स्वयं कभी नहीं बदलता। इसलिये स्वयंके बदलनेका अनुभव किसीको नहीं होता। अत: मैं बदलनेवाला नहीं हूँ—इस प्रकार परिवर्तनशील पदार्थोंसे अपनी असंगताका अनुभव कर लेनेसे अज्ञान मिट जाता है और तत्त्वज्ञान स्वत: प्रकाशित हो जाता है। कारण कि प्रकृतिके कार्यसे अपना सम्बन्ध मानते रहनेसे ही तत्त्वज्ञान ढका रहता है।
‘अज्ञान’ शब्दमें जो ‘नञ्’ समास है, वह ज्ञानके अभावका वाचक नहीं है, प्रत्युत अल्पज्ञान अर्थात् अधूरे ज्ञानका वाचक है। कारण कि ज्ञानका अभाव कभी होता ही नहीं, चाहे उसका अनुभव हो या न हो। इसलिये अधूरे ज्ञानको ही अज्ञान कहा जाता है। इन्द्रियोंका और बुद्धिका ज्ञान ही अधूरा ज्ञान है। इस अधूरे ज्ञानको महत्त्व देनेसे, इसके प्रभावसे प्रभावित होनेसे वास्तविक ज्ञानकी ओर दृष्टि जाती ही नहीं—यही अज्ञानके द्वारा ज्ञानका आवृत होना है।
इन्द्रियोंका ज्ञान सीमित है। इन्द्रियोंके ज्ञानकी अपेक्षा बुद्धिका ज्ञान असीम है। परन्तु बुद्धिका ज्ञान मन और इन्द्रियोंके ज्ञान-(जानने और न जानने-)को ही प्रकाशित करता है अर्थात् बुद्धि अपने विषय-पदार्थोंको ही प्रकाशित करती है। बुद्धि जिस प्रकृतिका कार्य है और जिस बुद्धिका कारण प्रकृति है, उस प्रकृतिको बुद्धि प्रकाशित नहीं करती। बुद्धि जब प्रकृतिको भी प्रकाशित नहीं कर सकती, तब प्रकृतिसे अतीत जो चेतन-तत्त्व है, उसे कैसे प्रकाशित कर सकती है! इसलिये बुद्धिका ज्ञान अधूरा ज्ञान है।
‘तेन मुह्यन्ति जन्तव:’—भगवान् ने ‘जन्तव:’ पद देकर मानो मनुष्योंकी ताड़ना की है कि जो मनुष्य अपने विवेकको महत्त्व नहीं देते, वे वास्तवमें जन्तु अर्थात् पशु ही हैं१; क्योंकि उनके और पशुओंके ज्ञानमें कोई अन्तर नहीं है।
[१-आहारनिद्राभयमैथुनानि
समानि चैतानि नृणां पशूनाम्।
ज्ञानं नराणामधिको विशेषो
ज्ञानेन हीना: पशुभि: समाना:॥
(चाणक्यनीति १७। १७)
‘आहार, निद्रा, भय और मैथुन—ये मनुष्यों और पशुओंमें समान ही हैं। मनुष्योंमें विशेषता यही है कि उनमें विवेक रहता है। विवेकसे शून्य मनुष्य तो पशुके समान हैं।’]
आकृतिमात्रसे कोई मनुष्य नहीं होता। मनुष्य वही है, जो अपने विवेकको महत्त्व देता है। इन्द्रियोंके द्वारा भोग तो पशु भी भोगते हैं; पर उन भोगोंको भोगना मनुष्य-जीवनका लक्ष्य नहीं है। मनुष्य-जीवनका लक्ष्य सुख-दु:खसे रहित तत्त्वको प्राप्त करना है। जिनको अपने कर्तव्य और अकर्तव्यका ठीक-ठीक ज्ञान है, वे मनुष्य साधक कहलानेयोग्य हैं।
अपनेको कर्मोंका कर्ता मान लेना तथा कर्मफलमें हेतु बनकर सुखी-दु:खी होना ही अज्ञानसे मोहित होना है। पाप-पुण्य हमें करने पड़ते हैं, इनसे हम कैसे छूट सकते हैं? सुखी-दु:खी होना हमारे कर्मोंका फल है, इनसे हम अतीत कैसे हो सकते हैं?—इस प्रकारकी धारणा बना लेना ही अज्ञानसे मोहित होना है।
जीव स्वरूपसे अकर्ता तथा सुख-दु:खसे रहित है। केवल अपनी मूर्खताके कारण वह कर्ता बन जाता है और कर्मफलके साथ सम्बन्ध जोड़कर सुखी-दु:खी होता है। इस मूढ़ता-(अज्ञान) को ही यहाँ ‘तेन’ पदसे कहा गया है। इस मूढ़तासे अज्ञानी मनुष्य सुखी-दु:खी हो रहे हैं, इस बातको यहाँ ‘तेन मुह्यन्ति जन्तव:’ पदोंसे कहा गया है।
परिशिष्ट भाव—जैसे अन्धकारमें सूर्यको ढकनेकी सामर्थ्य नहीं है, ऐसे ही अज्ञानमें ज्ञानको ढकनेकी सामर्थ्य नहीं है। अस्वाभाविकको स्वाभाविक मान लिया—यही अज्ञान है, जिससे मनुष्य मोहित हो जाता है। अत: अज्ञानके द्वारा ज्ञानको ढकनेकी बात केवल मूढ़तावश की गयी मान्यता है, वास्तविकता नहीं है। मनुष्य चाहे तो अपने विवेकको महत्त्व देकर इस मूढ़ताको मिटा सकता है (गीता—पाँचवें अध्यायका सोलहवाँ श्लोक)।
वास्तवमें ज्ञान नहीं ढकता, प्रत्युत बुद्धि ही ढकती है। परन्तु मनुष्यको ज्ञान ढका हुआ दीखता है, इसलिये यहाँ ‘आवृत’ शब्द दिया है। यही बात तीसरे अध्यायके उनतालीसवें श्लोकमें भी ‘आवृतं ज्ञानमेतेन’ पदोंसे कही गयी है। अज्ञान अभावरूप है, उसकी सत्ता नहीं है। जिसका अभाव है, उससे आवरण नहीं हो सकता। अत: उलटा ज्ञान अर्थात् अस्वाभाविकतामें स्वाभाविकताका आरोप ही अज्ञान है२।
[२-अनित्याशुचिदु:खानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या। (योगदर्शन २। ५)
‘अनित्यमें नित्य, अपवित्रमें पवित्र, दु:खमें सुख और अनात्मामें आत्मभावकी अनुभूति अविद्या है।’]
अगर अस्वाभाविकता मिटकर स्वाभाविकता हो जाय तो सर्वव्यापी परमात्माके साथ एकताका अनुभव हो जायगा। व्यक्तित्व ही पाप-पुण्यको, सुकृत-दुष्कृतको ग्रहण करता है; अत: सर्वव्यापी परमात्माके साथ एकताका अनुभव होनेपर अर्थात् व्यक्तित्व मिटनेपर फिर पाप-पुण्यका ग्रहण नहीं होता।
अज्ञान अर्थात् उलटे ज्ञान (अस्वाभाविकमें स्वाभाविक बुद्धि) के कारण मनुष्य ‘जन्तु’ हो जाता है—‘तेन मुह्यन्ति जन्तव:।’ इसी तरह जड़से सम्बन्ध माननेके कारण जीव ‘जगत्’ (जड़) हो जाता है (गीता—सातवें अध्यायका तेरहवाँ श्लोक)।
जो हमसे घुला-मिला हुआ है, उस परमात्माको तो अपनेसे अलग मान लिया और जो हमसे अलग है, उस शरीरको अपनेसे घुला-मिला मान लिया—यह अज्ञान है।
सम्बन्ध—पूर्वश्लोकमें भगवान् ने बताया कि अज्ञानके द्वारा ज्ञान ढका जानेके कारण सब जीव मोहित हो रहे हैं। अपने विवेकके द्वारा उस अज्ञानका नाश कर देनेपर जिस ज्ञानका उदय होता है, उसकी महिमा आगेके श्लोकमें कहते हैं।