सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥13॥
सर्वकर्माणि, मनसा, सन्न्यस्य, आस्ते, सुखम्, वशी,
नवद्वारे, पुरे, देही, न, एव, कुर्वन्, न, कारयन्॥ १३॥
वशी = अन्त:करण जिसके वशमें है ऐसा सांख्ययोगका आचरण करनेवाला, देही = पुरुष, न = न, कुर्वन् = करता हुआ (और), न = न, कारयन् = करवाता हुआ, एव = ही, नवद्वारे = नवद्वारोंवाले शरीररूप, पुरे = घरमें, सर्वकर्माणि = सब कर्मोंको, मनसा = मनसे, सन्न्यस्य = त्यागकर, सुखम् = आनन्दपूर्वक (सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें), आस्ते = स्थित रहता है।
‘इन्द्रियों को वशीभूत करने वाला, विवेक द्वारा सभी कर्मों का त्याग करके, न कर्म करता हुआ, न दूसरों के कर्म करने का कारण बनता हुआ, नौ द्वारों के नगर में आनन्दपूर्वक निवास करता है’।
व्याख्या—‘वशी देही’—इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें ममता-आसक्ति होनेसे ही ये मनुष्यपर अपना अधिकार जमाते हैं। ममता-आसक्ति न रहनेपर ये स्वत: अपने वशमें रहते हैं। सांख्ययोगीकी इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें ममता-आसक्ति न रहनेसे ये सर्वथा उसके वशमें रहते हैं। इसलिये यहाँ उसे ‘वशी’ कहा गया है।
जबतक किसी भी मनुष्यका प्रकृतिके कार्य (शरीर, इन्द्रियों आदि) के साथ किंचिन्मात्र भी कोई प्रयोजन रहता है, तबतक वह प्रकृतिके ‘अवश’ अर्थात् वशीभूत रहता है—‘कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:’ (गीता ३।५)। प्रकृति सदैव क्रियाशील रहती है। अत: प्रकृतिसे सम्बन्ध बना रहनेके कारण मनुष्य कर्मरहित हो ही नहीं सकता। परन्तु प्रकृतिके कार्य स्थूल, सूक्ष्म और कारण—तीनों शरीरोंसे ममता-आसक्तिपूर्वक कोई सम्बन्ध न होनेसे सांख्ययोगी उनकी क्रियाओंका कर्ता नहीं बनता। यद्यपि सांख्ययोगीका शरीरके साथ किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं होता, तथापि लोगोंकी दृष्टिमें वह शरीरधारी ही दीखता है। इसलिये उसे ‘देही’ कहा गया है।
‘नवद्वारे पुरे’—शब्दादि विषयोंका सेवन करनेके लिये दो कान, दो नेत्र, दो नासिकाछिद्र तथा एक मुख—ये सात द्वार शरीरके ऊपरी भागमें हैं, और मल-मूत्रका त्याग करनेके लिये गुदा और उपस्थ—ये दो द्वार शरीरके निचले भागमें हैं। इन नौ द्वारोंवाले शरीरको ‘पुर’ अर्थात् नगर कहनेका तात्पर्य यह है कि जैसे नगर और उसमें रहनेवाला मनुष्य—दोनों अलग-अलग होते हैं, ऐसे ही यह शरीर और इसमें रहनेका भाव रखनेवाला जीवात्मा—दोनों अलग-अलग हैं। जैसे नगरमें रहनेवाला मनुष्य नगरमें होनेवाली क्रियाओंको अपनी क्रियाएँ नहीं मानता, ऐसे ही सांख्ययोगी शरीरमें होनेवाली क्रियाओंको अपनी क्रियाएँ नहीं मानता।
‘सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्य’—इसी अध्यायके आठवें-नवें श्लोकोंमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और प्राणोंके द्वारा होनेवाली जिन तेरह क्रियाओंका वर्णन हुआ है, उन सब क्रियाओंका बोधक यहाँ ‘सर्वकर्माणि’ पद है।
यहाँ ‘मनसा सन्न्यस्य’ पदोंका अभिप्राय है— विवेकपूर्वक मनसे त्याग करना। यदि इन पदोंका अर्थ केवल मनसे त्याग करना माना जाय तो दोष आता है; क्योंकि मनसे त्याग करना भी मनकी एक क्रिया है और गीता मनसे होनेवाली क्रियाको ‘कर्म’ मानती है—‘शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नर:’ (१८। १५)। शरीरसे होनेवाली क्रियाओंके कर्तापनका मनसे त्याग करनेपर भी मनकी (त्यागरूप) क्रियाका कर्तापन तो रह ही गया! अत: ‘मनसा सन्न्यस्य’ पदोंका तात्पर्य है—विवेकपूर्वक मनसे क्रियाओंके कर्तापनका त्याग करना अर्थात् कर्तापनसे माने हुए सम्बन्धका त्याग करना। जहाँसे कर्तापनका सम्बन्ध माना है, वहींसे उस सम्बन्धका त्याग करना है। सांख्ययोगी अपनेमें कर्तापन न मानकर उसे शरीरमें ही छोड़ देता है अर्थात् कर्तापन शरीरमें ही है, अपनेमें कभी नहीं।
‘नैव कुर्वन्न कारयन्’—सांख्ययोगीमें कर्तृत्व और कारयितृत्व— दोनों ही नहीं होते अर्थात् वह करनेवाला भी नहीं होता और करवानेवाला भी नहीं होता।
शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे किंचिन्मात्र भी अहंता-ममताका सम्बन्ध न होनेके कारण सांख्ययोगी उनके द्वारा होनेवाली क्रियाओंका कर्ता अपनेको कैसे मान सकता है? अर्थात् कभी नहीं मान सकता। इसी अध्यायके आठवें श्लोकमें भी ‘नैव किञ्चित् करोमि’ पदोंसे यही बात कही गयी है। तेरहवें अध्यायके इकतीसवें श्लोकमें भी भगवान् ने ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति’ पदोंसे कहा है कि शरीरमें रहते हुए भी यह अविनाशी आत्मा कुछ नहीं करता।
यहाँ शंका होती है कि जीवात्मा स्वयं कोई कर्म नहीं करता; किन्तु वह प्रेरक बनकर कर्म तो करवा सकता है? इसका समाधान यह है कि जैसे सूर्यभगवान् का उदय होनेपर सम्पूर्ण जगत् में प्रकाश छा जाता है, लोग अपने-अपने कामोंमें लग जाते हैं, कोई खेती करता है, कोई वेदपाठ करता है, कोई व्यापार करता है आदि। परन्तु सूर्यभगवान् विहित या निषिद्ध किसी भी क्रियाके प्रेरक नहीं होते। उनसे सबको प्रकाश मिलता है, पर उस प्रकाशका कोई सदुपयोग करे या दुरुपयोग, इसमें सूर्यभगवान् की कोई प्रेरणा नहीं है। यदि उनकी प्रेरणा होती तो पाप या पुण्य-कर्मोंका भागी भी उन्हींको होना पड़ता। ऐसे ही चेतनतत्त्वसे प्रकृतिको सत्ता और शक्ति तो प्राप्त होती है, पर वह किसी क्रियाका प्रेरक नहीं होता। यही बात भगवान् ने यहाँ ‘न कारयन्’ पदोंसे कही है।
‘आस्ते सुखम्’—मनुष्यमात्रकी स्वरूपमें स्वाभाविक स्थिति है; परन्तु वे अपनी स्थिति शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिमें मान लेते हैं, जिससे उन्हें इस स्वाभाविक स्थितिका अनुभव नहीं होता। परन्तु सांख्ययोगीको निरन्तर स्वरूपमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव होता रहता है। स्वरूप सदा-सर्वदा सुख-स्वरूप है। वह सुख अखण्ड, एकरस और परिच्छिन्नतासे रहित है।
एक वस्तुकी दूसरी वस्तुमें जैसी स्थिति होती है, स्वरूपमें वैसी स्थिति नहीं होती। कारण कि स्वरूप ज्यों-का-त्यों विद्यमान रहता है। उस स्वरूपमें मनुष्यकी स्थिति स्वत:-स्वाभाविक है; अत: उसमें स्थित होनेमें कोई श्रम, उद्योग नहीं है। स्वरूपको पहचाननेपर एक स्वरूप-ही-स्वरूप रह जाता है। पहचानमात्रको समझानेके लिये ही यहाँ ‘आस्ते’ पदका प्रयोग हुआ है। इसे ही चौदहवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें ‘स्वस्थ:’ पदसे कहा गया है।
यहाँ ‘आस्ते’ क्रिया जिस तत्त्वकी सत्ताको प्रकट कर रही है, वह सब आधारोंका आधार है। समस्त उत्पन्न तत्त्व उस अनुत्पन्न तत्त्वके आश्रित हैं। उस सर्वाधिष्ठानरूप तत्त्वको किसी आधारकी आवश्यकता ही क्या है? उस स्वत:सिद्ध तत्त्वमें स्वाभाविक स्थितिको ही यहाँ ‘आस्ते’ पदसे कहा गया है। इसे ही आगे बीसवें श्लोकमें ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित:’ पदोंसे कहा गया है।
परिशिष्ट भाव—‘नैव कुर्वन्न कारयन्’—तत्त्वप्राप्तिमें करनेका भाव ही बाधक है। करनेके भावसे ही कर्तृत्व आता है और कर्तृत्वसे व्यक्तित्व आता है। क्रिया प्रकृतिमें है, स्वरूपमें स्वत: अक्रियता है। अत: करनेसे प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जुड़ता है और कुछ नहीं करनेसे स्वरूपमें स्वत: स्थिति होती है। मेरेको कुछ नहीं करना है—यह भाव भी ‘करने’ के ही अन्तर्गत है। अत: करनेसे भी मतलब नहीं होना चाहिये और न करनेसे भी मतलब नहीं होना चाहिये—‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३। १८)। स्वरूप करने और न करने—दोनोंसे रहित अर्थात् निरपेक्ष तत्त्व है।
वशी—गुणोंके संगसे ही जीव ‘अवश’ अर्थात् पराधीन होता है (गीता—तीसरे अध्यायका पाँचवाँ श्लोक)। ज्ञानयोगसे अवशता मिट जाती है और जीव ‘वशी’ अर्थात् स्वाधीन, निरपेक्ष जीवन हो जाता है।
सम्बन्ध—पूर्वश्लोकमें कहा गया कि सांख्ययोगी न तो कर्म करता है और न करवाता ही है; किन्तु भगवान् तो कर्म करवाते होंगे? इसके उत्तरमें आगेका श्लोक कहते हैं।