कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥11॥
कायेन, मनसा, बुद्ध्या, केवलै:, इन्द्रियै:, अपि,
योगिन:, कर्म, कुर्वन्ति, सङ्गम्, त्यक्त्वा, आत्मशुद्धये॥ ११॥
योगिन: = कर्मयोगी (ममत्वबुद्धिरहित), केवलै: = केवल, इन्द्रियै: = इन्द्रिय, मनसा = मन, बुद्ध्या = बुद्धि (और), कायेन = शरीरद्वारा, अपि = भी, सङ्गम् = आसक्तिको, त्यक्त्वा = त्यागकर, आत्मशुद्धये = अन्त:करणकी शुद्धिके लिये, कर्म = कर्म, कुर्वन्ति = करते हैं।
‘कर्म-योग का पालन करते हुए योगी हृदय की शुद्धि के लिये आसक्ति का त्याग करते हुए केवल शरीर, मन, इन्द्रियों और बुद्धि की सहायता से काम करते हैं’।
व्याख्या—‘योगिन:’—यहाँ ‘योगिन:’ पद कर्मयोगीके लिये आया है। जो योगी भगवदर्पण-बुद्धिसे कर्म करते हैं, वे भक्तियोगी कहलाते हैं। परन्तु जो योगी केवल संसारकी सेवाके लिये निष्कामभावपूर्वक कर्म करते हैं, वे कर्मयोगी कहलाते हैं। कर्मयोगी अपने कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिसे कर्म करते हुए भी उन्हें अपना नहीं मानता, प्रत्युत संसारका ही मानता है। कारण कि शरीरादिकी संसारके साथ एकता है।
‘कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि’— जिनको साधारण मनुष्य अपनी मानते हैं, वे शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि वास्तवमें किसी भी दृष्टिसे अपनी नहीं हैं, प्रत्युत अपनेको मिली हुई हैं और बिछुड़नेवाली हैं। इनको अपनी मानना सर्वथा भूल है। इन सबकी संसारके साथ स्वत:सिद्ध एकता है।
विचारपूर्वक देखा जाय तो शरीरादि पदार्थ किसी भी दृष्टिसे अपने नहीं हैं। मालिककी दृष्टिसे देखें तो ये भगवान् के हैं, कारणकी दृष्टिसे देखें तो ये प्रकृति हैं और कार्यकी दृष्टिसे देखें तो ये संसारके (संसारसे अभिन्न) हैं।
इस प्रकार किसी भी दृष्टिसे इनको अपना मानना, इनमें ममता रखना भूल है। ममताको सर्वथा मिटानेके लिये ही यहाँ ‘केवलै:’ पद प्रयुक्त हुआ है।
यहाँ ‘केवलै:’ पद बहुवचन होनेसे इन्द्रियोंका ही विशेषण है; परन्तु इन्द्रियोंसे ही ममता हटानेके लिये कहा जाय, शरीर-मन-बुद्धिसे नहीं—ऐसा सम्भव नहीं है। शरीरादिका सम्बन्ध समष्टि संसारके साथ है। व्यष्टि कभी समष्टिसे अलग नहीं हो सकती। इसलिये व्यष्टि (शरीरादि) से सम्बन्ध जोड़नेपर समष्टि-(संसार) से स्वत: सम्बन्ध जुड़ जाता है। जैसे लड़कीसे विवाह होनेपर अर्थात् सम्बन्ध जुड़नेपर सास, ससुर आदि ससुरालके सभी सम्बन्धियोंसे अपने-आप सम्बन्ध जुड़ जाता है, ऐसे ही संसारकी किसी भी वस्तु-(शरीरादि)से सम्बन्ध जुड़नेपर अर्थात् उसे अपनी माननेपर पूरे संसारसे अपने-आप सम्बन्ध जुड़ जाता है। अत: यहाँ ‘केवलै:’ पद शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि सबमें ही साधकको ममता हटानेकी प्रेरणा करता है।१
[१-यहाँ ‘अर्थवशाद् विभक्तिपरिणाम:’ के अनुसार ‘केवलै:’ पदकी विभक्तिका परिणाम कर लेना चाहिये अर्थात् ‘केवलेन कायेन’, ‘केवलेन मनसा’, ‘केवलया बुद्ध्या’—इस तरह विभक्तिको बदल लेना चाहिये।]
वास्तवमें कर्ताका स्वयं निर्मम होना ही आवश्यक है। यदि कर्ता स्वयं निर्मम हो तो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सब जगहसे ममता सर्वथा मिट जाती है। कारण कि वास्तवमें शरीर, इन्द्रियाँ आदि स्वरूपसे सर्वथा भिन्न हैं; अत: इनमें ममता केवल मानी हुई है, वास्तवमें है नहीं।
कर्मयोगकी साधनामें फलकी इच्छाका त्याग मुख्य है (गीता—पाँचवें अध्यायका बारहवाँ श्लोक)। साधारण लोग फलप्राप्तिके लिये कर्म करते हैं, पर कर्मयोगी फलकी आसक्तिको मिटानेके लिये कर्म करता है। परन्तु जो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिको अपना मानता रहता है, वह फलकी इच्छाका त्याग कर ही नहीं सकता२।
[२-यदि मनुष्य फलकी इच्छा न करे, तो भी शरीरादिको अपना माननेसे वह कर्मफलका हेतु बन ही जाता है, जिसका भगवान् ने निषेध किया है—‘मा कर्मफलहेतुर्भू:’ (गीता २। ४७)।]
कारण कि उसका ऐसा भाव रहता है कि शरीरादि अपने हैं तो उनके द्वारा किये गये कर्मोंका फल भी अपनेको मिलना चाहिये। इस प्रकार शरीरादिको अपना माननेसे स्वत: फलकी इच्छा उत्पन्न होती है। इसलिये फलकी इच्छाको मिटानेके लिये शरीरादिको कभी भी अपना न मानना अत्यन्त आवश्यक है।
‘केवलै:’—पदका तात्पर्य है कि जैसे वर्षा बरसती है और उससे लोगोंका हित होता है; परन्तु उसमें ऐसा भाव नहीं होता कि मैं बरसती हूँ, मेरी वर्षा है जिससे दूसरोंका हित होगा, दूसरोंको सुख होगा। ऐसे ही इन्द्रियों आदिके द्वारा होनेवाले हितमें भी अपनापन मालूम न दे।
परन्तु शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियोंके द्वारा किसीका अभीष्ट हो गया, किसीकी मनचाही बात हो गयी—इन क्रियाओंको लेकर अपने मनमें खुशी आती है तो मन, बुद्धि आदिमें केवलपना नहीं रहा, प्रत्युत उनके साथ सम्बन्ध जुड़ गया, ममता हो गयी।
‘सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये’—[पीछे दसवें श्लोकमें भी ‘सङ्गं त्यक्त्वा’ पद आये हैं; अत: इनकी व्याख्या वहीं देखनी चाहिये।]
साधारणत: मल, विक्षेप और आवरण-दोषके दूर होनेको अन्त:करणकी शुद्धि माना जाता है। परन्तु वास्तवमें अन्त:करणकी शुद्धि है—शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे ममताका सर्वथा मिट जाना। शरीरादि कभी नहीं कहते कि हम तुम्हारे हैं और तुम हमारे हो। हम ही उनको अपना मान लेते हैं। उनको अपना मानना ही अशुद्धि है—‘ममता मल जरि जाइ’ (मानस ७। ११७ क)। अत: शरीरादिके प्रति अहंता-ममतापूर्वक माने गये सम्बन्धका सर्वथा अभाव ही आत्मशुद्धि है।
इस श्लोकमें आये ‘केवलै:’ पदसे शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको अपना न माननेकी बात आयी है। ‘केवलै:’ पदमें अपनापन हटानेका उद्देश्य है और ‘आत्मशुद्धये’ पदमें अपनापन सर्वथा हटनेकी बात आयी है। तात्पर्य यह है कि अन्त:करणकी शुद्धिके लिये (अपनापन सर्वथा हटानेके उद्देश्यसे) शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको अपना न माननेपर भी इनमें सूक्ष्म अपनापन रह जाता है। उस सूक्ष्म अपनेपनका सर्वथा मिटना ही आत्मशुद्धि अर्थात् अन्त:करणकी शुद्धि है।
अहंतामें भी ममता रहती है। ममता सर्वथा मिटनेपर जब अहंतामें भी ममता नहीं रहती, तब सर्वथा शुद्धि हो जाती है।
‘कर्म कुर्वन्ति’—शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिमें जो सूक्ष्म अपनापन रह जाता है, उसे सर्वथा दूर करनेके लिये कर्मयोगी कर्म करते हैं।
जबतक मनुष्य कर्म करते हुए अपने लिये किसी प्रकारका सुख चाहता है अर्थात् किसी फलकी इच्छा रखता है और शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि कर्म-सामग्रीको अपनी मानता है, तबतक वह कर्मबन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता। इसलिये कर्मयोगी फलकी इच्छाका त्याग करके और कर्म-सामग्रीको अपनी न मानकर केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है। कारण कि योगारूढ़ होनेकी इच्छावाले मननशील योगीके लिये (दूसरोंके हितके लिये) कर्म करना ही हेतु कहा जाता है—‘आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते’ (गीता ६। ३)। इस प्रकार दूसरोंके हितके लिये वह ज्यों-ज्यों कर्म करता है, त्यों-ही-त्यों ममता-आसक्ति मिटती चली जाती है और अन्त:करणकी शुद्धि होती चली जाती है।
परिशिष्ट भाव—शुद्ध करनेसे अन्त:करण शुद्ध नहीं होता; क्योंकि शुद्ध करनेसे अन्त:करणके साथ सम्बन्ध बना रहता है। जबतक ‘मेरा अन्त:करण शुद्ध हो जाय’—यह भाव रहेगा, तबतक अन्त:करणकी शुद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि ममता ही खास अशुद्धि है। इसीलिये रामायणमें आया है—‘ममता मल जरि जाइ’ (मानस, उत्तर० ११७ क)। भगवान् ने भी यहाँ ‘केवलै:’ पदसे अन्त:करणके साथ ममता न रखनेकी बात कही है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिमें ममताका सर्वथा अभाव हो जाना ही अन्त:करणकी शुद्धि है। अत: अन्त:करणमें ममता (अपनापन) सर्वथा मिटानेके उद्देश्यसे कर्मयोगी अनासक्त भावसे कर्म करते हैं। वे अपने लिये कोई कर्म नहीं करते। कारण कि ममता रखनेसे कर्म होते हैं, कर्मयोग नहीं होता। अपने लिये कोई कर्म न करनेसे कर्मयोगीकी गति स्वरूपकी तरफ होती है।
कर्मयोगी पहले ममतारहित होनेका उद्देश्य बनाकर कर्म करता है, फिर उसके उद्देश्यकी सिद्धि हो जाती है।
सम्बन्ध—अब भगवान् आगेके श्लोकमें अन्वय और व्यतिरेक-रीतिसे कर्मयोगकी महिमाका वर्णन करते हैं।