ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥10॥
ब्रह्मणि, आधाय, कर्माणि, सङ्गम्, त्यक्त्वा, करोति, य:,
लिप्यते, न, स:, पापेन, पद्मपत्रम्, इव, अम्भसा॥ १०॥
य: = जो पुरुष, कर्माणि = सब कर्मोंको, ब्रह्मणि = परमात्मामें, आधाय = अर्पण करके (और), सङ्गम् = आसक्तिको, त्यक्त्वा = त्यागकर (कर्म), करोति = करता है, स: = वह पुरुष, अम्भसा = जलसे, पद्मपत्रम् = कमलके पत्तेकी, इव = भाँति, पापेन = पापसे, न लिप्यते = लिप्त नहीं होता।
‘वह जो ब्रह्म पर छोड़ते हुए अनासक्त होकर कर्म करता है, दोष से लिपायमान नहीं होता जैसे कि जल से कमल का पत्ता लिपायमान नहीं होता’।
व्याख्या—‘ब्रह्मण्याधाय कर्माणि’—शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदि सब भगवान् के ही हैं, अपने हैं ही नहीं; अत: इनके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको भक्तियोगी अपनी कैसे मान सकता है? इसलिये उसका यह भाव रहता है कि मात्र क्रियाएँ भगवान् के द्वारा ही हो रही हैं और भगवान् के लिये ही हो रही हैं; मैं तो निमित्तमात्र हूँ।
भगवान् ही अपनी (मेरी) इन्द्रियोंके द्वारा आप ही सम्पूर्ण क्रियाएँ करते हैं—इस बातको ठीक-ठीक धारण करके सम्पूर्ण क्रियाओंके कर्तापनको भगवान् में ही मानना, यही उपर्युक्त पदोंका अर्थ है।
शरीरादि वस्तुएँ अपनी हैं ही नहीं, प्रत्युत मिली हुई हैं और बिछुड़ रही हैं। ये केवल भगवान् के नाते, भगवत्प्रीत्यर्थ दूसरोंकी सेवा करनेके लिये मिली हैं। इन वस्तुओंपर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं है अर्थात् इनको अपने इच्छानुसार न तो रख सकते हैं, न बदल सकते हैं और न मरनेपर साथ ही ले जा सकते हैं। इसलिये इन शरीरादिको तथा इनसे होनेवाली क्रियाओंको अपनी मानना ईमानदारी नहीं है। अत: मनुष्यको ईमानदारीके साथ जिसकी ये वस्तुएँ हैं, उसीकी अर्थात् भगवान् की मान लेनी चाहिये।
सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थोंको कर्मयोगी ‘संसार’ के, ज्ञानयोगी ‘प्रकृति’ के और भक्तियोगी ‘भगवान्’ के अर्पण करता है। प्रकृति और संसार—दोनोंके ही स्वामी भगवान् हैं। अत: क्रियाओं और पदार्थोंको भगवान् के अर्पण करना ही श्रेष्ठ है।
‘सङ्गं त्यक्त्वा करोति य:’—किसी भी प्राणी, पदार्थ, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण, क्रिया आदिमें किंचिन्मात्र भी राग, खिंचाव, आकर्षण, लगाव, महत्त्व, ममता, कामना आदिका न रहना ही आसक्तिका सर्वथा त्याग करना है।
शास्त्रीय दृष्टिसे ‘अज्ञान’ जन्म-मरणका हेतु होते हुए भी साधनकी दृष्टिसे ‘राग’ ही जन्म-मरणका मुख्य हेतु है—
‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३। २१)। रागपर ही अज्ञान टिका हुआ है, इसलिये राग मिटनेपर अज्ञान भी मिट जाता है। इस राग या आसक्तिसे ही कामना पैदा होती है—‘सङ्गात्सञ्जायते काम:’ (गीता २। ६२)। कामना ही सम्पूर्ण पापोंकी जड़ है (गीता—तीसरे अध्यायका सैंतीसवाँ श्लोक)। इसलिये यहाँ पापोंके मूल कारण आसक्तिका त्याग करनेकी बात आयी है; क्योंकि इसके रहते मनुष्य पापोंसे बच नहीं सकता और इसके न रहनेसे मनुष्य पापोंसे लिप्त नहीं होता।
किसी भी क्रियाको करते समय क्रियाजन्य सुख लेनेसे तथा उसके फलमें आसक्त रहनेसे उस क्रियाका सम्बन्ध छूटता नहीं, प्रत्युत छूटनेकी अपेक्षा और बढ़ता है। किसी भी छोटी या बड़ी क्रियाके फलरूपमें कोई वस्तु चाहना ही आसक्ति नहीं है, प्रत्युत क्रिया करते समय भी अपनेमें महत्त्वका, अच्छेपनका आरोप करना और दूसरोंसे अच्छा कहलवानेका भाव रखना भी आसक्ति ही है। इसलिये अपने लिये कुछ भी नहीं करना है। जिस कर्मसे अपने लिये किसी प्रकारका किंचिन्मात्र भी सुख पानेकी इच्छा है, वह कर्म अपने लिये हो जाता है। अपनी सुख-सुविधा और सम्मानकी इच्छाका सर्वथा त्याग करके कर्म करना ही उपर्युक्त पदोंका अभिप्राय है।
‘लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा’—यह कितनी विशेष बात है कि भगवान् के सम्मुख होकर भक्तियोगी संसारमें रहकर सम्पूर्ण भगवदर्थ कर्म करते हुए भी कर्मोंसे नहीं बँधता! जैसे कमलका पत्ता जलमें उत्पन्न होकर और जलमें रहकर भी जलसे निर्लिप्त रहता है, ऐसे ही भक्तियोगी संसारमें रहकर सम्पूर्ण क्रियाएँ करनेपर भी भगवान् के सम्मुख होनेके कारण संसारमें सर्वदा-सर्वथा निर्लिप्त रहता है।
भगवान् से विमुख होकर संसारकी कामना करना ही सब पापोंका मुख्य हेतु है। कामना आसक्तिसे उत्पन्न होती है। आसक्तिका सर्वथा अभाव होनेसे कामना नहीं रह सकती, इसलिये पाप होनेकी सम्भावना ही नहीं रहती।
धुएँसे अग्निकी तरह सभी कर्म किसी-न-किसी दोषसे युक्त होते हैं (गीता—अठारहवें अध्यायका अड़तालीसवाँ श्लोक)। परन्तु जिसने आशा, कामना, आसक्तिका त्याग कर दिया है, उसे ये दोष नहीं लगते। आसक्तिरहित होकर भगवदर्थ कर्म करनेके प्रभावसे सम्पूर्ण संचित पाप विलीन हो जाते हैं (गीता—नवें अध्यायका सत्ताईसवाँ-अट्ठाईसवाँ श्लोक)। अत: भक्तियोगीका किसी प्रकारसे भी पापसे सम्बन्ध नहीं रहता।
यहाँ ‘पापेन’ पद कर्मोंसे होनेवाले उस पाप-पुण्यरूप फलका वाचक है, जो आगामी जन्मारम्भमें कारण होता है। भक्तियोगी उस पाप-पुण्यरूप फलसे कभी लिप्त नहीं होता अर्थात् बँधता नहीं। इसी बातको नवें अध्यायके अट्ठाईसवें श्लोकमें ‘शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै:’ पदोंसे कहा गया है।
परिशिष्ट भाव—यहाँ सगुण ईश्वरको ‘ब्रह्म’ कहनेका तात्पर्य है कि ईश्वर सगुण, निर्गुण, साकार, निराकार सब कुछ है; क्योंकि वह समग्र है। समग्रमें सब आ जाते हैं (गीता—सातवें अध्यायका उनतीसवाँ-तीसवाँ श्लोक)। श्रीमद्भागवतमें भी ब्रह्म (निर्गुण-निराकार), परमात्मा (सगुण-निराकार) और भगवान् (सगुण-साकार)—तीनोंको एक बताया है*।
* वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते॥
(१। २। ११)
तात्पर्य यह हुआ कि ‘सगुण’ के अन्तर्गत ब्रह्म, परमात्मा और भगवान्—ये तीनों आ जाते हैं, पर ‘निर्गुण’ के अन्तर्गत केवल ब्रह्म ही आता है; क्योंकि निर्गुणमें गुणोंका निषेध है। अत: निर्गुण सीमित है और सगुण समग्र है।
वैष्णवलोग सगुण-साकार भगवान् के उत्सवको ‘ब्रह्मोत्सव’ नामसे कहते हैं। अर्जुनने भी भगवान् श्रीकृष्णको ‘ब्रह्म’ नामसे कहा है—‘परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्’ (गीता १०। १२)। गीतामें ब्रह्मके तीन नाम बताये हैं—‘ॐ’, ‘तत्’ और ‘सत्’ (१७। २३)। नाम-नामीका सम्बन्ध होनेसे यह भी सगुण ही हुआ।
सम्बन्ध—अब भगवान् कर्मयोगीके कर्म करनेकी शैली बताते हैं।