श्रीभगवानुवाच ।
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ ४-५॥
बहूनि, मे, व्यतीतानि, जन्मानि, तव, च, अर्जुन,
तानि, अहम्, वेद, सर्वाणि, न, त्वम्, वेत्थ, परन्तप॥ ५॥
परन्तप = हे परन्तप, अर्जुन = अर्जुन!, मे = मेरे, च = और, तव = तेरे, बहूनि = बहुत-से, जन्मानि = जन्म, व्यतीतानि = हो चुके हैं, तानि = उन, सर्वाणि = सबको, त्वम् = तू, न = नहीं, वेत्थ = जानता (किंतु), अहम् = मैं, वेद = जानता हूँ।
‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘हे अर्जुन; मेरे और तुम्हारे अनेक बार जन्म हो चुके हैं, मैं उन सब को जानता हूँ, जबकि हे शत्रुओं को कष्टप्रद तुम नहीं जानते हो’।
व्याख्या—[तीसरे श्लोकमें भगवान् ने अर्जुनको अपना भक्त और प्रिय सखा कहा था, इसलिये पीछेके श्लोकमें अर्जुन अपने हृदयकी बात नि:संकोच होकर पूछते हैं। अर्जुनमें भगवान् के जन्म-रहस्यको जाननेकी प्रबल जिज्ञासा उत्पन्न हुई है, इसलिये भगवान् उनके सामने मित्रताके नाते अपने जन्मका रहस्य प्रकट कर देते हैं। यह नियम है कि श्रोताकी प्रबल जिज्ञासा होनेपर वक्ता अपनेको छिपाकर नहीं रख सकता। इसलिये सन्त-महात्मा भी अपनेमें विशेष श्रद्धा रखनेवालोंके सामने अपने-आपको प्रकट कर सकते हैं*—]
गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं।
आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥
(मानस १। ११०। १)
(* सन्त-महात्मा भी स्वयं छिपे रहते हैं और सबके सामने प्रकट नहीं होते। परन्तु निम्नलिखित तीन अवसरोंपर वे अपने-आपको प्रकट कर देते हैं—
१—जब कोई अत्यधिक श्रद्धालु सामने आ जाय और उसमें उन्हें (सन्त-महात्माको) जाननेकी उत्कट अभिलाषा हो।
२—जब अपने किसी प्रेमीका शरीर छूटनेवाला हो।
३—जब सन्त-महात्माका अपना कहलानेवाला शरीर छूट रहा हो।
दूसरे और तीसरे अवसरपर सन्त-महात्मा उस व्यक्तिके सामने भी अपने-आपको प्रकट कर देते हैं, जिसमें उतनी अधिक श्रद्धा तो नहीं है, पर वह उन सन्त-महात्माका हृदयसे आदर करता है और उन्हें जानना चाहता है।)
‘बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन’— समय-समयपर मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। परन्तु मेरा जन्म और तरहका है (जिसका वर्णन आगे छठे श्लोकमें करेंगे) और तेरा (जीवका) जन्म और तरहका है (जिसका वर्णन आठवें अध्यायके उन्नीसवें और तेरहवें अध्यायके इक्कीसवें एवं छब्बीसवें श्लोकमें करेंगे)। तात्पर्य यह कि मेरे और तेरे बहुत-से जन्म होनेपर भी वे अलग-अलग प्रकारके हैं।
दूसरे अध्यायके बारहवें श्लोकमें भगवान् ने अर्जुनसे कहा था कि मैं (भगवान्) और तू तथा ये राजालोग (जीव) पहले नहीं थे और आगे नहीं रहेंगे—ऐसा नहीं है। तात्पर्य यह कि भगवान् और उनका अंश जीवात्मा— दोनों ही अनादि और नित्य हैं।
‘तान्यहं वेद सर्वाणि’—संसारमें ऐसे ‘जातिस्मर’ जीव भी होते हैं, जिनको अपने पूर्वजन्मोंका ज्ञान होता है। ऐसे महापुरुष ‘युंजान योगी’ कहलाते हैं, जो साधना करके सिद्ध होते हैं। साधनामें अभ्यास करते-करते इनकी वृत्ति इतनी तेज हो जाती है कि ये जहाँ वृत्ति लगाते हैं, वहींका ज्ञान इनको हो जाता है। ऐसे योगी कुछ सीमातक ही अपने पुराने जन्मोंको जान सकते हैं, सम्पूर्ण जन्मोंको नहीं। इसके विपरीत भगवान् ‘युक्तयोगी’ कहलाते हैं, जो साधना किये बिना स्वत:सिद्ध, नित्य योगी हैं। जन्मोंको जाननेके लिये उन्हें वृत्ति नहीं लगानी पड़ती, प्रत्युत उनमें अपने और जीवोंके भी सम्पूर्ण जन्मोंका स्वत:-स्वाभाविक ज्ञान सदा बना रहता है। उनके ज्ञानमें भूत, भविष्य और वर्तमानका भेद नहीं है, प्रत्युत उनके अखण्ड ज्ञानमें सभी कुछ सदा वर्तमान ही रहता है (गीता ७। २६)। कारण कि भगवान् सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिमें पूर्णरूपसे विद्यमान रहते हुए भी इनसे सर्वथा अतीत रहते हैं।
[‘मैं उन सबको जानता हूँ’—भगवान् के इस वचनसे साधकोंको एक विशेष आनन्द आना चाहिये कि हम भगवान् की जानकारीमें हैं, भगवान् हमें निरन्तर देख रहे हैं! हम कैसे ही क्यों न हों, पर हैं भगवान् के ज्ञानमें।]
‘न त्वं वेत्थ परन्तप’—जन्मोंको न जाननेमें मूल हेतु है—अन्त:करणमें नाशवान् पदार्थोंका आकर्षण, महत्त्व होना। इसीके कारण मनुष्यका ज्ञान विकसित नहीं होता। अर्जुनके अन्त:करणमें नाशवान् पदार्थोंका, व्यक्तियोंका महत्त्व था, इसीलिये वे कुटुम्बियोंके मरनेके भयसे युद्ध नहीं करना चाहते थे। पहले अध्यायके तैंतीसवें श्लोकमें अर्जुनने कहा था कि जिनके लिये हमारी राज्य, भोग और सुखकी इच्छा है, वे ही ये कुटुम्बी प्राणोंकी और धनकी आशा छोड़कर युद्धमें खड़े हैं—इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन राज्य, भोग और सुख चाहते थे। अत: नाशवान् पदार्थोंकी कामना होनेके कारण वे अपने पूर्वजन्मोंको नहीं जानते थे।
ममता-आसक्तिपूर्वक अपने सुखभोग और आरामके लिये धनादि पदार्थोंका संग्रह करना ‘परिग्रह’ कहलाता है। परिग्रहका सर्वथा त्याग करना अर्थात् अपने सुख, आराम आदिके लिये किसी भी वस्तुका संग्रह न करना ‘अपरिग्रह’ कहलाता है। अपरिग्रहकी दृढ़ता होनेपर पूर्वजन्मोंका ज्ञान हो जाता है—
अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध:। (पातंजलयोगदर्शन २। ३९)
संसार (क्रिया और पदार्थ) सदैव परिवर्तनशील और असत् है; अत: उसमें अभाव (कमी) होना निश्चित है। अभावरूप संसारसे सम्बन्ध जोड़नेके कारण मनुष्यको अपनेमें भी अभाव दीखने लग जाता है। अभाव दीखनेके कारण उसमें यह कामना पैदा हो जाती है कि अभावकी तो पूर्ति हो जाय, फिर नया और मिले। इस कामनाकी पूर्तिमें ही वह दिन-रात लगा रहता है। परन्तु कामनाकी पूर्ति होनेवाली है नहीं। कामनाओंके कारण मनुष्य बेहोश-सा हो जाता है। अत: ऐसे मनुष्यको अनेक जन्मोंका ज्ञान तो दूर रहा, वर्तमान कर्तव्यका भी ज्ञान (क्या कर रहा हूँ और क्या करना चाहिये) नहीं होता।
सम्बन्ध—पूर्वश्लोकमें भगवान् ने बताया कि मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। अब आगेके श्लोकमें भगवान् अपने जन्म-(अवतार-) की विलक्षणता बताते हैं।