तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥42॥
तस्मात्, अज्ञानसम्भूतम्, हृत्स्थम्, ज्ञानासिना, आत्मन:,
छित्त्वा, एनम्, संशयम्, योगम्, आतिष्ठ, उत्तिष्ठ, भारत॥ ४२॥
तस्मात् = इसलिये, भारत = हे भरतवंशी अर्जुन! (तू), हृत्स्थम् = हृदयमें स्थित, एनम् = इस, अज्ञानसम्भूतम् = अज्ञानजनित, आत्मन: = अपने, संशयम् = संशयका, ज्ञानासिना = विवेकज्ञानरूप तलवारद्वारा, छित्त्वा = छेदन करके, योगम् = समत्वरूप कर्मयोगमें, आतिष्ठ = स्थित हो जा (और युद्धके लिये), उत्तिष्ठ = खड़ा हो जा।
‘इसलिये ज्ञान की तलवार से स्व के बारे में यह संदेह काटते हुए, जो तुम्हारे हृदय में स्थित अज्ञान के कारण उत्पन्न हुआ है, योग का आश्रय लो, और उठो, हे भारत!’
व्याख्या—‘तस्मादज्ञानसम्भूतं….छित्त्वैनं संशयम्’—पूर्वश्लोकमें भगवान् ने यह सिद्धान्त बताया कि जिसने समताके द्वारा समस्त कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है और ज्ञानके द्वारा समस्त संशयोंको नष्ट कर दिया है, उस आत्मपरायण कर्मयोगीको कर्म नहीं बाँधते अर्थात् वह जन्म-मरणसे मुक्त हो जाता है। अब भगवान् ‘तस्मात्’ पदसे अर्जुनको भी वैसा ही जानकर कर्तव्य-कर्म करनेकी प्रेरणा करते हैं।
अर्जुनके हृदयमें संशय था—युद्धरूप घोर कर्मसे मेरा कल्याण कैसे होगा? और कल्याणके लिये मैं कर्मयोगका अनुष्ठान करूँ अथवा ज्ञानयोगका? इस श्लोकमें भगवान् इस संशयको दूर करनेकी प्रेरणा करते हैं; क्योंकि संशयके रहते हुए कर्तव्यका पालन ठीक तरहसे नहीं हो सकता।
‘अज्ञानसम्भूतम्’ पदका भाव है कि सब संशय अज्ञानसे अर्थात् कर्मोंके और योगके तत्त्वको ठीक-ठीक न समझनेसे ही उत्पन्न होते हैं। क्रियाओं और पदार्थोंको अपना और अपने लिये मानना ही अज्ञान है। यह अज्ञान जबतक रहता है, तबतक अन्त:करणमें संशय रहते हैं; क्योंकि क्रियाएँ और पदार्थ विनाशी हैं और स्वरूप अविनाशी है।
तीसरे अध्यायमें कर्मयोगका आचरण करनेकी और इस चौथे अध्यायमें कर्मयोगको तत्त्वसे जाननेकी बात विशेषरूपसे आयी है। कारण कि कर्म करनेके साथ-साथ कर्मको जाननेकी भी बहुत आवश्यकता है। ठीक-ठीक जाने बिना कोई भी कर्म बढ़िया रीतिसे नहीं होता। इसके सिवाय अच्छी तरह जानकर कर्म करनेसे जो कर्म बाँधने-वाले होते हैं, वे ही कर्म मुक्त करनेवाले हो जाते हैं (गीता—चौथे अध्यायका सोलहवाँ और बत्तीसवाँ श्लोक)। इसलिये इस अध्यायमें भगवान् ने कर्मोंको तत्त्वसे जाननेपर विशेष जोर दिया है।
पूर्वश्लोकमें भी ‘ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्’ पद इसी अर्थमें आया है। जो मनुष्य कर्म करनेकी विद्याको जान लेता है, उसके समस्त संशयोंका नाश हो जाता है। कर्म करनेकी विद्या है—अपने लिये कुछ करना ही नहीं है।
‘योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत’—अर्जुन अपने धनुष-बाणका त्याग करके रथके मध्यभागमें बैठ गये थे (पहले अध्यायका सैंतालीसवाँ श्लोक)। उन्होंने भगवान् से साफ कह दिया था कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’—‘न योत्स्ये’ (गीता २। ९)। यहाँ भगवान् अर्जुनको योगमें स्थित होकर युद्धके लिये खड़े हो जानेकी आज्ञा देते हैं। यही बात भगवान् ने दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें ‘योगस्थ: कुरु कर्माणि’ (योगमें स्थित होकर कर्तव्य-कर्म कर) पदोंसे भी कही थी। योगका अर्थ ‘समता’ है—‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता २। ४८)।
अर्जुन युद्धको पाप समझते थे (गीता—पहले अध्यायका छत्तीसवाँ और पैंतालीसवाँ श्लोक)। इसलिये भगवान् अर्जुनको समतामें स्थित होकर युद्ध करनेकी आज्ञा देते हैं; क्योंकि समतामें स्थित होकर युद्ध करनेसे पाप नहीं लगता (गीता—दूसरे अध्यायका अड़तीसवाँ श्लोक)। इसलिये समतामें स्थित होकर कर्तव्य-कर्म करना ही कर्म-बन्धनसे छूटनेका उपाय है।
संसारमें रात-दिन अनेक कर्म होते रहते हैं, पर उन कर्मोंमें राग-द्वेष न होनेसे हम संसारके उन कर्मोंसे बँधते नहीं, प्रत्युत निर्लिप्त रहते हैं। जिन कर्मोंमें हमारा राग या द्वेष हो जाता है, उन्हीं कर्मोंसे हम बँधते हैं। कारण कि राग या द्वेषसे कर्मोंके साथ अपना सम्बन्ध जुड़ जाता है। जब राग-द्वेष नहीं रहते अर्थात् समता आ जाती है, तब कर्मोंके साथ अपना सम्बन्ध नहीं जुड़ता; अत: मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।
अपने स्वरूपको देखें तो उसमें समता स्वत:सिद्ध है। विचार करें कि प्रत्येक कर्मका आरम्भ होता है और समाप्ति होती है। उन कर्मोंका फल भी आदि और अन्तवाला होता है। परन्तु स्वरूप निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है। कर्म और फल अनेक होते हैं, पर स्वरूप एक ही रहता है। अत: कोई भी कर्म अपने लिये न करनेसे और किसी भी पदार्थको अपना और अपने लिये न माननेसे जब क्रिया-पदार्थरूप संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, तब स्वत:सिद्ध समताका अपने-आप अनुभव हो जाता है।