योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥41॥
योगसन्न्यस्तकर्माणम्, ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्,
आत्मवन्तम्, न, कर्माणि, निबध्नन्ति, धनञ्जय॥ ४१॥
धनञ्जय = हे धनंजय!, योगसन्न्यस्तकर्माणम् = जिसने कर्मयोगकी विधिसे समस्त कर्मोंका परमात्मामें अर्पण कर दिया है (और), ज्ञानसञ्छिन्न- संशयम् = जिसने विवेकद्वारा समस्त संशयोंका नाश कर दिया है(ऐसे), आत्मवन्तम् = वशमें किये हुए अन्त:करणवाले पुरुषको, कर्माणि = कर्म, न = नहीं, निबध्नन्ति = बाँधते।
‘जिसने योग द्वारा कर्मों का त्याग कर दिया है और जिसके संशय आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा जीत लिये गये है, हे धनंजय, ऐसे व्यक्ति को, जो स्व में स्थित है, कर्म नहीं बाँधते।’
व्याख्या—‘योगसन्न्यस्तकर्माणम्’—शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जो वस्तुएँ हमें मिली हैं और हमारी दीखती हैं, वे सब दूसरोंकी सेवाके लिये ही हैं, अपना अधिकार जमानेके लिये नहीं। इस दृष्टिसे जब उन वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें (उनका ही मानकर) लगा दिया जाता है, तब कर्मों और वस्तुओंका प्रवाह संसारकी ओर ही हो जाता है और अपनेमें स्वत:सिद्ध समताका अनुभव हो जाता है। इस प्रकार योग (समता)के द्वारा जिसने कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है, वह पुरुष ‘योगसन्न्यस्तकर्मा’ है।
जब कर्मयोगी कर्ममें अकर्म तथा अकर्ममें कर्म देखता है अर्थात् कर्म करते हुए अथवा न करते हुए—दोनों अवस्थाओंमें नित्य-निरन्तर असंग रहता है, तब वही वास्तवमें ‘योगसन्न्यस्तकर्मा’ होता है।
‘ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्’—मनुष्यके भीतर प्राय: ये संशय रहते हैं कि कर्म करते हुए ही कर्मोंसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कैसे होगा? अपने लिये कुछ न करें तो अपना कल्याण कैसे होगा? आदि। परन्तु जब वह कर्मोंके तत्त्वको अच्छी तरह जान लेता है*, तब उसके समस्त संशय मिट जाते हैं।
[* कर्मोंके तत्त्वका वर्णन इसी अध्यायके सोलहवेंसे बत्तीसवें श्लोकतकके प्रकरणमें विशेषतासे हुआ है। इसमें भी अठारहवाँ श्लोक मुख्य है।]
उसे इस बातका स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि कर्मों और उनके फलोंका आदि और अन्त होता है, पर स्वरूप सदा ज्यों-का-त्यों रहता है। इसलिये कर्ममात्रका सम्बन्ध ‘पर’ (संसार) के साथ है, ‘स्व’ (स्वरूप) के साथ बिलकुल नहीं। इस दृष्टिसे अपने लिये कर्म करनेसे कर्मोंके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है और निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि अपना कल्याण दूसरोंके लिये कर्म करनेसे ही होता है, अपने लिये कर्म करनेसे नहीं।
‘आत्मवन्तम्’—कर्मयोगीका उद्देश्य स्वरूपबोधको प्राप्त करनेका होता है, इसलिये वह सदा स्वरूपके परायण रहता है। उसके सम्पूर्ण कर्म संसारके लिये ही होते हैं। सेवा तो स्वरूपसे ही दूसरोंके लिये होती है, खाना-पीना, सोना-बैठना आदि जीवन-निर्वाहकी सम्पूर्ण क्रियाएँ भी दूसरोंके लिये ही होती हैं; क्योंकि क्रियामात्रका सम्बन्ध संसारके साथ है, स्वरूपके साथ नहीं।
‘न कर्माणि निबध्नन्ति’—अपने लिये कोई भी कर्म न करनेसे कर्मयोगीका सम्पूर्ण कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् वह सदाके लिये संसार-बन्धनसे सर्वथा मुक्त हो जाता है (गीता—चौथे अध्यायका तेईसवाँ श्लोक)।
कर्म स्वरूपसे बन्धनकारक हैं ही नहीं। कर्मोंमें फलेच्छा, ममता, आसक्ति और कर्तृत्वाभिमान ही बाँधनेवाला है।
सम्बन्ध—पूर्वश्लोकमें भगवान् ने बताया कि ज्ञानके द्वारा संशयका नाश होता है और समताके द्वारा कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है। अब आगेके श्लोकमें भगवान् ज्ञानके द्वारा अपने संशयका नाश करके समतामें स्थित होनेके लिये अर्जुनको आज्ञा देते हैं।