यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥31॥
यज्ञशिष्टामृतभुज:, यान्ति, ब्रह्म, सनातनम्,
न, अयम्, लोक:, अस्ति, अयज्ञस्य, कुत:, अन्य:, कुरुसत्तम॥ ३१॥
कुरुसत्तम = हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन!, यज्ञशिष्टामृतभुज: = यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले (योगीजन), सनातनम् = सनातन, ब्रह्म = परब्रह्म परमात्माको, यान्ति = प्राप्त होते हैं (और), अयज्ञस्य = यज्ञ न करनेवाले पुरुषके लिये (तो), अयम् = यह, लोक: = मनुष्यलोक भी (सुखदायक), न = नहीं, अस्ति = है (फिर), अन्य: = परलोक, कुत: = कैसे (सुखदायक हो सकता है)।
वे जो यज्ञ के बाद बचे हुए को खाते हैं, असीम ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करने वालों के लिए यह लोक तक भी नहीं है, फिर कैसे परलोक उनके लिये हो सकता है, हे कुरुओं में श्रेष्ठ?’
व्याख्या—‘यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्’—यज्ञ करनेसे अर्थात् निष्कामभावपूर्वक दूसरोंको सुख पहुँचानेसे समताका अनुभव हो जाना ही ‘यज्ञशिष्ट अमृत’ का अनुभव करना है। अमृत अर्थात् अमरताका अनुभव करनेवाले सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं (गीता—तीसरे अध्यायका तेरहवाँ श्लोक)।
स्वरूपसे मनुष्य अमर है। मरनेवाली वस्तुओंके संगसे ही मनुष्यको मृत्युका अनुभव होता है। इन वस्तुओंको संसारके हितमें लगानेसे जब मनुष्य असंग हो जाता है, तब उसे स्वत:सिद्ध अमरताका अनुभव हो जाता है।
कर्तव्यमात्र केवल कर्तव्य समझकर किया जाय, तो वह यज्ञ हो जाता है। केवल दूसरोंके हितके लिये किया जानेवाला कर्म ही कर्तव्य होता है। जो कर्म अपने लिये किया जाता है, वह कर्तव्य नहीं होता, प्रत्युत कर्ममात्र होता है, जिससे मनुष्य बँधता है। इसलिये यज्ञमें देना-ही-देना होता है, लेना केवल निर्वाहमात्रके लिये होता है (गीता—चौथे अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक)। शरीर यज्ञ करनेके लिये समर्थ रहे—इस दृष्टिसे शरीर-निर्वाहमात्रके लिये वस्तुओंका उपयोग करना भी यज्ञके अन्तर्गत है। मनुष्य-शरीर यज्ञके लिये ही है। उसे मान-बड़ाई, सुख-आराम आदिमें लगाना बन्धनकारक है। केवल यज्ञके लिये कर्म करनेसे मनुष्य बन्धनरहित (मुक्त) हो जाता है और उसे सनातन ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है।
‘नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम’— जैसे तीसरे अध्यायके आठवें श्लोकमें भगवान् ने कहा कि कर्म न करनेसे तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा, ऐसे ही यहाँ कहते हैं कि यज्ञ न करनेसे तेरा यह लोक भी लाभदायक नहीं रहेगा, फिर परलोकका तो कहना ही क्या है! केवल स्वार्थभावसे (अपने लिये) कर्म करनेसे इस लोकमें संघर्ष उत्पन्न हो जायगा और सुख-शान्ति भंग हो जायगी तथा परलोकमें कल्याण भी नहीं होगा।
अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे घरमें भी भेद और संघर्ष पैदा हो जाता है, खटपट मच जाती है। घरमें कोई स्वार्थी, पेटू व्यक्ति हो, तो घरवालोंको उसका रहना सुहाता नहीं। स्वार्थत्यागपूर्वक अपने कर्तव्यसे सबको सुख पहुँचाना घरमें अथवा संसारमें रहनेकी विद्या है। अपने कर्तव्यका पालन करनेसे दूसरोंको भी कर्तव्य-पालनकी प्रेरणा मिलती है। इससे घरमें एकता और शान्ति स्वाभाविक आ जाती है। परन्तु अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे इस लोकमें सुखपूर्वक जीना भी कठिन हो जाता है और अन्य लोकोंकी तो बात ही क्या है! इसके विपरीत अपने कर्तव्यका ठीक-ठीक पालन करनेसे यह लोक भी सुखदायक हो जाता है और परलोक भी।
सम्बन्ध—इसी अध्यायके सोलहवें श्लोकमें भगवान् ने कर्मोंका तत्त्व बतानेकी प्रतिज्ञा की थी। उसका विस्तारसे वर्णन करके अब भगवान् उसका उपसंहार करते हैं।