द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥28॥
द्रव्ययज्ञा:, तपोयज्ञा:, योगयज्ञा:, तथा, अपरे,
स्वाध्यायज्ञानयज्ञा:, च, यतय:, संशितव्रता:॥ २८॥
अपरे = कई पुरुष, द्रव्ययज्ञा: = द्रव्य-सम्बन्धी यज्ञ करनेवाले हैं(कितने ही), तपोयज्ञा: = तपस्यारूप यज्ञ करनेवाले हैं, तथा = तथा (दूसरे कितने ही), योगयज्ञा: = योगरूप यज्ञ करनेवाले हैं च = और (कितने ही) संशितव्रता: = अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतोंसे युक्त, यतय: = यत्नशील पुरुष, स्वाध्यायज्ञानयज्ञा:=स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करनेवाले हैं।
‘दूसरे लोग फिर भौतिक वस्तुएँ, कठोर अभ्यास और योग का यज्ञ रूप में अर्पण करते हैं, जब कि कुछ अन्य, जिनमें आत्म संयम और कठोर व्रत की क्षमता है वे धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन और ज्ञान के अर्पण का यज्ञ करते हैं।’
व्याख्या—‘यतय: संशितव्रता:’—अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरीका अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (भोग-बुद्धिसे संग्रहका अभाव)—ये पाँच ‘यम’ हैं*, जिन्हें ‘महाव्रत’ के नामसे कहा गया है।
[* अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:॥ (योगदर्शन २। ३०)]
शास्त्रोंमें इन महाव्रतोंकी बहुत प्रशंसा, महिमा है। इन व्रतोंका सार यही है कि मनुष्य संसारसे विमुख हो जाय। इन व्रतोंका पालन करनेवाले साधकोंके लिये यहाँ ‘संशितव्रता:’ पद आया है। इसके सिवाय इस श्लोकमें आये चारों यज्ञोंमें जो-जो पालनीय व्रत अर्थात् नियम हैं, उनपर दृढ़ रहकर उनका पालन करनेवाले भी सब ‘संशितव्रता:’ हैं। अपने-अपने यज्ञके अनुष्ठानमें प्रयत्नशील होनेके कारण उन्हें ‘यतय:’ कहा गया है।
‘संशितव्रता:’ पदके साथ (‘द्रव्ययज्ञा:,’ ‘तपोयज्ञा:,’ ‘योगयज्ञा:’ और ‘ज्ञानयज्ञा:’ की तरह) ‘यज्ञा:’ पद नहीं दिया जानेके कारण इसे अलग यज्ञ नहीं माना गया है।
‘द्रव्ययज्ञा:’—मात्र संसारके हितके उद्देश्यसे कुआँ, तालाब, मन्दिर, धर्मशाला आदि बनवाना, अभावग्रस्त लोगोंको अन्न, जल, वस्त्र, औषध, पुस्तक आदि देना, दान करना इत्यादि सब ‘द्रव्ययज्ञ’ है। द्रव्य (तीनों शरीरोंसहित सम्पूर्ण पदार्थों) को अपना और अपने लिये न मानकर नि:स्वार्थभावसे उन्हींका मानकर उनकी सेवामें लगानेसे द्रव्ययज्ञ सिद्ध हो जाता है।
शरीरादि जितनी वस्तुएँ हमारे पास हैं, उन्हींसे यज्ञ हो सकता है, अधिककी आवश्यकता नहीं है। मनुष्य बालकसे उतनी ही आशा रखता है, जितना वह कर सकता है, फिर सर्वज्ञ भगवान् तथा संसार हमसे हमारी क्षमतासे अधिककी आशा कैसे रखेंगे?
‘तपोयज्ञा:’—अपने कर्तव्य-(स्वधर्म-) के पालनमें जो-जो प्रतिकूलताएँ, कठिनाइयाँ आयें, उन्हें प्रसन्नतापूर्वक सह लेना ‘तपोयज्ञ’ है। लोकहितार्थ एकादशी आदिका व्रत रखना, मौन धारण करना आदि भी ‘तपोयज्ञ’ अर्थात् तपस्यारूप यज्ञ हैं। परन्तु प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति, वस्तु, व्यक्ति, घटना आनेपर भी साधक प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करता रहे—अपने कर्तव्यसे थोड़ा भी विचलित न हो तो यह सबसे बड़ी तपस्या है, जो शीघ्र सिद्धि देनेवाली होती है।
गाँवभरकी गन्दगी, कूड़ा-करकट बाहर एक जगह इकट्ठा हो जाय, तो वह बुरा लगता है; परन्तु वही कूड़ा-करकट खेतमें पड़ जाय, तो खेतीके लिये खादरूपसे बढ़िया सामग्री बन जाता है। इसी प्रकार प्रतिकूलता बुरी लगती है और उसे हम कूड़े-करकटकी तरह फेंक देते हैं अर्थात् उसे महत्त्व नहीं देते; परन्तु वही प्रतिकूलता अपना कर्तव्य-पालन करनेके लिये बढ़िया सामग्री है। इसलिये प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थितिको सहर्ष सहनेके समान दूसरा कोई तप नहीं है। भोगोंमें आसक्ति रहनेसे अनुकूलता अच्छी और प्रतिकूलता बुरी लगती है। इसी कारण प्रतिकूलताका महत्त्व समझमें नहीं आता।
‘योगयज्ञास्तथापरे’—यहाँ योग नाम अन्त:करणकी समताका है। समताका अर्थ है—कार्यकी पूर्ति और अपूर्तिमें, फलकी प्राप्ति और अप्राप्तिमें, अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिमें, निन्दा और स्तुतिमें, आदर और निरादरमें सम रहना अर्थात् अन्त:करणमें हलचल, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दु:खका न होना। इस तरह सम रहना ही ‘योगयज्ञ’ है।
‘स्वाध्यायज्ञानयज्ञा:’—केवल लोकहितके लिये गीता, रामायण, भागवत आदिका तथा वेद, उपनिषद् आदिका यथाधिकार मनन-विचारपूर्वक पठन-पाठन करना, अपनी वृत्तियोंका तथा जीवनका अध्ययन करना आदि सब स्वाध्यायरूप ‘ज्ञानयज्ञ’ है।
गीताके अन्तमें भगवान् ने कहा है कि जो इस गीता-शास्त्रका अध्ययन करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञसे पूजित होऊँगा—ऐसा मेरा मत है (अठारहवें अध्यायका सत्तरवाँ श्लोक)। तात्पर्य यह है कि गीताका स्वाध्याय ‘ज्ञानयज्ञ’ है। गीताके भावोंमें गहरे उतरकर विचार करना, उसके भावोंको समझनेकी चेष्टा करना आदि सब स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ है।