सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥27॥
सर्वाणि, इन्द्रियकर्माणि, प्राणकर्माणि, च, अपरे,
आत्मसंयमयोगाग्नौ, जुह्वति, ज्ञानदीपिते॥ २७॥
अपरे = दूसरे (योगीजन), सर्वाणि = सम्पूर्ण, इन्द्रियकर्माणि = इन्द्रियोंकी क्रियाओंको, च = और, प्राणकर्माणि = प्राणोंकी समस्त क्रियाओंको, ज्ञानदीपिते = ज्ञानसे प्रकाशित, आत्मसंयमयोगाग्नौ = आत्मसंयम योगरूप अग्निमें, जुह्वति = हवन किया करते हैं।
‘कुछ अन्य, इन्द्रियों के समस्त कर्मों और जीवनाधार प्राण-शक्ति की क्रियाओं को, आत्म संयम की योगाग्नि में अर्पित करते हैं, जो आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा प्रज्वलित की गई है।’
व्याख्या—‘सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे’—इस श्लोकमें समाधिको यज्ञका रूप दिया गया है। कुछ योगीलोग दसों इन्द्रियोंकी क्रियाओंका समाधिमें हवन किया करते हैं। तात्पर्य यह है कि समाधि-अवस्थामें मन-बुद्धिसहित सम्पूर्ण इन्द्रियों-(ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों) की क्रियाएँ रुक जाती हैं। इन्द्रियाँ सर्वथा निश्चल और शान्त हो जाती हैं।
समाधिरूप यज्ञमें प्राणोंकी क्रियाओंका भी हवन हो जाता है अर्थात् समाधिकालमें प्राणोंकी क्रियाएँ भी रुक जाती हैं। समाधिमें प्राणोंकी गति रोकनेके दो प्रकार हैं—
एक तो हठयोगकी समाधि होती है, जिसमें प्राणोंको रोकनेके लिये कुम्भक किया जाता है। कुम्भकका अभ्यास बढ़ते-बढ़ते प्राण रुक जाते हैं, जो घंटोंतक, दिनोंतक रुके रह सकते हैं। इस प्राणायामसे आयु बढ़ती है; जैसे—वर्षा होनेपर जल बहने लगता है तो जलके साथ-साथ बालू भी आ जाती है, उस बालूमें मेढक दब जाता है। वर्षा बीतनेपर जब बालू सूख जाती है, तब मेढक उस बालूमें ही चुपचाप सूखे हुएकी तरह पड़ा रहता है, उसके प्राण रुक जाते हैं। पुन: जब वर्षा आती है, तब वर्षाका जल ऊपर गिरनेपर मेढकमें पुन: प्राणोंका संचार होता जाता है और वह टर्राने लग जाता है।
दूसरे प्रकारमें मनको एकाग्र किया जाता है। मन सर्वथा एकाग्र होनेपर प्राणोंकी गति अपने-आप रुक जाती है।
‘ज्ञानदीपिते’—समाधि और निद्रा—दोनोंमें कारणशरीरसे सम्बन्ध रहता है, इसलिये बाहरसे दोनोंकी समान अवस्था दिखायी देती है। यहाँ ‘ज्ञानदीपिते’ पदसे समाधि और निद्रामें परस्पर भिन्नता सिद्ध की गयी है। तात्पर्य यह कि बाहरसे समान दिखायी देनेपर भी समाधिकालमें ‘एक सच्चिदानन्द परमात्मा ही सर्वत्र परिपूर्ण है’ ऐसा ज्ञान प्रकाशित (जाग्रत्) रहता है और निद्राकालमें वृत्तियाँ अविद्यामें लीन हो जाती हैं। समाधिकालमें प्राणोंकी गति रुक जाती है और निद्राकालमें प्राणोंकी गति चलती रहती है। इसलिये निद्रा आनेसे समाधि नहीं लगती।
‘आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति’—चित्तवृत्तिनिरोधरूप अर्थात् समाधिरूप यज्ञ करनेवाले योगीलोग इन्द्रियों तथा प्राणोंकी क्रियाओंका समाधियोगरूप अग्निमें हवन किया करते हैं अर्थात् मन-बुद्धिसहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणोंकी क्रियाओंको रोककर समाधिमें स्थित हो जाते हैं। समाधि-कालमें सम्पूर्ण इन्द्रियाँ और प्राण अपनी चंचलता खो देते हैं। एक सच्चिदानन्दघन परमात्माका ज्ञान ही जाग्रत् रहता है।