श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥26॥
श्रोत्रादीनि, इन्द्रियाणि, अन्ये, संयमाग्निषु, जुह्वति,
शब्दादीन्, विषयान्, अन्ये, इन्द्रियाग्निषु, जुह्वति॥ २६॥
अन्ये = अन्य (योगीजन), श्रोत्रादीनि = श्रोत्र आदि, इन्द्रियाणि = समस्त इन्द्रियोंको, संयमाग्निषु = संयमरूप अग्नियोंमें, जुह्वति = हवन किया करते हैं (और), अन्ये = दूसरे (योगीलोग), शब्दादीन् = शब्दादि, विषयान् = समस्त विषयोंको, इन्द्रियाग्निषु = इन्द्रियरूप अग्नियोंमें, जुह्वति = हवन किया करते हैं।
‘अन्य कुछ लोग श्रवण एवं अन्य इन्द्रियों को हवन के रूप में आत्म-संयम की अग्नि में अर्पित करते हैं, जब कि अन्य कुछ ध्वनि व अन्य ऐन्द्रिक विषय हवन रूप में इन्द्रियों की अग्नि में अर्पित करते हैं’।
व्याख्या—‘श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति’—यहाँ संयमरूप अग्नियोंमें इन्द्रियोंकी आहुति देनेको यज्ञ कहा गया है। तात्पर्य यह है कि एकान्तकालमें श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण—ये पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों (क्रमश: शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध)-की ओर बिलकुल प्रवृत्त न हों। इन्द्रियाँ संयमरूप ही बन जायँ।
पूरा संयम तभी समझना चाहिये, जब इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि तथा अहम्—इन सबमेंसे राग-आसक्तिका सर्वथा अभाव हो जाय (गीता—दूसरे अध्यायका अट्ठावनवाँ, उन्सठवाँ तथा अड़सठवाँ श्लोक)।
‘शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति’— शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—ये पाँच विषय हैं। विषयोंका इन्द्रियरूप अग्नियोंमें हवन करनेसे वह यज्ञ हो जाता है। तात्पर्य यह है कि व्यवहारकालमें विषयोंका इन्द्रियोंसे संयोग होते रहनेपर भी इन्द्रियोंमें कोई विकार उत्पन्न न हो (गीता—दूसरे अध्यायका चौंसठवाँ-पैंसठवाँ श्लोक)। इन्द्रियाँ राग-द्वेषसे रहित हो जायँ। इन्द्रियोंमें राग-द्वेष उत्पन्न करनेकी शक्ति विषयोंमें रहे ही नहीं।
इस श्लोकमें कहे गये दोनों प्रकारके यज्ञोंमें राग-आसक्तिका सर्वथा अभाव होनेपर ही सिद्धि (परमात्म-प्राप्ति) होती है। राग-आसक्तिको मिटानेके लिये ही दो प्रकारकी प्रक्रियाका यज्ञरूपसे वर्णन किया गया है—
पहली प्रक्रियामें साधक एकान्तकालमें इन्द्रियोंका संयम करता है। विवेक-विचार, जप-ध्यान आदिसे इन्द्रियोंका संयम होने लगता है। पूरा संयम होनेपर जब रागका अभाव हो जाता है, तब एकान्तकाल और व्यवहारकाल—दोनोंमें उसकी समान स्थिति रहती है।
दूसरी प्रक्रियामें साधक व्यवहारकालमें राग-द्वेषरहित इन्द्रियोंसे व्यवहार करते हुए मन, बुद्धि और अहम् से भी राग-द्वेषका अभाव कर देता है। रागका अभाव होनेपर व्यवहारकाल और एकान्तकाल—दोनोंमें उसकी समान स्थिति रहती है।