दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥25॥
दैवम्, एव, अपरे, यज्ञम्, योगिन:, पर्युपासते,
ब्रह्माग्नौ, अपरे, यज्ञम्, यज्ञेन, एव, उपजुह्वति॥ २५॥
अपरे = दूसरे, योगिन: = योगीजन, दैवम् = देवताओंके पूजनरूप, यज्ञम् = यज्ञका, एव = ही, पर्युपासते = भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और, अपरे = अन्य (योगीजन), ब्रह्माग्नौ = परब्रह्म परमात्मारूप अग्निमें (अभेददर्शनरूप), यज्ञेन = यज्ञके द्वारा, एव = ही, यज्ञम् = आत्मरूप यज्ञका, उपजुह्वति = हवन* किया करते हैं।
‘कुछ योगी केवल देवताओं के लिये हवन करते हैं, जबकि दूसरे हवन रूप में केवल ब्रह्म की अग्नि में ब्रह्म रूप में स्व की आहुति देते हैं’।
व्याख्या—‘दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते’— पूर्वश्लोकमें भगवान् ने सर्वत्र ब्रह्मदर्शनरूप यज्ञ करनेवाले साधकका वर्णन किया। यहाँ भगवान् ‘अपरे’ पदसे उससे भिन्न प्रकारके यज्ञ करनेवाले साधकोंका वर्णन करते हैं।
यहाँ ‘योगिन:’ पद यज्ञार्थ कर्म करनेवाले निष्काम साधकोंके लिये आया है।
सम्पूर्ण क्रियाओं तथा पदार्थोंको अपना और अपने लिये न मानकर उन्हें केवल भगवान् का और भगवान् के लिये ही मानना ‘दैवयज्ञ’ अर्थात् भगवदर्पणरूप यज्ञ है। भगवान् देवोंके भी देव हैं, इसलिये सब कुछ उनके अर्पण कर देनेको ही यहाँ ‘दैवयज्ञ’ कहा गया है।
किसी भी क्रिया और पदार्थमें किंचिन्मात्र भी आसक्ति, ममता और कामना न रखकर उन्हें सर्वथा भगवान् का मानना ही दैवयज्ञका भलीभाँति अनुष्ठान करना है।
‘ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति’—इस श्लोकके पूर्वार्धमें बताये गये दैवयज्ञसे भिन्न दूसरे यज्ञका वर्णन करनेके लिये यहाँ ‘अपरे’ पद आया है।
चेतनका जडसे तादात्म्य होनेके कारण ही उसे जीवात्मा कहते हैं। विवेक-विचारपूर्वक जडसे सर्वथा विमुख होकर परमात्मामें लीन हो जानेको यहाँ यज्ञ कहा गया है। लीन होनेका तात्पर्य है—परमात्मतत्त्वसे भिन्न अपनी स्वतन्त्र सत्ता किंचिन्मात्र न रखना।
परिशिष्ट भाव—‘ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति’ का यह अर्थ भी ले सकते हैं—दूसरे योगीलोग संसाररूप ब्रह्मकी सेवाके लिये केवल लोकसंग्रहरूप यज्ञके लिये कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ करते हैं अर्थात् यज्ञार्थ कर्म करते हैं (गीता—तीसरे अध्यायका नवाँ और चौथे अध्यायका तेईसवाँ श्लोक)।