यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥22॥
यदृच्छालाभसन्तुष्ट:, द्वन्द्वातीत:, विमत्सर:,
सम:, सिद्धौ, असिद्धौ, च, कृत्वा, अपि, न, निबध्यते॥ २२॥
यदृच्छालाभसन्तुष्ट: = जो बिना इच्छाके अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थमें सदा संतुष्ट रहता है, विमत्सर: = जिसमें ईर्ष्याका सर्वथा अभाव हो गया है, द्वन्द्वातीत: = जो हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वोंसे सर्वथा अतीत हो गया है—(ऐसा), सिद्धौ = सिद्धि, च = और, असिद्धौ = असिद्धिमें, सम: = सम रहनेवाला कर्मयोगी (कर्म), कृत्वा = करता हुआ, अपि = भी (उनसे), न = नहीं, निबध्यते = बँधता।
‘व्यक्तिगत रूप से उसीसे सन्तुष्ट, जो बिना प्रयास के आता है, विरोधी युग्मों से अप्रभावित, ईर्ष्या से मुक्त, सफलता और विफलता में सम बुद्धि धारण करके, यद्यपि वह कार्य करता है, वह (स्त्री या पुरुष) बन्धन में नहीं है।’
व्याख्या—‘यदृच्छालाभसन्तुष्ट:’—कर्मयोगी निष्काम-भावपूर्वक सांगोपांग रीतिसे सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्म करता है। फल-प्राप्तिका उद्देश्य न रखकर कर्म करनेपर फलके रूपमें उसे अनुकूलता या प्रतिकूलता, लाभ या हानि, मान या अपमान, स्तुति या निन्दा आदि जो कुछ मिलता है, उससे उसके अन्त:करणमें कोई असन्तोष पैदा नहीं होता। जैसे, वह व्यापार करता है तो उसे व्यापारमें लाभ हो अथवा हानि, उसके अन्त:करणपर उसका कोई असर नहीं पड़ता। वह हरेक परिस्थितिमें समानरूपसे सन्तुष्ट रहता है; क्योंकि उसके मनमें फलकी इच्छा नहीं होती। तात्पर्य यह है कि व्यापारमें उसे लाभ-हानिका ज्ञान तो होता है तथा वह उसके अनुसार यथोचित चेष्टा भी करता है, पर परिणाममें वह सुखी-दु:खी नहीं होता। यदि साधकके अन्त:करणपर अनुकूलता-प्रतिकूलताका थोड़ा असर पड़ भी जाय, तो भी उसे घबराना नहीं चाहिये; क्योंकि साधकके अन्त:करणमें वह प्रभाव स्थायी नहीं रहता, शीघ्र मिट जाता है।
उपर्युक्त पदोंमें आया ‘लाभ’ शब्द प्राप्तिके अर्थमें है, जिसके अनुसार केवल लाभ या अनुकूलताका मिलना ही ‘लाभ’ नहीं है, प्रत्युत लाभ-हानि, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि जो कुछ प्राप्त हो जाय, वह सब ‘लाभ’ ही है।
‘विमत्सर:’—कर्मयोगी सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ अपनी एकता मानता है—‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’ (गीता ५। ७)। इसलिये उसका किसी भी प्राणीसे किंचिन्मात्र भी ईर्ष्याका भाव नहीं रहता।
‘विमत्सर:’ पद अलगसे देनेका भाव यह है कि अपनेमें किसी प्राणीके प्रति किंचिन्मात्र भी ईर्ष्याका भाव न आ जाय, इस विषयमें कर्मयोगी बहुत सावधान रहता है। कारण कि कर्मयोगीकी सम्पूर्ण क्रियाएँ प्राणिमात्रके हितके लिये ही होती हैं; अत: यदि उसमें किंचिन्मात्र भी ईर्ष्याका भाव होगा, तो उसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ दूसरोंके हितके लिये नहीं हो सकेंगी।
ईर्ष्या-दोष बहुत सूक्ष्म है। दो दूकानदार हैं और आपसमें मित्रता रखते हैं। उनमें एककी दूकान दूसरेकी अपेक्षा ज्यादा चल जाय, तो दूसरेमें थोड़ी ईर्ष्या पैदा हो जायगी कि उसकी दूकान ज्यादा चल गयी, मेरी कम चली। इस प्रकार ईर्ष्या-दोषके कारण मित्रसे भी मित्रकी उन्नति नहीं सही जाती। जहाँ आपसमें प्रेम है, एकता है, मित्रता है, वहाँ भी ईर्ष्या-दोष आ जाता है; फिर जहाँ वैर, भिन्नता आदि हो, वहाँका तो कहना ही क्या है? इसलिये साधकको इस दोषसे बचनेके लिये विशेष सावधान रहना चाहिये।
‘द्वन्द्वातीत:’—कर्मयोगी लाभ-हानि, मान-अपमान, स्तुति-निन्दा, अनुकूलता-प्रतिकूलता, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंसे अतीत होता है, इसलिये उसके अन्त:करणमें उन द्वन्द्वोंसे होनेवाले राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकार नहीं होते।
द्वन्द्व अनेक प्रकारके होते हैं; जैसे—भगवान् का सगुण-साकाररूप ठीक है या निर्गुण-निराकाररूप ठीक है, अद्वैत सिद्धान्त ठीक है या द्वैत सिद्धान्त ठीक है, भगवान् में मन लगा या नहीं लगा, एकान्त मिला या नहीं मिला, शान्ति मिली या नहीं मिली, सिद्धि मिली या नहीं मिली, इत्यादि। इन सब द्वन्द्वोंके साथ सम्बन्ध न होनेसे ही साधक निर्द्वन्द्व होता है। जैसे तराजू किसी भी तरफ झुक जाय तो वह बराबर नहीं कहलाता, ऐसे ही साधकके अन्त:करणमें किसी भी तरफ झुकाव हो जाय तो वह द्वन्द्वातीत नहीं कहलाता।
कर्मयोगी सब प्रकारके द्वन्द्वोंसे अतीत होता है, इसलिये वह सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है (गीता—पाँचवें अध्यायका तीसरा श्लोक)।
‘सम: सिद्धावसिद्धौ च’—किसी भी कर्तव्य-कर्मका निर्विघ्नरूपसे पूरा हो जाना सिद्धि है और किसी प्रकारके विघ्न, बाधाके कारण उसका पूरा न होना असिद्धि है। कर्मका फल मिल जाना सिद्धि है और न मिलना असिद्धि है। सिद्धि और असिद्धिमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकारोंका न होना ही सिद्धि-असिद्धिमें सम रहना है। दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें ‘सिद्धॺसिद्धॺो: समो भूत्वा’ पदोंमें भी यही भाव आया है।
अपना कुछ भी नहीं है, अपने लिये कुछ भी नहीं चाहिये और अपने लिये कुछ भी नहीं करना है—ये तीनों बातें ठीक-ठीक अनुभवमें आ जायँ, तभी सिद्धि और असिद्धिमें पूर्णत: समता आयेगी।
‘कृत्वापि न निबध्यते’—यहाँ ‘कृत्वा अपि’ पदोंका तात्पर्य है कि कर्मयोगी कर्म करते हुए भी नहीं बँधता, फिर कर्म न करते हुए बँधनेका प्रश्न ही पैदा नहीं होता। वह दोनों अवस्थाओंमें निर्लिप्त रहता है।
जैसे शरीर-निर्वाहमात्रके लिये कर्म करनेवाला कर्मयोगी कर्मोंसे नहीं बँधता, वैसे ही शास्त्रविहित सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला कर्मयोगी भी कर्मोंसे नहीं बँधता।
वास्तवमें देखा जाय तो कर्मयोगमें कर्म करना, अधिक करना, कम करना अथवा न करना बन्धन या मुक्तिका कारण नहीं है। इनके साथ जो लिप्तता (लगाव) है, वही बन्धनका कारण है और जो निर्लिप्तता है, वही मुक्तिका कारण है। जैसे नाटकमें एक व्यक्ति लक्ष्मणका और दूसरा व्यक्ति मेघनादका स्वाँग धारण करता है और दोनों व्यक्ति अपने-अपने स्वाँगको ठीक-ठीक निभाते हुए भी उससे निर्लिप्त रहते हैं अर्थात् अपनेको वास्तवमें लक्ष्मण या मेघनाद नहीं मानते। ऐसे ही कर्मयोगी अपने वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार कर्तव्यका पालन करते हुए भी उनसे निर्लिप्त रहता है अर्थात् उनसे अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानता। उसका सम्बन्ध नित्य-निरन्तर रहनेवाले स्वरूपके साथ रहता है, प्रतिक्षण परिवर्तनशील प्रकृतिके साथ नहीं। इसलिये उसकी स्थिति स्वाभाविक ही समतामें रहती है। समतामें स्थिति रहनेसे वह कर्म करते हुए भी उनसे नहीं बँधता।
यदि विशेष विचारपूर्वक देखा जाय तो समता स्वत:-सिद्ध है। यह प्रत्येक मनुष्यका अनुभव है कि अनुकूल परिस्थितिमें हम जो रहते हैं, प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर भी हम वही रहते हैं। यदि हम वही (एक ही) न रहते, तो दो अलग-अलग (अनुकूल और प्रतिकूल) परिस्थितियोंका ज्ञान किसे होता? इससे सिद्ध हुआ कि परिवर्तन परिस्थितियोंमें होता है अपने स्वरूपमें नहीं। इसलिये परिस्थितियोंके बदलनेपर भी स्वरूपसे हम सम (ज्यों-के-त्यों) ही रहते हैं। भूल यह होती है कि हम परिस्थितियोंकी ओर तो देखते हैं, पर स्वरूपकी ओर नहीं देखते। अपने सम स्वरूपकी ओर न देखनेके कारण ही हम आने-जाने-वाली परिस्थितियोंसे मिलकर सुखी-दु:खी होते हैं।
सम्बन्ध—तीसरे अध्यायके नवें श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान् ने ‘व्यतिरेक रीति’ से कहा था कि यज्ञसे अतिरिक्त कर्म मनुष्यको बाँधते हैं। अब तेईसवें श्लोकके उत्तरार्धमें उसी बातको ‘अन्वय रीति’ से कहते हैं।