कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥17॥
कर्मण:, हि, अपि, बोद्धव्यम्, बोद्धव्यम्, च, विकर्मण:,
अकर्मण:, च, बोद्धव्यम्, गहना, कर्मण:, गति:॥ १७॥
कर्मण: = कर्मका (स्वरूप), अपि = भी, बोद्धव्यम् = जानना चाहिये, च = और, अकर्मण: = अकर्मका (स्वरूप भी), बोद्धव्यम् = जानना चाहिये, च = तथा, विकर्मण: = विकर्मका,(स्वरूप भी), बोद्धव्यम् = जानना चाहिये, हि = क्योंकि, कर्मण: = कर्मकी, गति: = गति, गहना = गहन है।
‘अवश्य ही, कर्म की भी वास्तविक प्रकृति को जानना चाहिये, और उसी प्रकार विकर्म या प्रतिबन्धित कर्म की, तथा अकर्म की भी : कर्म की प्रकृति गहन और अभेद्य है’।
व्याख्या—‘कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यम्’—कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना ही कर्मके तत्त्वको जानना है, जिसका वर्णन आगे अठारहवें श्लोकमें ‘कर्मण्यकर्म य: पश्येत्’ पदोंसे किया गया है।
कर्म स्वरूपसे एक दीखनेपर भी अन्त:करणके भावके अनुसार उसके तीन भेद हो जाते हैं—कर्म, अकर्म और विकर्म। सकामभावसे की गयी शास्त्रविहित क्रिया ‘कर्म’ बन जाती है। फलेच्छा, ममता और आसक्तिसे रहित होकर केवल दूसरोंके हितके लिये किया गया कर्म ‘अकर्म’ बन जाता है। विहित कर्म भी यदि दूसरेका अहित करने अथवा उसे दु:ख पहुँचानेके भावसे किया गया हो तो वह भी ‘विकर्म’ बन जाता है। निषिद्ध कर्म तो ‘विकर्म’ है ही।
‘अकर्मणश्च बोद्धव्यम्’—निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना ही अकर्मके तत्त्वको जानना है, जिसका वर्णन आगे अठारहवें श्लोकमें ‘अकर्मणि च कर्म य:’ पदोंसे किया गया है।
‘बोद्धव्यं च विकर्मण:’—कामनासे कर्म होते हैं। जब कामना अधिक बढ़ जाती है, तब विकर्म (पापकर्म) होते हैं ।
दूसरे अध्यायके अड़तीसवें श्लोकमें भगवान् ने बताया है कि अगर युद्ध-जैसा हिंसायुक्त घोर कर्म भी शास्त्रकी आज्ञासे और समतापूर्वक (जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:खको समान समझकर) किया जाय, तो उससे पाप नहीं लगता। तात्पर्य यह है कि समतापूर्वक कर्म करनेसे दीखनेमें विकर्म होता हुआ भी वह ‘अकर्म’ हो जाता है।
शास्त्रनिषिद्ध कर्मका नाम ‘विकर्म’ है। विकर्मके होनेमें कामना ही हेतु है (गीता—तीसरे अध्यायका छत्तीसवाँ-सैंतीसवाँ श्लोक)*।
[* सोलहवें अध्यायमें जहाँ आसुरी-सम्पत्तिका वर्णन हुआ है, वहाँ आठवें श्लोकसे तेईसवें श्लोकतक ‘काम’ शब्द कुल नौ बार आया है। इससे सिद्ध होता है कि ‘काम’ अर्थात् कामना ही सम्पूर्ण आसुरी-सम्पत्ति-(विकर्म) का कारण है।]
अत: विकर्मका तत्त्व है—कामना; और विकर्मके तत्त्वको जानना है—विकर्मका स्वरूपसे त्याग करना तथा उसके कारण कामनाका त्याग करना।
‘गहना कर्मणो गति:’—कौन-सा कर्म मुक्त करने-वाला और कौन-सा कर्म बाँधनेवाला है—इसका निर्णय करना बड़ा कठिन है। कर्म क्या है, अकर्म क्या है और विकर्म क्या है—इसका यथार्थ तत्त्व जाननेमें बड़े-बड़े शास्त्रज्ञ विद्वान् भी अपने-आपको असमर्थ पाते हैं। अर्जुन भी इस तत्त्वको न जाननेके कारण अपने युद्धरूप कर्तव्य-कर्मको घोर कर्म मान रहे हैं। अत: कर्मकी गति (ज्ञान या तत्त्व) बहुत गहन है।
शंका—इस (सत्रहवें) श्लोकमें भगवान् ने ‘बोद्धव्यं च विकर्मण:’ पदोंसे यह कहा कि विकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये। परन्तु उन्नीसवें-से-तेईसवें श्लोकतकके प्रकरणमें भगवान् ने ‘विकर्म’ के विषयमें कुछ कहा ही नहीं! फिर केवल इस श्लोकमें ही विकर्मकी बात क्यों कही?
समाधान—उन्नीसवें श्लोकसे लेकर तेईसवें श्लोकतकके प्रकरणमें भगवान् ने मुख्यरूपसे ‘कर्ममें अकर्म’ की बात कही है, जिससे सब कर्म अकर्म हो जायँ अर्थात् कर्म करते हुए भी बन्धन न हो। विकर्म कर्मके बहुत पास पड़ता है; क्योंकि कर्मोंमें कामना ही विकर्मका मुख्य हेतु है। अत: कामनाका त्याग करनेके लिये तथा विकर्मको निकृष्ट बतानेके लिये भगवान् ने विकर्मका नाम लिया है।
जिस कामनासे ‘कर्म’ होते हैं, उसी कामनाके अधिक बढ़नेपर ‘विकर्म’ होने लगते हैं। परन्तु कामना नष्ट होनेपर सब कर्म ‘अकर्म’ हो जाते हैं। इस प्रकरणका खास तात्पर्य ‘अकर्म’ को जाननेमें ही है, और ‘अकर्म’ होता है कामनाका नाश होनेपर। कामनाका नाश होनेपर विकर्म होता ही नहीं; अत: विकर्मके विवेचनकी जरूरत ही नहीं। इसलिये इस प्रकरणमें विकर्मकी बात नहीं आयी है। दूसरी बात पापजनक और नरकोंकी प्राप्ति करानेवाला होनेके कारण विकर्म सर्वथा त्याज्य है। इसलिये भी इसका विस्तार नहीं किया गया है। हाँ, विकर्मके मूल कारण ‘कामना’ का त्याग करनेका भाव इस प्रकरणमें मुख्यरूपसे आया है; जैसे—‘कामसंकल्पवर्जिता:’ (४। १९), ‘त्यक्त्वा कर्मफलासंगम्’ (४। २०), ‘निराशी:’ (४। २१), ‘सम: सिद्धावसिद्धौ च’ (४। २२), ‘गतसंगस्य’, ‘यज्ञायाचरत:’ (४। २३)।
इस प्रकार विकर्मके मूल ‘कामना’ के त्यागका वर्णन करनेके लिये ही इस श्लोकमें विकर्मको जाननेकी बात कही गयी है।
परिशिष्ट भाव—हमारे लिये और दूसरोंके लिये, अभी और परिणामोंमें किस कर्मका क्या फल होता है, यह समझना बड़ा कठिन है। किसी कर्मको करनेमें मनुष्य अपना हित समझता है, पर हो जाता है अहित! वह लाभके लिये करता है पर हो जाता है नुकसान! वह सुखके लिये करता है, पर मिलता है दु:ख! कारण कि कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छा (सुखासक्ति) रहनेके कारण मनुष्य कर्मोंकी गतिको नहीं समझ सकता।
सम्बन्ध—अब भगवान् कर्मोंके तत्त्वको जाननेवाले मनुष्यकी प्रशंसा करते हैं।