एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥15॥
एवम्, ज्ञात्वा, कृतम्, कर्म, पूर्वै:, अपि, मुमुक्षुभि:,
कुरु, कर्म, एव, तस्मात्, त्वम्, पूर्वै:, पूर्वतरम्, कृतम्॥ १५॥
पूर्वै: = पूर्वकालके, मुमुक्षुभि: = मुमुक्षुओंने, अपि = भी, एवम् = इस प्रकार, ज्ञात्वा = जानकर (ही), कर्म = कर्म, कृतम् = किये हैं, तस्मात् = इसलिये, त्वम् = तू (भी), पूर्वै: = पूर्वजोंद्वारा, पूर्वतरम् कृतम् = सदासे किये जानेवाले, कर्म = कर्मोंको, एव = ही, कुरु = कर।
‘इस प्रकार जान कर आध्यात्मिक मुक्ति के प्राचीन साधकों ने कर्म किये। इसलिये तुम भी केवल इस प्रकार कर्म करो जैसे प्राचीन साधकों ने पुरातन काल में किया था’।
व्याख्या—[नवें श्लोकमें भगवान् ने अपने कर्मोंकी दिव्यताका जो प्रसंग आरम्भ किया था, उसका यहाँ उपसंहार करते हैं।]
‘एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि:’—अर्जुन मुमुक्षु थे अर्थात् अपना कल्याण चाहते थे। परन्तु युद्धरूपसे प्राप्त अपने कर्तव्य-कर्मको करनेमें उन्हें अपना कल्याण नहीं दीखता, प्रत्युत वे उसको घोर-कर्म समझकर उसका त्याग करना चाहते हैं (गीता—तीसरे अध्यायका पहला श्लोक)। इसलिये भगवान् अर्जुनको पूर्वकालके मुमुक्षु पुरुषोंका उदाहरण देते हैं कि उन्होंने भी अपने-अपने कर्तव्य-कर्मोंका पालन करके कल्याणकी प्राप्ति की है, इसलिये तुम्हें भी उनकी तरह अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये।
तीसरे अध्यायके बीसवें श्लोकमें जनकादिका उदाहरण देकर तथा इसी (चौथे) अध्यायके पहले-दूसरे श्लोकोंमें विवस्वान्, मनु, इक्ष्वाकु आदिका उदाहरण देकर भगवान् ने जो बात कही थी, वही बात इस श्लोकमें भी कह रहे हैं।
शास्त्रोंमें ऐसी प्रसिद्धि है कि मुमुक्षा जाग्रत् होनेपर कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देना चाहिये; क्योंकि मुमुक्षाके बाद मनुष्य कर्मका अधिकारी नहीं होता; प्रत्युत ज्ञानका अधिकारी हो जाता है२।
[२-तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता।
मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते॥
(श्रीमद्भा० ११। २०। ९)
‘तभीतक कर्म करने चाहिये, जबतक वैराग्य न हो जाय अथवा जबतक मेरी (भगवान् की) कथाके श्रवण आदिमें श्रद्धा उत्पन्न न हो जाय।’]
परन्तु यहाँ भगवान् कहते हैं कि मुमुक्षुओंने भी कर्मयोगका तत्त्व जानकर कर्म किये हैं। इसलिये मुमुक्षा जाग्रत् होनेपर भी अपने कर्तव्य-कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करते रहना चाहिये।
कर्मयोगका तत्त्व है—कर्म करते हुए योगमें स्थित रहना और योगमें स्थित रहते हुए कर्म करना। कर्म संसारके लिये और योग अपने लिये होता है। कर्मोंको करना और न करना—दोनों अवस्थाएँ हैं। अत: प्रवृत्ति (कर्म करना) और निवृत्ति (कर्म न करना)—दोनों ही प्रवृत्ति (कर्म करना) है। प्रवृत्ति और निवृत्ति—दोनोंसे ऊँचा उठ जाना योग है, जो पूर्ण निवृत्ति है। पूर्ण निवृत्ति कोई अवस्था नहीं है।
चौदहवें श्लोकमें भगवान् ने कहा कि कर्मफलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म नहीं बाँधते। जो मनुष्य कर्म करनेकी इस विद्या-(कर्मयोग-) को जानकर फलेच्छाका त्याग करके कर्म करता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता; कारण कि फलेच्छासे ही मनुष्य बँधता है—‘फले सक्तो निबध्यते’ (गीता ५। १२)। अगर मनुष्य अपने सुखभोगके लिये अथवा धन, मान, बड़ाई, स्वर्ग आदिकी प्राप्तिके लिये कर्म करता है तो वे कर्म उसे बाँध देते हैं (गीता—तीसरे अध्यायका नवाँ श्लोक)। परन्तु यदि उसका लक्ष्य उत्पत्ति-विनाशशील संसार नहीं है, प्रत्युत वह संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये नि:स्वार्थ सेवा-भावसे केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है, तो वे कर्म उसे बाँधते नहीं (गीता—चौथे अध्यायका तेईसवाँ श्लोक)। कारण कि दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी तरफ हो जाता है, जिससे कर्मोंका सम्बन्ध (राग) मिट जाता है और फलेच्छा न रहनेसे नया सम्बन्ध पैदा नहीं होता।
‘कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम्’—इन पदोंसे भगवान् अर्जुनको आज्ञा दे रहे हैं कि तू मुमुक्षु है, इसलिये जैसे पहले अन्य मुमुक्षुओंने लोकहितार्थ कर्म किये हैं, ऐसे ही तू भी संसारके हितके लिये कर्म कर।
शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि कर्मकी सब सामग्री अपनेसे भिन्न तथा संसारसे अभिन्न है। वह संसारकी है और संसारकी सेवाके लिये ही मिली है। उसे अपनी मानकर अपने लिये कर्म करनेसे कर्मोंका सम्बन्ध अपने साथ हो जाता है। जब सम्पूर्ण कर्म केवल दूसरोंके हितके लिये किये जाते हैं, तब कर्मोंका सम्बन्ध हमारे साथ नहीं रहता। कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ‘योग’ अर्थात् परमात्माके साथ हमारे नित्यसिद्ध सम्बन्धका अनुभव हो जाता है, जो कि पहलेसे ही है।
परिशिष्ट भाव—तेरहवें-चौदहवें श्लोकोंमें भगवान् ने बताया कि कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छासे रहित होकर सृष्टि-रचना आदि कर्म करनेके कारण वे कर्म मुझे नहीं बाँधते। यहाँ भगवान् कहते हैं कि मुमुक्षुओंने भी इसी तरह कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छाका त्याग करके कर्म किये हैं। कारण कि कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छा होनेपर ही कर्म बन्धनकारक होते हैं। इसलिये तू भी उसी प्रकारसे कर्म कर।
ज्ञानयोगमें पहले कर्तृत्वाभिमानका त्याग किया जाता है, फिर फलेच्छाका त्याग स्वत: होता है। कर्मयोगमें पहले फलेच्छाका त्याग किया जाता है, फिर कर्तृत्वाभिमानका त्याग सुगमतासे हो जाता है।
सम्बन्ध—पूर्वश्लोकमें ‘एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म’ पदोंसे कर्मोंको जाननेकी बात कही गयी थी। अब भगवान् आगेके श्लोकसे कर्मोंको ‘तत्त्व’ से जाननेके लिये प्रकरण आरम्भ करते हैं।