इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥42॥
इन्द्रियाणि, पराणि, आहु:, इन्द्रियेभ्य:, परम्, मन:,
मनस:, तु, परा, बुद्धि:, य:, बुद्धे:, परत:, तु, स:॥ ४२॥
इन्द्रियाणि = इन्द्रियोंको (स्थूल शरीरसे), पराणि = पर यानी श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म, आहु: = कहते हैं, इन्द्रियेभ्य: = इन इन्द्रियोंसे, परम् = पर, मन: = मन है, मनस: = मनसे, तु = भी, परा = पर, बुद्धि: = बुद्धि है, तु = और, य: = जो, बुद्धे: = बुद्धिसे (भी), परत: = अत्यन्त पर है, स: = वह (आत्मा) है।
‘इन्द्रियाँ (शरीर से) उच्चतर कही जाती हैं ; मन इन्द्रियों से उच्चतर है; बुद्धि मन से उच्चतर है; और जो बुद्धि से भी उच्चतर है वह है नित्य मुक्त आत्मा’।
(Verse 42 & 43) व्याख्या—‘इन्द्रियाणि पराण्याहु:’—शरीर अथवा विषयोंसे इन्द्रियाँ पर हैं। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका ज्ञान होता है, पर विषयोंके द्वारा इन्द्रियोंका ज्ञान नहीं होता। इन्द्रियाँ विषयोंके बिना भी रहती हैं, पर इन्द्रियोंके बिना विषयोंकी सत्ता सिद्ध नहीं होती। विषयोंमें यह सामर्थ्य नहीं कि वे इन्द्रियोंको प्रकाशित करें, प्रत्युत इन्द्रियाँ विषयोंको प्रकाशित करती हैं। इन्द्रियाँ वही रहती हैं, पर विषय बदलते रहते हैं। इन्द्रियाँ व्यापक हैं और विषय व्याप्य हैं अर्थात् विषय इन्द्रियोंके अन्तर्गत आते हैं, पर इन्द्रियाँ विषयोंके अन्तर्गत नहीं आतीं। विषयोंकी अपेक्षा इन्द्रियाँ सूक्ष्म हैं। इसलिये विषयोंकी अपेक्षा इन्द्रियाँ श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक और सूक्ष्म हैं।
‘इन्द्रियेभ्य: परं मन:’—इन्द्रियाँ मनको नहीं जानतीं, पर मन सभी इन्द्रियोंको जानता है। इन्द्रियोंमें भी प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषयको ही जानती है, अन्य इन्द्रियोंके विषयोंको नहीं; जैसे—कान केवल शब्दको जानते हैं, पर स्पर्श, रूप, रस और गंधको नहीं जानते; त्वचा केवल स्पर्शको जानती है, पर शब्द, रूप, रस और गन्धको नहीं जानती; नेत्र केवल रूपको जानते हैं, पर शब्द, स्पर्श, रस और गन्धको नहीं जानते; रसना केवल रसको जानती है, पर शब्द, स्पर्श, रूप और गन्धको नहीं जानती; और नासिका केवल गन्धको जानती है, पर शब्द, स्पर्श, रूप और रसको नहीं जानती; परन्तु मन पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंको तथा उनके विषयोंको जानता है। इसलिये मन इन्द्रियोंसे श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक और सूक्ष्म है।
‘मनसस्तु परा बुद्धि:’—मन बुद्धिको नहीं जानता, पर बुद्धि मनको जानती है। मन कैसा है? शान्त है या व्याकुल? ठीक है या बेठीक? इत्यादि बातोंको बुद्धि जानती है। इन्द्रियाँ ठीक काम करती हैं या नहीं?—इसको भी बुद्धि जानती है, तात्पर्य है कि बुद्धि मनको तथा उसके संकल्पोंको भी जानती है और इन्द्रियोंको तथा उनके विषयोंको भी जानती है। इसलिये इन्द्रियोंसे पर जो मन है, उस मनसे भी बुद्धि पर (श्रेष्ठ, बलवान्, प्रकाशक, व्यापक और सूक्ष्म) है।
‘य: बुद्धे: परतस्तु स:’—बुद्धिका स्वामी ‘अहम्’ है, इसलिये कहता है—‘मेरी बुद्धि।’ बुद्धि करण है और ‘अहम्’ कर्ता है। करण परतन्त्र होता है, पर कर्ता स्वतन्त्र होता है। उस ‘अहम्’ में जो जड-अंश है, उसमें ‘काम’ रहता है। जड-अंशसे तादात्म्य होनेके कारण वह काम स्वरूप (चेतन)में रहता प्रतीत होता है।
वास्तवमें ‘अहम्’ में ही ‘काम’ रहता है; क्योंकि वही भोगोंकी इच्छा करता है और सुख-दु:खका भोक्ता बनता है। भोक्ता, भोग और भोग्य—इन तीनोंमें सजातीयता (जातीय एकता) है। इनमें सजातीयता न हो तो भोक्तामें भोग्यकी कामना या आकर्षण हो ही नहीं सकता। भोक्तापनका जो प्रकाशक है, जिसके प्रकाशमें भोक्ता, भोग और भोग्य—तीनोंकी सिद्धि होती है, उस परम प्रकाशक (शुद्ध चेतन) में ‘काम’ नहीं है। ‘अहम्’ तक सब प्रकृतिका अंश है। उस ‘अहम्’ से भी आगे साक्षात् परमात्माका अंश ‘स्वयं’ है, जो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम्—इन सबका आश्रय, आधार, कारण और प्रेरक है तथा श्रेष्ठ, बलवान्, प्रकाशक, व्यापक और सूक्ष्म है।
जड (प्रकृति) का अंश ही सुख-दु:खरूपमें परिणत होता है अर्थात् सुख-दु:खरूप विकृति जडमें ही होती है। चेतनमें विकृति नहीं है, प्रत्युत चेतन विकृतिका ज्ञाता है; परन्तु जडसे तादात्म्य होनेसे सुख-दु:खका भोक्ता चेतन ही बनता है अर्थात् चेतन ही सुखी-दु:खी होता है। केवल
जडमें सुखी-दु:खी होना नहीं बनता। तात्पर्य यह है कि ‘अहम्’ में जो जड-अंश है, उसके साथ तादात्म्य कर लेनेसे चेतन भी अपनेको ‘मैं भोक्ता हूँ’ ऐसा मान लेता है। परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार होते ही रसबुद्धि निवृत्त हो जाती है—‘रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते’ (गीता २। ५९)। इसमें ‘अस्य’ पद भोक्ता बने हुए ‘अहम्’ का वाचक है और जो भोक्तापनसे निर्लिप्त तत्त्व है, उस परमात्माका वाचक ‘परम’ पद है। उसके ज्ञानसे रस अर्थात् ‘काम’ निवृत्त हो जाता है। कारण कि सुखके लिये ही कामना होती है और स्वरूप सहजसुखराशि है। इसलिये परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार होनेसे ‘काम’ (संयोगजन्य सुखकी इच्छा) सर्वदा और सर्वथा मिट जाता है।
मार्मिक बात
स्थूलशरीर ‘विषय’ है, इन्द्रियाँ ‘बहि:करण’ हैं और मन-बुद्धि ‘अन्त:करण’ हैं। स्थूलशरीरसे इन्द्रियाँ पर (श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक और सूक्ष्म) हैं तथा इन्द्रियोंसे बुद्धि पर है। बुद्धिसे भी पर ‘अहम्’ है, जो कर्ता है। उस ‘अहम्’ (कर्ता) में ‘काम’ अर्थात् लौकिक इच्छा रहती है।
अपनी सत्ता (होनापन) अर्थात् अपना स्वरूप चेतन, निर्विकार और सत्-चित् आनन्दरूप है। जब वह जड (प्रकृतिजन्य शरीर) के साथ तादात्म्य कर लेता है, तब ‘अहम्’ उत्पन्न होता है और स्वरूप ‘कर्ता’ बन जाता है। इस प्रकार कर्तामें एक जड-अंश होता है और एक चेतन-अंश। जड-अंशकी मुख्यतासे संसारकी तरफ और चेतन-अंशकी मुख्यतासे परमात्माकी तरफ आकर्षण होता है*।
(* जड-चेतनके तादात्म्य और आकर्षणको समझनेके लिये एक दृष्टान्त दिया जाता है। चार कोनोंवाले किसी लोहेका अग्निसे तादात्म्य अर्थात् सम्बन्ध होनेपर लोहेमें जलानेकी शक्ति न होनेपर भी वह जलानेवाला हो जाता है; और अग्नि चार कोनोंवाली न होनेपर भी चार कोनोंवाली हो जाती है। अग्निसे तादात्म्य होनेपर भी चुम्बककी ओर लोहा ही आकर्षित होता है, अग्नि नहीं; क्योंकि चुम्बकके साथ लोहेकी सजातीयता है। अग्नि अपने सजातीय निराकार अग्नि-तत्त्वकी ओर ही आकर्षित होती है, इसलिये वह स्वत: शान्त हो जाती है। इसी प्रकार जड और चेतनके तादात्म्यमें जड-अंश संसारकी ओर एवं चेतन-अंश परमात्माकी ओर आकर्षित होता है। चेतन-अंशके परमात्माकी ओर आकृष्ट होनेपर जड-अंश छूट जाता है; क्योंकि जड अनित्य है। परन्तु जड-अंशके संसारकी ओर आकृष्ट होनेपर भी चेतन-अंश नहीं छूटता; क्योंकि चेतन नित्य है।)
तात्पर्य यह है कि उसमें जड-अंशकी प्रधानतासे लौकिक (संसारकी) इच्छाएँ रहती हैं और चेतन-अंशकी प्रधानतासे पारमार्थिक (परमात्माकी) इच्छा रहती है। जड-अंश मिटनेवाला है, इसलिये लौकिक इच्छाएँ मिटनेवाली हैं और चेतन-अंश सदा रहनेवाला है, इसलिये पारमार्थिक इच्छा पूरी होनेवाली है। इसलिये लौकिक इच्छाओं (कामनाओं) की निवृत्ति और पारमार्थिक इच्छा(संसारसे छूटनेकी इच्छा, स्वरूपबोधकी जिज्ञासा और भगवत्प्रेमकी अभिलाषा) की पूर्ति होती है। लौकिक इच्छाएँ उत्पन्न हो सकती हैं, पर टिक नहीं सकतीं। परन्तु पारमार्थिक इच्छा दब सकती है, पर मिट नहीं सकती। कारण कि लौकिक इच्छाएँ अवास्तविक और पारमार्थिक इच्छा वास्तविक है। इसलिये साधकको न तो लौकिक इच्छाओंकी पूर्तिकी आशा रखनी चाहिये और न पारमार्थिक इच्छाकी पूर्तिसे निराश ही होना चाहिये।
वस्तुत: मूलमें इच्छा एक ही है, जो अपने अंशी परमात्माकी है। परन्तु जडके सम्बन्धसे इस इच्छाके दो भेद हो जाते हैं और मनुष्य अपनी वास्तविक इच्छाकी पूर्ति परिवर्तनशील जड (संसार) के द्वारा करनेके लिये जड पदार्थोंकी इच्छाएँ करने लगता है, जो उसकी भूल है। कारण कि लौकिक इच्छाएँ ‘परधर्म’ और पारमार्थिक इच्छा ‘स्वधर्म’ है। परन्तु साधकमें लौकिक और पारमार्थिक— दोनों इच्छाएँ रहनेसे द्वन्द्व पैदा हो जाता है। द्वन्द्व होनेसे साधकमें भजन, ध्यान, सत्संग आदिके समय तो पारमार्थिक इच्छा जाग्रत् रहती है, पर अन्य समयमें उसकी पारमार्थिक इच्छा दब जाती है और लौकिक (भोग एवं संग्रहकी) इच्छाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। लौकिक इच्छाओंके रहते हुए साधकमें साधन करनेका एक निश्चय स्थिर नहीं रह सकता। पारमार्थिक इच्छा जाग्रत् हुए बिना साधककी उन्नति नहीं होती। जब साधकका एकमात्र परमात्मप्राप्ति करनेका दृढ़ उद्देश्य हो जाता है, तब यह द्वन्द्व मिट जाता है और साधकमें एक पारमार्थिक इच्छा ही प्रबल रह जाती है। एक ही पारमार्थिक इच्छा प्रबल रहनेसे साधक सुगमतापूर्वक परमात्मप्राप्ति कर लेता है (गीता—पाँचवें अध्यायका तीसरा श्लोक)। इसलिये लौकिक और पारमार्थिक इच्छाका द्वन्द्व मिटाना साधकके लिये बहुत आवश्यक है।
शुद्ध स्वरूपमें अपने अंशी परमात्माकी ओर स्वत: एक आकर्षण या रुचि विद्यमान रहती है, जिसको ‘प्रेम’ कहते हैं। जब वह संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह ‘प्रेम’ दब जाता है और ‘काम’ उत्पन्न हो जाता है। जबतक ‘काम’ रहता है, तबतक ‘प्रेम’ जाग्रत् नहीं होता। जबतक ‘प्रेम’ जाग्रत् नहीं होता, तबतक ‘काम’ का सर्वथा नाश नहीं होता। जड-अंशकी मुख्यतासे जिसमें सांसारिक भोगोंकी इच्छा (काम) रहती है, उसीमें चेतन-अंशकी मुख्यतासे परमात्माकी इच्छा भी रहती है। अत: वास्तवमें ‘काम’ का निवास जड-अंशमें ही है, पर वह भी चेतनके सम्बन्धसे ही है। चेतनका सम्बन्ध छूटते ही ‘काम’ का नाश हो जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि चेतनद्वारा जडसे सम्बन्ध-विच्छेद करते ही जड-चेतनके तादात्म्यरूप ‘अहम्’ का नाश हो जाता है और ‘अहम्’ का नाश होते ही ‘काम’ भी नष्ट हो जाता है।
‘अहम्’ में जो जड-अंश है, उसमें ‘काम’ रहता है—इसकी प्रबल युक्ति यह है कि दृश्यरूपसे दीखनेवाला संसार, उसे देखनेवाली इन्द्रियाँ तथा बुद्धि और उसे देखनेवाला स्वयं भोक्ता—इन तीनोंमें जातीय (धातुगत) एकताके बिना भोक्ताका भोग्यकी ओर आकर्षण हो ही नहीं सकता। कारण कि आकर्षण सजातीयतामें ही होता है, विजातीयतामें नहीं; जैसे—नेत्रोंका रूपके प्रति ही आकर्षण होता है, शब्दके प्रति नहीं। यही बात सब इन्द्रियोंमें लागू होती है। बुद्धिका भी समझनेके विषय (विवेक-विचार) में आकर्षण होता है, शब्दादि विषयोंमें नहीं (यदि होता है तो इन्द्रियोंको साथमें लेनेसे ही होता है)। ऐसे ही स्वयं (चेतन) की परमात्मासे तात्त्विक एकता है, इसलिये ‘स्वयं’ का परमात्माकी ओर आकर्षण होता है। यह तात्त्विक एकता जड-अंशका सर्वथा त्याग करनेसे अर्थात् जडसे माने हुए सम्बन्धका सर्वथा विच्छेद करनेसे ही अनुभवमें आती है। अनुभवमें आते ही ‘प्रेम’ जाग्रत् हो जाता है। प्रेममें जडता (असत्) का अंश भी शेष नहीं रहता अर्थात् जडताका अत्यन्त अभाव हो जाता है।
प्रकृतिके कार्य महत्तत्त्व (समष्टि बुद्धि) का अत्यन्त सूक्ष्म अंश ‘कारणशरीर’ ही ‘अहम्’ का जड-अंश है। इस कारणशरीरमें ही ‘काम’ रहता है। कारणशरीरके तादात्म्यसे ‘काम’ स्वयंमें दीखता है। तादात्म्य मिटनेपर जिसमें ‘काम’ का लेश भी नहीं है, ऐसे अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभव हो जाता है। स्वरूपका अनुभव हो जानेपर ‘काम’ सर्वथा निवृत्त हो जाता है।
‘एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा’—पहले शरीरसे पर इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंसे पर मन, मनसे पर बुद्धि और बुद्धिसे पर ‘काम’ को बताया गया। अब उपर्युक्त पदोंमें बुद्धिसे पर ‘काम’ को जाननेके लिये कहनेका अभिप्राय यह है कि यह ‘काम’ ‘अहम्’ में रहता है। अपने वास्तविक स्वरूपमें ‘काम’ नहीं है। यदि स्वरूपमें ‘काम’ होता तो कभी मिटता नहीं। नाशवान् जडके साथ तादात्म्य कर लेनेसे ही ‘काम’ उत्पन्न होता है। तादात्म्यमें भी ‘काम’ रहता तो जडमें ही है, पर दीखता है स्वरूपमें। इसलिये बुद्धिसे परे रहनेवाले इस ‘काम’ को जानकर उसका नाश कर देना चाहिये।
‘संस्तभ्यात्मानमात्मना’—बुद्धिसे परे ‘अहम्’ में रहनेवाले ‘काम’ को मारनेका उपाय है—अपने द्वारा अपने-आपको वशमें करना अर्थात् अपना सम्बन्ध केवल अपने शुद्ध स्वरूपके साथ अथवा अपने अंशी भगवान् के साथ रखना, जो वास्तवमें है। छठे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें ‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ पदसे और छठे श्लोकमें ‘येनात्मैवात्मना जित:’ पदोंसे भी यही बात कही गयी है।
स्वरूप (स्वयं) साक्षात् परमात्माका अंश है और शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि संसारके अंश हैं। जब स्वरूप अपने अंशी परमात्मासे विमुख होकर प्रकृति (संसार) के सम्मुख हो जाता है, तब उसमें कामनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। कामनाएँ अभावसे उत्पन्न होती हैं और अभाव संसारके सम्बन्धसे होता है; क्योंकि संसार अभावरूप ही है—‘नासतो विद्यते भाव:’ (गीता २। १६)। संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होते ही कामनाओंका नाश हो जाता है; क्योंकि स्वरूपमें अभाव नहीं है—‘नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २। १६)।
परमात्मासे विमुख होकर संसारसे अपना सम्बन्ध माननेपर भी जीवकी वास्तविक इच्छा (आवश्यकता या भूख) अपने अंशी परमात्माको प्राप्त करनेकी ही होती है। ‘मैं सदा जीता रहूँ; मैं सब कुछ जान जाऊँ; मैं सदाके लिये सुखी हो जाऊँ’—इस रूपमें वह वास्तवमें सत्-चित् आनन्द-स्वरूप परमात्माकी ही इच्छा करता है, पर संसारसे सम्बन्ध माननेके कारण वह भूलसे इन इच्छाओंको संसारसे ही पूरी करना चाहता है—यही ‘काम’ है। इस ‘काम’ की पूर्ति तो कभी हो ही नहीं सकती। इसलिये इस ‘काम’ का नाश तो करना ही पड़ेगा।
जिसने संसारसे अपना सम्बन्ध जोड़ा है, वही उसे तोड़ भी सकता है। इसलिये भगवान् ने अपने द्वारा ही संसारसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद करके ‘काम’ को मारनेकी आज्ञा दी है।
अपने द्वारा ही अपने-आपको वशमें करनेमें कोई अभ्यास नहीं है; क्योंकि अभ्यास संसार (शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि) की सहायतासे ही होता है। इसलिये अभ्यासमें संसारके सम्बन्धकी सहायता लेनी पड़ती है। वास्तवमें अपने स्वरूपमें स्थिति अथवा परमात्माकी प्राप्ति संसारकी सहायतासे नहीं होती, प्रत्युत संसारके त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) से, अपने-आपसे होती है।
मार्मिक बात
जब चेतन अपना सम्बन्ध जडके साथ मान लेता है, तब उसमें संसार (भोग) की भी इच्छा होती है और परमात्माकी भी। जडसे सम्बन्ध माननेपर जीवसे यही भूल होती है कि वह सत्-चित् आनन्दस्वरूप परमात्माकी इच्छा—अभिलाषाको संसारसे ही पूरी करनेके लिये सांसारिक पदार्थोंकी इच्छा करने लगता है। परिणामस्वरूप उसकी ये दोनों ही इच्छाएँ (स्वरूपबोधके बिना) कभी मिटती नहीं।
संसारको जाननेके लिये संसारसे अलग होना और परमात्माको जाननेके लिये परमात्मासे अभिन्न होना आवश्यक है; क्योंकि वास्तवमें ‘स्वयं’ की संसारसे भिन्नता और परमात्मासे अभिन्नता है। परन्तु संसारकी इच्छा करनेसे ‘स्वयं’ संसारसे अपनी अभिन्नता या समीपता मान लेता है, जो कभी सम्भव नहीं; और परमात्माकी इच्छा करनेसे ‘स्वयं’ परमात्मासे अपनी भिन्नता या दूरी (विमुखता) मान लेता है, पर इसकी सम्भावना ही नहीं। हाँ, सांसारिक इच्छाओंको मिटानेके लिये पारमार्थिक इच्छा करना बहुत उपयोगी है। यदि पारमार्थिक इच्छा तीव्र हो जाय तो लौकिक इच्छाएँ स्वत: मिट जाती हैं। लौकिक इच्छाएँ सर्वथा मिटनेपर पारमार्थिक इच्छा पूरी हो जाती है अर्थात् नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव हो जाता है१।
(१-यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिता:।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते॥
(कठ० २। ३। १४; बृहदा० ४। ४। ७)
‘साधकके हृदयमें स्थित सम्पूर्ण कामनाएँ जब समूल नष्ट हो जाती हैं, तब मरणधर्मा मनुष्य अमर हो जाता है और यहीं (मनुष्यशरीरमें ही) ब्रह्मका भलीभाँति अनुभव कर लेता है।’
विमुञ्चति यदा कामान् मानवो मनसि स्थितान्।
तर्ह्येव पुण्डरीकाक्ष भगवत्त्वाय कल्पते॥
(श्रीमद्भा० ७। १०। ९)
‘कमलनयन! जिस समय मनुष्य अपने मनमें रहनेवाली समस्त कामनाओंका परित्याग कर देता है, उसी समय वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त कर लेता है।’)
कारण कि वास्तवमें परमात्मा सदा-सर्वत्र विद्यमान है, पर लौकिक इच्छाएँ रहनेसे उनका अनुभव नहीं होता।
‘जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्’— ‘महाबाहो’ का अर्थ है—बड़ी और बलवान् भुजाओंवाला अर्थात् शूरवीर। अर्जुनको ‘महाबाहो’ अर्थात् शूरवीर कहकर भगवान् यह लक्ष्य कराते हैं कि तुम इस ‘काम’-रूप शत्रुका दमन करनेमें समर्थ हो।
संसारसे सम्बन्ध रखते हुए ‘काम’ का नाश करना बहुत कठिन है। यह ‘काम’ बड़ों-बड़ोंके भी विवेकको ढककर उन्हें कर्तव्यसे च्युत कर देता है, जिससे उनका पतन हो जाता है। इसलिये भगवान् ने इसे दुर्जय शत्रु कहा है।
‘काम’ को दुर्जय शत्रु कहनेका तात्पर्य इससे अधिक सावधान रहनेमें है, इसे दुर्जय समझकर निराश होनेमें नहीं।
प्रत्येक कामनाकी उत्पत्ति, पूर्ति, अपूर्ति और निवृत्ति होती है, इसलिये मात्र कामनाएँ उत्पन्न और नष्ट होनेवाली हैं। परन्तु ‘स्वयं’ निरन्तर रहता है और कामनाओंके उत्पन्न तथा नष्ट होनेको जानता है। अत: कामनाओंसे वह सुगमतापूर्वक सम्बन्ध-विच्छेद कर सकता है; क्योंकि वास्तवमें सम्बन्ध है ही नहीं। इसलिये साधकको कामनाओंसे कभी घबराना नहीं चाहिये। यदि साधकका अपने कल्याणका पक्का उद्देश्य है२ तो वह ‘काम’ को सुगमतापूर्वक मार सकता है।
(२-उद्देश्य या लक्ष्य सदैव अविनाशी (चेतन-तत्त्व—परमात्मा) का ही होता है, नाशवान् (संसार) का नहीं। नाशवान् की कामनाएँ ही होती हैं, उद्देश्य नहीं होता। उद्देश्य वह होता है, जिसे मनुष्य निरन्तर चाहता है। चाहे शरीरके टुकड़े-टुकड़े ही क्यों न कर दिये जायँ, तो भी वह उद्देश्यको ही चाहता है। उद्देश्यकी सिद्धि अवश्य होती है, पर कामनाओंकी सिद्धि नहीं होती, प्रत्युत नाश होता है। उद्देश्य सदा एक ही रहता है, पर कामनाएँ बदलती रहती हैं।)
कामनाओंके त्यागमें अथवा परमात्माके प्राप्तिमें सब स्वतन्त्र, अधिकारी, योग्य और समर्थ हैं। परन्तु कामनाओंकी पूर्तिमें कोई भी स्वतन्त्र, अधिकारी, योग्य और समर्थ नहीं है। कारण कि कामना पूरी होनेवाली है ही नहीं। परमात्माने मानव-शरीर अपनी प्राप्तिके लिये ही दिया है।
अत: कामनाका त्याग करना कठिन नहीं है। सांसारिक भोग-पदार्थोंको महत्त्व देनेके कारण ही कामनाका त्याग कठिन मालूम देता है।
सुख (अनुकूलता) की कामनाको मिटानेके लिये ही भगवान् समय-समयपर दु:ख (प्रतिकूलता) भेजते हैं कि सुखकी कामना मत करो; कामना करोगे तो दु:ख पाना ही पड़ेगा। सांसारिक पदार्थोंकी कामनावाला मनुष्य दु:खसे कभी बच ही नहीं सकता—यह नियम है; क्योंकि संयोग- जन्य भोग ही दु:खके हेतु हैं (गीता—पाँचवें अध्यायका बाईसवाँ श्लोक)।
‘स्वयं’ (स्वरूप) में अनन्त बल है। उसकी सत्ता और बलको पाकर ही बुद्धि, मन और इन्द्रियाँ सत्तावान् एवं बलवान् होते हैं। परन्तु जडसे सम्बन्ध जोड़नेके कारण वह अपने बलको भूल रहा है और अपनेको बुद्धि, मन और इन्द्रियोंके अधीन मान रहा है। अतएव ‘काम’-रूप शत्रुको मारनेके लिये अपने-आपको जानना और अपने बलको पहचानना बड़ा आवश्यक है।
‘काम’ जडके सम्बन्धसे और जडमें ही होता है। तादात्म्य होनेसे वह स्वयंमें प्रतीत होता है। जडका सम्बन्ध न रहे तो ‘काम’ है ही नहीं। इसलिये यहाँ ‘काम’ को मारनेका तात्पर्य वस्तुत: ‘काम’ का सर्वथा अभाव बतानेमें ही है। इसके विपरीत यदि ‘काम’ अर्थात् कामनाकी सत्ताको मानकर उसे मिटानेकी चेष्टा करें तो कामनाका मिटना कठिन है। कारण कि वास्तवमें कामनाकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। कामना उत्पन्न होती है और उत्पन्न होनेवाली वस्तु नष्ट होगी ही—यह नियम है। नयी कामना न करें तो पहलेकी कामनाएँ अपने-आप नष्ट हो जायँगी। इसलिये कामनाको मिटानेका तात्पर्य है—नयी कामना न करना।
शरीरादि सांसारिक पदार्थोंको ‘मैं’, ‘मेरा’ और ‘मेरे लिये’ माननेसे ही अपने-आपमें कमीका अनुभव होता है, पर मनुष्य भूलसे उस कमीकी पूर्ति भी सांसारिक पदार्थोंसे ही करना चाहता है। इसलिये वह उन पदार्थोंकी कामना करता है। परन्तु वास्तवमें आजतक सांसारिक पदार्थोंसे किसीकी भी कमीकी पूर्ति हुई नहीं, होगी नहीं और हो सकती भी नहीं। कारण कि स्वयं अविनाशी है और पदार्थ नाशवान् हैं। स्वयं अविनाशी होकर भी नाशवान् की कामना करनेसे लाभ तो कोई होता नहीं और हानि कोई-सी भी बाकी रहती नहीं। इसलिये भगवान् कामनाको शत्रु बताते हुए उसे मार डालनेकी आज्ञा देते हैं।
कर्मयोगके द्वारा इस कामनाका नाश सुगमतासे हो जाता है। कारण कि कर्मयोगका साधक संसारकी छोटी-से-छोटी अथवा बड़ी-से-बड़ी प्रत्येक क्रिया परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखकर दूसरोंके लिये ही करता है, कामनाकी पूर्तिके लिये नहीं। वह प्रत्येक क्रिया निष्कामभावसे एवं दूसरोंके हित और सुखके लिये ही करता है, अपने लिये कभी कुछ नहीं करता। उसके पास जो समय, समझ, सामग्री और सामर्थ्य है, वह सब अपनी नहीं है, प्रत्युत मिली हुई है और बिछुड़ जायगी। इसलिये वह उसे अपनी कभी न मानकर नि:स्वार्थभावसे (संसारकी ही मानकर) संसारकी ही सेवामें लगा देता है। उसे पूरी-की-पूरी संसारकी सेवामें लगा देता है, अपने पास बचाकर नहीं रखता। अपना न माननेसे ही वह पूरी-की-पूरी सेवामें लगती है, अन्यथा नहीं।
कर्मयोगी अपने लिये कुछ करता ही नहीं, अपने लिये कुछ चाहता ही नहीं और अपना कुछ मानता ही नहीं। इसलिये उसमें कामनाओंका नाश सुगमतापूर्वक हो जाता है। कामनाओंका सर्वथा नाश होनेपर उसके उद्देश्यकी पूर्ति हो जाती है और वह अपने-आपमें ही अपने-आपको पाकर कृतकृत्य, ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाता है अर्थात् उसके लिये कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता।
परिशिष्ट भाव—भगवान् ने इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिका नाम तो लिया है, पर ‘अहम्’ का नाम नहीं लिया। अहम् बुद्धिसे परे है। सातवें अध्यायके चौथे श्लोकमें भी भगवान् ने बुद्धिके बाद अहम् को लिया है—‘भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च। अहङ्कार इतीयं मे….’। अत: यहाँ भी ‘स:’ पदसे अहम् में रहनेवाले ‘काम’ को लेना चाहिये।
जबतक स्वरूपका साक्षात्कार नहीं होता, तबतक अहम् में काम रहता है। स्वरूपका साक्षात्कार होनेपर अहम् में काम नहीं रहता—‘परं दृष्ट्वा निवर्तते’ (गीता २। ५९)। सुख तो है स्वरूपमें, पर कामके कारण मनुष्य जड़ताको सत्ता और महत्ता देकर उससे सुख चाहता है। जबतक जड़ताका सम्बन्ध है, तबतक ‘काम’ है, जड़तासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ‘प्रेम’ होता है।
‘काम’ अपनेमें है—‘रसोऽप्यस्य’ (गीता २। ५९)। अपनेमें होनेसे ही काम हमारे लिये बाधक होता है। अगर यह अपनेमें न हो, दूसरे (इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि) में हो तो हमारेको क्या बाधा लगी? अपनेमें काम होनेसे ही स्वयं सुखी-दु:खी होता है, कर्ता-भोक्ता होता है। वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो काम अपनेमें माना हुआ है, अपनेमें है नहीं, तभी यह मिटता है। अत: काम अपनेमें नहीं है, पर माना हुआ है।
अहम् में रहनेवाली चीजको मनुष्य अपनेमें मान लेता है। अपनेमें अहम् माना हुआ है और उस अहम् में काम रहता है। अत: जबतक अहम् है, तबतक अहम् की जातिका आकर्षण अर्थात् ‘काम’ होता है और जब अहम् नहीं रहता, तब स्वयंकी जातिका आकर्षण अर्थात् ‘प्रेम’ होता है। काममें संसारकी तरफ और प्रेममें परमात्माकी तरफ आकर्षण होता है।
सम्पूर्ण त्रिलोकी, अनन्त ब्रह्माण्ड ‘विषय’ है। विषय इन्द्रियोंके एक देशमें हैं, इन्द्रियाँ मनके एक देशमें हैं, मन बुद्धिके एक देशमें है, बुद्धि अहम् के एक देशमें है और अहम् चेतन (स्वरूप) के एक देशमें है। अत: चेतन अत्यन्त महान् है, जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण त्रिलोकी, अनन्त ब्रह्माण्ड विद्यमान हैं। परन्तु अपरा प्रकृतिके एक अंश अहम् के साथ अपना सम्बन्ध जोड़नेके कारण मनुष्य अपनेको अत्यन्त छोटा (एकदेशीय) देखता है!