इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥40॥
इन्द्रियाणि, मन:, बुद्धि:, अस्य, अधिष्ठानम्, उच्यते,
एतै:, विमोहयति, एष:, ज्ञानम्, आवृत्य, देहिनम्॥ ४०॥
इन्द्रियाणि = इन्द्रियाँ, मन: = मन (और), बुद्धि: = बुद्धि(ये सब) अस्य = इसके, अधिष्ठानम् = वासस्थान, उच्यते = कहे जाते हैं, एष: = यह काम, एतै: = इन मन, बुद्धि और इन्द्रियोंके द्वारा ही, ज्ञानम् = ज्ञानको, आवृत्य = आच्छादित करके, देहिनम् = जीवात्माको, विमोहयति = मोहित करता है।
‘इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इसके स्थान है; इनके माध्यम से ये शरीरधारी आत्मा को, इसकी बुद्धि को, आच्छादित करके मोहित करते हैं’।
व्याख्या—‘इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते’—काम पाँच स्थानोंमें दीखता है—(१) पदार्थोंमें (गीता—तीसरे अध्यायका चौंतीसवाँ श्लोक), (२) इन्द्रियोंमें, (३) मनमें, (४) बुद्धिमें और (५) माने हुए अहम् (मैं) अर्थात् कर्तामें (गीता—दूसरे अध्यायका उनसठवाँ श्लोक)। इन पाँच स्थानोंमें दीखनेपर भी काम वास्तवमें माने हुए ‘अहम्’ (चिज्जडग्रन्थि) में ही रहता है। परन्तु उपर्युक्त पाँच स्थानोंमें दिखायी देनेके कारण ही वे इस कामके वास-स्थान कहे जाते हैं।
समस्त क्रियाएँ शरीर, इन्द्रियों, मन और बुद्धिसे ही होती हैं। ये चारों कर्म करनेके साधन हैं। यदि इनमें काम रहता है तो वह पारमार्थिक कर्म नहीं होने देता। इसलिये कर्मयोगी निष्काम, निर्मम और अनासक्त होकर शरीर, इन्द्रियों, मन और बुद्धिके द्वारा अन्त:करणकी शुद्धिके लिये कर्म करता है (गीता—पाँचवें अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक)।
वास्तवमें काम अहम् (जड-चेतनके तादात्म्य) में ही रहता है। अहम् अर्थात् ‘मैं’-पन केवल माना हुआ है। मैं अमुक वर्ण, आश्रम, सम्प्रदायवाला हूँ—यह केवल मान्यता है। मान्यताके सिवाय इसका दूसरा कोई प्रमाण नहीं है। इस माने हुए सम्बन्धमें ही कामना रहती है। कामनासे ही सब पाप होते हैं। पाप तो फल भुगताकर नष्ट हो जाते हैं, पर ‘अहम्’ से कामना दूर हुए बिना नये-नये पाप होते रहते हैं। इसलिये कामना ही जीवको बाँधनेवाली है। महाभारतमें कहा है—
कामबन्धनमेवैकं नान्यदस्तीह बन्धनम्।
कामबन्धनमुक्तो हि ब्रह्मभूयाय कल्पते॥
(शान्तिपर्व २५१। ७)
‘जगत् में कामना ही एकमात्र बन्धन है, दूसरा कोई बन्धन नहीं है। जो कामनाके बन्धनसे छूट जाता है, वह ब्रह्मभाव प्राप्त करनेमें समर्थ हो जाता है।’
‘एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्’—कामनाके कारण मनुष्यको जो करना चाहिये, वह नहीं करता और जो नहीं करना चाहिये, वह कर बैठता है। इस प्रकार कामना देहाभिमानी पुरुषको मोहित कर देती है।
दूसरे अध्यायमें भगवान् ने कहा है कि कामनासे क्रोध उत्पन्न होता है—‘कामात् क्रोधोऽभिजायते’ (२। ६२) और क्रोधसे सम्मोह (अत्यन्त मूढ़भाव) उत्पन्न होता है— ‘क्रोधाद्भवति सम्मोह:’ (२। ६३)। इससे यह समझना चाहिये कि कामनामें बाधा पहुँचनेपर तो क्रोध उत्पन्न होता है, पर यदि कामनामें बाधा न पहुँचे, तो कामनासे लोभ और लोभसे सम्मोह उत्पन्न होता है१।
(१-रागात् काम: प्रभवति कामाल्लोभोऽभिजायते।
लोभाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात् स्मृतिविभ्रम:॥
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति॥
(मार्कण्डेयपुराण ३। ७१-७२))
तात्पर्य यह है कि कामनासे पदार्थ न मिले तो ‘क्रोध’ उत्पन्न होता है और पदार्थ मिले तो ‘लोभ’ उत्पन्न होता है। उनसे फिर ‘मोह’ उत्पन्न होता है। कामना रजोगुणका कार्य है और मोह तमोगुणका कार्य। रजोगुण और तमोगुण पास-पास रहते है२।
(२-तमोगुण, रजोगुण, और सत्त्वगुण—तीनोंमें परस्पर (क्रमश: १,१० और १०० अंकोंकी तरह) दसगुनेका अन्तर है। फिर भी तमोगुण (१) से रजोगुण (१०) नजदीक है और सत्त्वगुण (१००) इन दोनोंसे दूर पड़ता है।)
अत: काम, क्रोध, लोभ और मोह पास-पास ही रहते हैं। काम इन्द्रियों, मन और बुद्धिके द्वारा देहाभिमानी पुरुषको मोहित (बेहोश) कर देता है। इस प्रकार ‘काम’ रजोगुणका कार्य होते हुए भी तमोगुणका कार्य ‘मोह’ हो जाता है।
कामना उत्पन्न होनेपर मनुष्य पहले इन्द्रियोंसे भोग भोगनेकी कामना करता है। पहले तो भोग-पदार्थ मिलते नहीं और मिल भी जायँ तो टिकते नहीं। इसलिये उन्हें किसी तरह प्राप्त करनेके लिये वह मनमें तरह-तरहकी कामनाएँ करता है। बुद्धिमें उन्हें प्राप्त करनेके लिये तरह-तरहके उपाय सोचता है। इस प्रकार कामना पहले इन्द्रियोंको संयोगजन्य सुखके प्रलोभनमें लगाती है। फिर इन्द्रियाँ मनको अपनी ओर खींचती हैं और उसके बाद इन्द्रियाँ और मन मिलकर बुद्धिको भी अपनी ओर खींच लेते हैं। इस तरह काम देहाभिमानीके ज्ञानको ढककर इन्द्रियों, मन और बुद्धिके द्वारा उसे मोहित कर देता है तथा उसे पतनके गड्ढेमें डाल देता है।
यह सिद्धान्त है कि नौकर अच्छा हो, पर मालिक तिरस्कारपूर्वक उसे निकाल दे तो फिर उसे अच्छा नौकर नहीं मिलेगा। ऐसे ही मालिक अच्छा हो, पर नौकर उसका तिरस्कार कर दे तो फिर उसे अच्छा मालिक नहीं मिलेगा। इसी प्रकार मनुष्य परमात्मप्राप्ति किये बिना शरीरको सांसारिक भोग और संग्रहमें ही खो देता है तो फिर उसे मनुष्यशरीर नहीं मिलेगा। अच्छी वस्तुका तिरस्कार होता है अन्त:करण अशुद्ध होनेसे और अन्त:करण अशुद्ध होता है कामनासे। इसलिये सबसे पहले कामनाका नाश करना चाहिये।
‘देहिनम् विमोहयति’—पदोंका तात्पर्य यह है कि यह काम देहाभिमानी पुरुषको ही मोहित करता है। शरीरको ‘मैं’ और ‘मेरा’ माननेवाला ही देहाभिमानी होता है। भगवान् ने अपने उपदेशके आरम्भमें ही देह (शरीर) और देही (शरीरी—आत्मा) का विवेचन किया है (गीता— दूसरे अध्यायके ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक)। देह और देही दोनों अलग-अलग हैं—यह सबका अनुभव है। यह काम ज्ञानको ढककर देहाभिमानी (देहसे अपना सम्बन्ध माननेवाले) को बाँधता है, देही(शुद्ध स्वरूप) को नहीं। जो देहके साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता, उसे यह बाँध नहीं सकता। देहको ‘मैं’ ‘मेरा’ और ‘मेरे लिये’ माननेसे ही मनुष्य उत्पत्ति-विनाशशील जड वस्तुओंको महत्त्व देता है; जिससे उसमें जडताका राग उत्पन्न हो जाता है। राग उत्पन्न होनेपर जडतासे सम्बन्ध हो जाता है। जडतासे सम्बन्ध होनेपर ही कामनाकी उत्पत्ति होती है। कामना उत्पन्न होनेपर जीव मोहित होकर संसार-बन्धनमें बँध जाता है।
सम्बन्ध—अब आगेके तीन श्लोकोंमें भगवान् कामको मारनेका प्रकार बताते हुए उसे मारनेकी आज्ञा देते हैं।