अर्जुन उवाच ।
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥36॥
अथ, केन, प्रयुक्त:, अयम्, पापम्, चरति, पूरुष:,
अनिच्छन्, अपि, वार्ष्णेय, बलात्, इव, नियोजित:॥ ३६॥
वार्ष्णेय = हे कृष्ण! (तो), अथ = फिर, अयम् = यह, पूरुष: = मनुष्य (स्वयम्), अनिच्छन् = न चाहता हुआ, अपि = भी, बलात् = बलात्, नियोजित: = लगाये हुएकी, इव = भाँति, केन = किससे, प्रयुक्त: = प्रेरित होकर, पापम् = पापका, चरति = आचरण करता है।
‘अर्जुन ने कहा’ : ‘तो किस से प्रेरित होकर कोई व्यक्ति, अपनी इच्छा के विरुद्ध भी पाप या अपराध करता है, हे कृष्ण, मानो बलपूर्वक उसे ऐसा करना पड़ रहा है’।
व्याख्या—‘अथ केन प्रयुक्तोऽयं …………….. बलादिव नियोजित:’—यदुकुलमें ‘वृष्णि’ नामका एक वंश था। उसी वृष्णिवंशमें अवतार लेनेसे भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम ‘वार्ष्णेय’ है। पूर्वश्लोकमें भगवान् ने स्वधर्म-पालनकी प्रशंसा की है। धर्म ‘वर्ण’ और ‘कुल’ का होता है; अत: अर्जुन भी कुल (वंश) के नामसे भगवान् को सम्बोधित करके प्रश्न करते हैं।
विचारवान् पुरुष पाप नहीं करना चाहता; क्योंकि पापका परिणाम दु:ख होता है और दु:खको कोई भी प्राणी नहीं चाहता।
यहाँ ‘अनिच्छन्’ पदका तात्पर्य भोग और संग्रहकी इच्छाका त्याग नहीं, प्रत्युत पाप करनेकी इच्छाका त्याग है। कारण कि भोग और संग्रहकी इच्छा ही समस्त पापोंका मूल है, जिसके न रहनेपर पाप होते ही नहीं।
विचारशील मनुष्य पाप करना तो नहीं चाहता, पर भीतर सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छा रहनेसे वह करनेयोग्य कर्तव्य कर्म नहीं कर पाता और न करनेयोग्य पाप-कर्म कर बैठता है।
‘अनिच्छन्’ पदकी प्रबलताको बतानेके लिये अर्जुन ‘बलादिव नियोजित:’ पदोंको कहते हैं। तात्पर्य यह है कि पापवृत्तिके उत्पन्न होनेपर विचारशील पुरुष उस पापको जानता हुआ उससे सर्वथा दूर रहना चाहता है; फिर भी वह उस पापमें ऐसे लग जाता है, जैसे कोई उसको जबर्दस्ती पापमें लगा रहा हो। इससे ऐसा मालूम होता है कि पापमें लगानेवाला कोई बलवान् कारण है।
पापोंमें प्रवृत्तिका मूल कारण है—‘काम’ अर्थात् सांसारिक सुख-भोग और संग्रहकी कामना। परन्तु इस कारणकी ओर दृष्टि न रहनेसे मनुष्यको यह पता नहीं चलता कि पाप करानेवाला कौन है? वह यह समझता है कि मैं तो पापको जानता हुआ उससे निवृत्त होना चाहता हूँ, पर मेरेको कोई बलपूर्वक पापमें प्रवृत्त करता है; जैसे दुर्योधनने कहा है—
जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति
र्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्ति:।
केनापि देवेन हृदि स्थितेन
यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि॥
(गर्गसंहिता, अश्वमेध० ५०। ३६)
‘मैं धर्मको जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्मको भी जानता हूँ, पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती। मेरे हृदयमें स्थित कोई देव है, जो मेरेसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ।’
दुर्योधन द्वारा कहा गया यह ‘देव’ वस्तुत: ‘काम’ (भोग और संग्रहकी इच्छा) ही है, जिससे मनुष्य विचारपूर्वक जानता हुआ भी धर्मका पालन और अधर्मका त्याग नहीं कर पाता।
‘केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति’ पदोंसे भी ‘अनिच्छन्’ पदकी प्रबलता प्रतीत होती है। तात्पर्य यह है कि विचारवान् मनुष्य स्वयं पाप करना नहीं चाहता; कोई दूसरा ही उसे जबर्दस्ती पापमें प्रवृत्त करा देता है। वह दूसरा कौन है?—यह अर्जुनका प्रश्न है।
भगवान् ने अभी-अभी चौंतीसवें श्लोकमें बताया है कि राग और द्वेष (जो काम और क्रोधके ही सूक्ष्म रूप हैं) साधकके महान् शत्रु हैं अर्थात् ये दोनों पापके कारण हैं। परन्तु वह बात सामान्य रीतिसे कहनेके कारण अर्जुन उसे पकड़ नहीं सके। अत: वे प्रश्न करते हैं कि मनुष्य विचारपूर्वक पाप करना न चाहता हुआ भी किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है?
अर्जुनके प्रश्नका अभिप्राय यह है कि (इकतीसवेंसे लेकर पैंतीसवें श्लोकतक देखते हुए) अश्रद्धा, असूया, दुष्टचित्तता, मूढ़ता, प्रकृति (स्वभाव) की परवशता, राग-द्वेष, स्वधर्ममें अरुचि और परधर्ममें रुचि—इनमेंसे कौन-सा कारण है, जिससे मनुष्य विचारपूर्वक न चाहता हुआ भी पापमें प्रवृत्त होता है? इसके अलावा ईश्वर, प्रारब्ध, युग, परिस्थिति, कर्म, कुसंग, समाज, रीतिरिवाज, सरकारी कानून आदिमेंसे भी किस कारणसे मनुष्य पापमें प्रवृत्त होता है?
सम्बन्ध—अब भगवान् आगेके श्लोकमें अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देते हैं।