ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥31॥
ये, मे, मतम्, इदम्, नित्यम्, अनुतिष्ठन्ति, मानवा:,
श्रद्धावन्त:, अनसूयन्त:, मुच्यन्ते, ते, अपि, कर्मभि:॥ ३१॥
ये = जो कोई, मानवा: = मनुष्य, अनसूयन्त: = दोषदृष्टिसे रहित (और), श्रद्धावन्त: = श्रद्धायुक्त होकर, मे = मेरे, इदम् = इस, मतम् = मतका, नित्यम् = सदा, अनुतिष्ठन्ति = अनुसरण करते हैं, ते = वे, अपि = भी, कर्मभि: = सम्पूर्ण कर्मोंसे, मुच्यन्ते = छूट जाते हैं।
‘वे लोग जो मेरी इस शिक्षा का निरंतर अभ्यास करते हैं, श्रद्धा, विश्वास और दृढ़ विचारपूर्वक, और बिना छिद्रान्वेषण के, वे भी सभी कर्मों (के बुरे प्रभावों) से मुक्त हो जाते हैं।’
व्याख्या—‘ये मे मतमिदं………..श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो’—किसी भी वर्ण, आश्रम, धर्म, सम्प्रदाय आदिका कोई भी मनुष्य यदि कर्म-बन्धनसे मुक्त होना चाहता है, तो उसे इस सिद्धान्तको मानकर इसका अनुसरण करना चाहिये। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, कर्म आदि कुछ भी अपना नहीं है—इस वास्तविकताको जान लेनेवाले सभी मनुष्य कर्म-बन्धनसे छूट जाते हैं।
भगवान् और उनके मतमें प्रत्यक्षकी तरह नि:सन्देह दृढ़ विश्वास और पूज्यभावसे युक्त मनुष्यको ‘श्रद्धावन्त:’ पदसे कहा गया है।
शरीरादि जड पदार्थोंको अपने और अपने लिये न माननेसे मनुष्य मुक्त हो जाता है—इस वास्तविकतापर श्रद्धा होनेसे जडताके माने हुए सम्बन्धका त्याग करना सुगम हो जाता है।
श्रद्धावान् साधक ही सत्-शास्त्र, सत्-चर्चा और सत्संगकी बातें सुनता है और उनको आचरणमें लाता है।
मनुष्यशरीर परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है। अत: परमात्माको ही प्राप्त करनेकी एकमात्र उत्कट अभिलाषा होनेपर साधकमें श्रद्धा, तत्परता, संयतेन्द्रियता आदि स्वत: आ जाते हैं। अत: साधकको मुख्यरूपसे परमात्मप्राप्तिकी अभिलाषाको ही तीव्र बनाना चाहिये।
पीछेके (तीसवें) श्लोकमें भगवान् ने अपना जो मत बताया है, उसमें दोष-दृष्टि न करनेके लिये यहाँ ‘अनसूयन्त:’ पद दिया गया है। गुणोंमें दोष देखनेको ‘असूया’ कहते हैं। असूया (दोषदृष्टि)से रहित मनुष्योंको यहाँ ‘अनसूयन्त:’ कहा गया है।
जहाँ श्रद्धा रहती है, वहाँ भी किसी अंशमें दोषदृष्टि रह सकती है। इसलिये भगवान् ने ‘श्रद्धावन्त:’ पदके साथ ‘अनसूयन्त:’ पद भी देकर मनुष्यको दोषदृष्टिसे सर्वथा रहित (पूर्ण श्रद्धावान्) होनेके लिये कहा है। इसी प्रकार गीता-श्रवणका माहात्म्य बताते हुए भी भगवान् ने ‘श्रद्धावाननसूयश्च’ (गीता १८। ७१) पद देकर श्रोताके लिये श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टिसे रहित होनेकी बात कही है।
‘भगवान् का मत तो उत्तम है, पर भगवान् कितनी आत्मश्लाघा, अभिमानकी बात कहते हैं कि सब कुछ मेरे ही अर्पण कर दो’ अथवा ‘यह मत तो अच्छा है, पर कर्मोंके द्वारा भगवत्प्राप्ति कैसे हो सकती है? कर्म तो जड और बाँधनेवाले होते हैं’ आदि-आदि भाव आना ही भगवान् के मतमें दोष-दृष्टि करना है। साधकको भगवान् और उनके मत दोनोंमें ही दोष-दृष्टि नहीं करनी चाहिये।
वास्तवमें सब कुछ भगवान् का ही है; परन्तु मनुष्य भूलसे भगवान् की वस्तुओंको अपनी मानकर बँध जाता है और ममता-कामनाके वशमें होकर दु:ख पाता रहता है। अत: इस अपनेपनका त्याग करवाकर मनुष्यका उद्धार करनेके लिये (कि वह सदाके लिये सुखी हो जाय) भगवान् अपनी सहज करुणासे सब कुछ अपने अर्पण करनेकी बात कहते हैं। अत: इस विषयमें दोष-दृष्टि करना अनुचित है। यह तो भगवान् का परम सौहार्द, कारुण्य, वात्सल्य ही है कि अपनेमें कोई अपूर्णता (कमी) और आवश्यकता न होनेपर भी केवल मनुष्यके कल्याणार्थ वे समस्त कर्मोंको अपने अर्पण करनेके लिये कहते हैं।
भगवान् का मत ही लोकमें ‘सिद्धान्त’ कहलाता है। सर्वोपरि सिद्धान्तको ही यहाँ ‘मतम्’ पदसे कहा गया है। भगवान् ने अपनी सहज सरलता एवं निरभिमानताके कारण सर्वोपरि सिद्धान्तको ‘मत’ नामसे कहा है। यह मत या सिद्धान्त त्रिकालमें एक-जैसा रहता है अर्थात् इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता, चाहे कोई श्रद्धा करे या न करे।
यहाँ ‘नित्यम्’ पद ‘मतम्’ का विशेषण नहीं, प्रत्युत ‘अनुतिष्ठन्ति’ पदका ही विशेषण है। कारण कि भगवान् नित्य हैं; अत: उनसे सम्बन्धित समस्त वस्तुएँ भी नित्य ही हैं। भगवान् का मत भी नित्य है। भगवान् का मत सर्वोपरि सिद्धान्त है और सिद्धान्त वही होता है, जो कभी मिटता नहीं। अत: भगवान् का मत तो नित्य है ही, उसका अनुष्ठान नित्य होना चाहिये। इसलिये यहाँ क्रियाविशेषण ‘नित्यम्’ पद देनेका तात्पर्य है—भगवान् के मतपर नित्य-निरन्तर (सदा) स्थित रहना तथा इसके अनुसार अनुष्ठान करना।
प्रश्न—भगवान् का मत क्या है? और उसका सदा अनुष्ठान कैसे किया जाय?
उत्तर—मिली हुई कोई भी वस्तु अपनी नहीं है—यह भगवान् का मत है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण, धन, सम्पत्ति, पदार्थ आदि सब प्रकृतिके कार्य हैं और संसार भी प्रकृतिका कार्य है। इसलिये इन वस्तुओंकी संसारसे एकता है तथा परमात्माका अंश होनेसे ‘स्वयं’ की परमात्मासे एकता है। अत: ये वस्तुएँ व्यक्तिगत (अपनी) नहीं हैं, प्रत्युत इनके उपयोगका अधिकार व्यक्तिगत है। इसके सिवाय सद्गुण, सदाचार, त्याग, वैराग्य, दया, क्षमा आदि भी व्यक्तिगत नहीं हैं, प्रत्युत भगवान् के हैं। ये दैवी सम्पत्ति अर्थात् भगवत्प्राप्तिकी सम्पत्ति (पूँजी) होनेसे भगवान् के ही हैं। यदि ये सद्गुण, सदाचार आदि अपने होते तो इनपर हमारा पूरा अधिकार होता और हमारी सम्मतिके बिना किसी दूसरेको इनकी प्राप्ति न होती। इनको अपना माननेसे तो अभिमान ही होता है, जो आसुरी सम्पत्तिका मूल है।
जो वस्तु अपनी नहीं है, उसे अपनी माननेसे और उसकी प्राप्तिके लिये कर्म करनेसे ही बन्धन होता है। शरीरादि वस्तुएँ ‘अपनी’ तो हैं ही नहीं, ‘अपने लिये’ भी नहीं हैं। यदि ये अपने लिये होतीं, तो इनकी प्राप्तिसे हमें पूर्ण तृप्ति या सन्तोष हो जाता, पूर्णताका अनुभव हो जाता। परन्तु सांसारिक वस्तुएँ कितनी ही क्यों न मिल जायँ, कभी तृप्ति नहीं होती। तृप्ति या पूर्णताका अनुभव उस वस्तु (भगवान्) के मिलनेपर होता है, जो वास्तवमें अपनी है। अपनी वास्तविक वस्तुके मिलनेपर फिर स्वप्नमें भी कुछ पानेकी इच्छा नहीं रहती। जैसे, संसारमें सभी पुत्रवती स्त्रियाँ माताएँ ही हैं, पर बालकको उन सभी माताओंके मिलनेसे संतोष नहीं होता, प्रत्युत अपनी माताके मिलनेसे ही संतोष होता है। इसी तरह जबतक और पानेकी इच्छा रहती है, तबतक यही समझना चाहिये कि अपनी वस्तु मिली ही नहीं। मिली हुई वस्तुओंको भूलसे भले ही अपनी मान लें, पर वास्तवमें वे अपनी हैं नहीं और इसलिये उनसे अपनी तृप्ति भी नहीं होती। अत: मिली हुई कोई भी वस्तु अपनी और अपने लिये नहीं है।
शरीरादि प्राप्त वस्तुओंको न तो हम अपने साथ लाये थे और न अपने साथ ले ही जा सकते हैं तथा वर्तमानमें भी ये हमारेसे प्रतिक्षण वियुक्त हो रही हैं। वर्तमानमें जो ये अपनी प्रतीत होती हैं, वह भी सदुपयोग करने अर्थात् दूसरोंके हितमें लगानेके लिये, न कि अपना अधिकार जमानेके लिये। अत: हमें प्राप्त वस्तुओंका सदुपयोग करनेका ही अधिकार है, अपनी माननेका नहीं। भगवान् ने मनुष्यको ये वस्तुएँ इतनी उदारतापूर्वक और इस ढंगसे दी हैं कि मनुष्यको ये वस्तुएँ अपनी ही दीखने लगती हैं। इन वस्तुओंको अपनी मान लेना भगवान् की उदारताका दुरुपयोग करना है। जो वस्तुएँ अपनी नहीं हैं, पर जिन्हें भूलसे अपनी मान लिया है, उस भूलको मिटानेके लिये साधक अध्यात्मचित्तसे गहरा विचार करके उन्हें भगवान् के अर्पण कर दे अर्थात् भूलसे माना हुआ अपनापन हटा ले।
जिसका एकमात्र उद्देश्य अध्यात्मतत्त्व (परमात्मा) की प्राप्तिका है, ऐसा साधक यदि गम्भीरतापूर्वक विचार करे तो उसे स्पष्टरूपसे समझमें आ जायगा कि मिली हुई कोई भी वस्तु अपनी नहीं होती, प्रत्युत बिछुड़नेवाली होती है। शरीर, पद, अधिकार, शिक्षा, योग्यता, धन, सम्पत्ति, जमीन आदि जो कुछ मिला है, संसारसे ही मिला है और संसारके लिये ही है। मिली हुई वस्तुओंको चाहे संसार (कार्य) का माने, चाहे प्रकृति (कारण) का माने और चाहे भगवान् (स्वामी) का माने, पर सार (मुख्य) बात यही है कि वे अपनी नहीं हैं। जो वस्तुएँ अपनी नहीं हैं, वे अपने लिये कैसे हो सकती हैं?
साधकको न तो कोई ‘वस्तु’ अपनी माननी है और न कोई ‘कर्म’ ही अपने लिये करना है। अपने लिये किये गये कर्म बाँधनेवाले होते हैं (गीता—तीसरे अध्यायका नवाँ श्लोक) अर्थात् यज्ञ (निष्कामभावपूर्वक परहितके लिये किये जानेवाले कर्तव्य-कर्म) के अतिरिक्त अन्य (अपने लिये किये गये) कर्म मनुष्यको बाँधनेवाले होते हैं। यज्ञके लिये कर्म करनेवाले साधकके सम्पूर्ण कर्म, संचित-कर्म भी विलीन हो जाते हैं (गीता—चौथे अध्यायका तेईसवाँ श्लोक)। भगवान् समस्त लोकोंके महान् ईश्वर (स्वामी) हैं—‘सर्वलोकमहेश्वरम्’ (गीता ५। २९)। जब मनुष्य अपनेको वस्तुओंका स्वामी मान लेता है, तब वह अपने वास्तविक स्वामीको भूल जाता है; क्योंकि वह अपनेको जिन वस्तुओंका स्वामी मानता है, उसे उन्हीं वस्तुओंका चिन्तन होता है। अत: भगवान् को ही विश्वका एकमात्र स्वामी मानते हुए साधकको संसारमें सेवककी तरह रहना चाहिये। सेवक अपने स्वामीके समस्त कार्य करते हुए भी अपनेको कभी स्वामी नहीं मानता। अत: साधकको शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिको अपना न मानकर केवल भगवान् का मानते हुए अपने कर्तव्यका पालन कर देना चाहिये; कर्म करनेमें निमित्तमात्र बन जाना चाहिये। अपनेमें स्वामीपनेका अभिमान नहीं करना चाहिये।
सर्वस्व भगवदर्पण करनेके बाद लाभ-हानि, मान-अपमान, सुख-दु:ख आदि जो कुछ आये, उनको भी साधक भगवान् का ही माने और उनसे अपना कोई प्रयोजन न रखे। कर्तव्यमात्र प्राप्त परिस्थितिके अनुरूप होता है। परिस्थितिके अनुरूप प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करता रहे। यही भगवान् के मतका सदा अनुसरण करना है।
‘मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभि:’—भगवान् अर्जुनसे मानो यह कहते हैं कि मैं तुम्हें तो सर्वस्व मेरे अर्पण करके कर्तव्य-कर्म करनेकी स्पष्ट आज्ञा दे रहा हूँ, अत: मेरी आज्ञाका पालन करनेसे तुम्हारे मुक्त होनेमें कोई सन्देह नहीं है; परन्तु जिनको मैं इस प्रकार स्पष्ट आज्ञा नहीं देता हूँ, वे भी अगर इस मत (मिले हुएको अपना न मानकर कर्तव्य-कर्मका पालन करना) के अनुसार चलेंगे, तो वे भी मुक्त हो जायँगे। कारण कि यह मत ही ऐसा है कि चाहे मुझे माने या न माने, केवल इस मतका पालन करनेसे ही मनुष्य मुक्त हो जाता है।
परिशिष्ट भाव—भगवान् का मत ही वास्तविक और सर्वोपरि ‘सिद्धान्त’ है, जिसके अन्तर्गत सभी मत-मतान्तर आ जाते हैं। परन्तु भगवान् अभिमान न करके बड़ी सरलतासे, नम्रतासे अपने सिद्धान्तको ‘मत’ नामसे कहते हैं। तात्पर्य है कि भगवान् ने अपने अथवा दूसरे किसीके भी मतका आग्रह नहीं रखा है, प्रत्युत निष्पक्ष होकर अपनी बात सामने रखी है।
मत सर्वोपरि नहीं होता, प्रत्युत व्यक्तिगत होता है। हरेक व्यक्ति अपना-अपना मत प्रकट कर सकता है; परन्तु सिद्धान्त सर्वोपरि होता है, जो सबको मानना पड़ता है। इसलिये गुरु-शिष्यमें भी मतभेद तो हो सकता है, पर सिद्धान्तभेद नहीं हो सकता। ऋषि-मुनि, दार्शनिक अपने-अपने मतको भी ‘सिद्धान्त’ नामसे कहते हैं; परन्तु गीतामें भगवान् अपने सिद्धान्तको भी ‘मत’ नामसे कहते हैं। ऋषि-मुनि, दार्शनिक, आचार्य आदिके मतोंमें तो भेद (मतभेद) रहता है, पर भगवान् के मत अर्थात् सिद्धान्तमें कोई मतभेद नहीं है।