एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥16॥
एवम्, प्रवर्तितम्, चक्रम्, न, अनुवर्तयति, इह, य:,
अघायु:, इन्द्रियाराम:, मोघम्, पार्थ, स:, जीवति॥ १६॥
पार्थ = हे पार्थ!, य: = जो पुरुष, इह = इस लोकमें, एवम् = इस प्रकार परम्परासे, प्रवर्तितम् = प्रचलित, चक्रम् = सृष्टिचक्रके, न अनुवर्तयति =अनुकूल नहीं,बरतता अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, स: = वह इन्द्रियाराम: = इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला, अघायु: = पापायु (पुरुष), मोघम् = व्यर्थ (ही), जीवति = जीता है।
‘वह जो इस संसार में पापपूर्ण जीवन व्यतीत करने में और इन्द्रियों में सुख प्राप्त करने में इस प्रकार निर्धारित की गई चक्रीय गति का निर्वाह नहीं करता है, हे पृथापुत्र – वह व्यर्थ ही जीता या जीती है’।
व्याख्या—‘पार्थ’—नवें श्लोकमें प्रारम्भ किये हुए प्रकरणका उपसंहार करते हुए भगवान् यहाँ अर्जुनके लिये ‘पार्थ’ सम्बोधन देकर मानो यह कह रहे हैं कि तुम उसी पृथा (कुन्ती) के पुत्र हो, जिसने आजीवन कष्ट सहकर भी अपने कर्तव्यका पालन किया था। अत: तुम्हारेसे भी अपने कर्तव्यकी अवहेलना नहीं होनी चाहिये। जिस युद्धको तू घोर कर्म कह रहा है, वह तेरे लिये घोर कर्म नहीं, प्रत्युत यज्ञ (कर्तव्य) है। इसका पालन करना ही सृष्टि-चक्रके अनुसार बरतना है और इसका पालन न करना सृष्टि-चक्रके अनुसार न बरतना है।
‘एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य:’—जैसे रथके पहियेका छोटा-सा अंश भी टूट जानेपर रथके समस्त अंगोंको एवं उसपर बैठे रथी और सारथिको धक्का लगता है, ऐसे ही जो मनुष्य चौदहवें-पन्द्रहवें श्लोकोंमें वर्णित सृष्टि-चक्रके अनुसार नहीं चलता वह समष्टि सृष्टिके संचालनमें बाधा डालता है।
संसार और व्यक्ति दो (विजातीय) वस्तु नहीं हैं। जैसे शरीरका अंगोंके साथ और अंगोंका शरीरके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है, ऐसे ही संसारका व्यक्तिके साथ और व्यक्तिका संसारके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। जब व्यक्ति कामना, ममता, आसक्ति और अहंताका त्याग करके अपने कर्तव्यका पालन करता है, तब उससे सम्पूर्ण सृष्टिमें स्वत: सुख पहुँचता है।
‘इन्द्रियाराम:’—जो मनुष्य कामना, ममता, आसक्ति आदिसे युक्त होकर इन्द्रियोंके द्वारा भोग भोगता है, उसे यहाँ भोगोंमें रमण करनेवाला कहा गया है। ऐसा मनुष्य पशुसे भी नीचा है; क्योंकि पशु नये पाप नहीं करता; प्रत्युत पहले किये गये पापोंका ही फल भोगकर निर्मलताकी ओर जाता है; परन्तु ‘इन्द्रियाराम’ मनुष्य नये-नये पाप करके पतनकी ओर जाता है और साथ ही सृष्टि-चक्रमें बाधा उत्पन्न करके सम्पूर्ण सृष्टिको दु:ख पहुँचाता है।
‘अघायु:’—सृष्टि-चक्रके अनुसार न चलनेवाले मनुष्यकी आयु, उसका जीवन केवल पापमय है। कारण कि इन्द्रियोंके द्वारा भोगबुद्धिसे भोग भोगनेवाला मनुष्य हिंसारूप पापसे बच ही नहीं सकता। स्वार्थी, अभिमानी और भोग तथा संग्रहको चाहनेवाले मनुष्यके द्वारा दूसरोंका अहित होता है; अत: ऐसे मनुष्यका जीवन पापमय होता है। गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी कहते हैं।
पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद॥
(मानस ७। ३९)
‘मोघं पार्थ स जीवति’—अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्यकी सभ्य भाषामें निन्दा या ताड़ना करते हुए भगवान् कहते हैं कि ऐसा मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है अर्थात् वह मर जाय तो अच्छा है! तात्पर्य यह है कि यदि वह अपने कर्तव्यका पालन करके सृष्टिको सुख नहीं पहुँचाता तो कम-से-कम दु:ख तो न पहुँचाये। जैसे भगवान् श्रीरामके वनवासके समय अयोध्यावासियोंके चित्रकूट आनेपर कोल, किरात, भील आदि जंगली लोगोंने उनसे कहा था कि हम आपके वस्त्र और बर्तन नहीं चुरा लेते, यही हमारी बहुत बड़ी सेवा है—यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहिं न बासन बसन चोराई॥ (मानस २। २५१। २), ऐसे ही अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्य कम-से-कम सृष्टि-चक्रमें बाधा न डालें तो यह उनकी सेवा ही है।
सृष्टि-चक्रके अनुसार न चलनेवाले मनुष्यके लिये भगवान् ने पहले ‘स्तेन एव स:’ (३। १२) ‘वह चोर ही है’ और ‘भुञ्जते ते त्वघम्’ (३। १३) ‘वे तो पापको ही खाते हैं’—इस प्रकार कहा और अब इस श्लोकमें ‘अघायुरिन्द्रियाराम:’ ‘वह पापायु और इन्द्रियाराम है’—ऐसा कहकर उसके जीनेको भी व्यर्थ बताते हैं।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराजने भी कहा है—
तेज कृसानु रोष महिषेसा।
अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के।
कुंभकरन सम सोवत नीके॥
(मानस १। ४। ३)
परिशिष्ट भाव—नवें श्लोकसे लेकर यहाँतक जो वर्णन आया है, उसका तात्पर्य नि:स्वार्थभावसे दूसरोंकी सेवा करनेमें ही है।
सम्बन्ध—संसारसे ‘सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये जो अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उस मनुष्यकी पूर्वश्लोकमें ताड़ना की गयी है। परन्तु जिसने अपने कर्तव्यका पालन करके संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है, उस महापुरुषकी स्थितिका वर्णन भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।