सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥10॥
सहयज्ञा:, प्रजा:, सृष्ट्वा, पुरा, उवाच, प्रजापति:,
अनेन, प्रसविष्यध्वम्, एष:, व:, अस्तु, इष्टकामधुक्॥ १०॥
प्रजापति: = प्रजापति ब्रह्माने, पुरा = कल्पके आदिमें, सहयज्ञा: = यज्ञसहित, प्रजा: = प्रजाओंको, सृष्ट्वा = रचकर (उनसे), उवाच = कहा (कि), यूयम् = तुमलोग, अनेन = इस यज्ञके द्वारा, प्रसविष्यध्वम् = वृद्धिको प्राप्त होओ (और), एष: = यह यज्ञ, व: = तुमलोगोंको, इष्टकामधुक् = इच्छित भोग प्रदान करनेवाला, अस्तु = हो।
‘प्रजापति (जीवों के स्वामी) ने प्रारंभ में यज्ञ के साथ (स्वयं से) मानवजाति का प्रक्षेपण करके कहा, “इससे तुम संख्या में विस्तार पाओगे; यह तुम्हारी इच्छाओं की दुधारू गाय होगी”।’
(Verse 10 & 11) व्याख्या—‘सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:’—ब्रह्माजी प्रजा (सृष्टि) के रचयिता एवं उसके स्वामी हैं; अत: अपने कर्तव्यका पालन करनेके साथ वे प्रजाकी रक्षा तथा उसके कल्याणका विचार करते रहते हैं।
कारण कि जो जिसे उत्पन्न करता है, उसकी रक्षा करना उसका कर्तव्य हो जाता है। ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करते, उसकी रक्षामें तत्पर रहते तथा सदा उसके हितकी बात सोचते हैं। इसीलिये वे ‘प्रजापति’ कहलाते हैं।
सृष्टि अर्थात् सर्गके आरम्भमें ब्रह्माजीने कर्तव्यकर्मोंकी योग्यता और विवेकसहित मनुष्योंकी रचना की है१।
(१-यहाँ यह समझ लेना चाहिये कि भगवान् की आज्ञासे और उन्हींकी शक्तिसे ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करते हैं। अत: वास्तवमें सृष्टिके मूल रचयिता भगवान् ही हैं (गीता ४। १३; १७। २३)।)
अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग कल्याण करनेवाला है। इसलिये ब्रह्माजीने अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग करनेका विवेक साथ देकर ही मनुष्योंकी रचना की है।
सत्-असत् का विचार करनेमें असमर्थ पशु, पक्षी, वृक्ष आदिके द्वारा स्वाभाविक परोपकार (कर्तव्यपालन) होता है; किन्तु मनुष्यको तो भगवत्कृपासे विशेष विवेक-शक्ति मिली हुई है। अत: यदि वह अपने विवेकको महत्त्व देकर अकर्तव्य न करे तो उसके द्वारा भी स्वाभाविक लोक-हितार्थ कर्म हो सकते हैं।
देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य तथा अन्य पशु, पक्षी, वृक्ष आदि सभी प्राणी ‘प्रजा’ हैं। इनमें भी योग्यता, अधिकार और साधनकी विशेषताके कारण मनुष्यपर अन्य सब प्राणियोंके पालनकी जिम्मेवारी है। अत: यहाँ ‘प्रजा:’ पद विशेषरूपसे मनुष्योंके लिये ही प्रयुक्त हुआ है।
कर्मयोग अनादिकालसे चला आ रहा है। चौथे अध्यायके तीसरे श्लोकमें ‘पुरातन:’ पदसे भी भगवान् कहते हैं कि यह कर्मयोग बहुत कालसे प्राय: लुप्त हो गया था, जिसको मैंने तुम्हें फिरसे कहा है। उसी बातको यहाँ भी ‘पुरा’ पदसे वे दूसरी रीतिसे कहते हैं कि ‘मैंने ही नहीं प्रत्युत ब्रह्माजीने भी सर्गके आदिकालमें कर्तव्यसहित प्रजाको रचकर उनको उसी कर्मयोगका आचरण करनेकी आज्ञा दी थी। तात्पर्य यह है कि कर्मयोग (नि:स्वार्थभावसे कर्तव्य-कर्म करने) की परम्परा अनादिकालसे ही चली आ रही है। यह कोई नयी बात नहीं है।’
चौथे अध्यायमें (चौबीसवेंसे तीसवें श्लोकतक) परमात्मप्राप्तिके जितने साधन बताये गये हैं, वे सभी ‘यज्ञ’ के नामसे कहे गये हैं; जैसे—द्रव्ययज्ञ, तपयज्ञ, योगयज्ञ, प्राणायाम आदि। प्राय: ‘यज्ञ’ शब्दका अर्थ हवनसे सम्बन्ध रखनेवाली क्रियाके लिये ही प्रसिद्ध है; परन्तु गीतामें ‘यज्ञ’ शब्द शास्त्रविधिसे की जानेवाली सम्पूर्ण विहित क्रियाओंका वाचक भी है। अपने वर्ण, आश्रम, धर्म, जाति, स्वभाव, देश, काल आदिके अनुसार प्राप्त कर्तव्य-कर्म ‘यज्ञ’ के अन्तर्गत आते हैं। दूसरेके हितकी भावनासे किये जानेवाले सब कर्म भी ‘यज्ञ’ ही हैं। ऐसे यज्ञ (कर्तव्य) का दायित्व मनुष्यपर ही है।
‘अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्’२— ब्रह्माजी मनुष्योंसे कहते हैं कि तुमलोग अपने-अपने कर्तव्य-पालनके द्वारा सबकी वृद्धि करो, उन्नति करो।
(२-‘इष्ट’ शब्द ‘यज्’ धातुसे कृदन्तका ‘क्त’ प्रत्यय करनेसे बनता है, जो यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) का वाचक है और ‘काम’ शब्द ‘कमु’ धातुसे ‘अण्’ प्रत्यय करनेसे बनता है, जो पदार्थ (सामग्री) का वाचक है।)
ऐसा करनेसे तुमलोगोंको कर्तव्य-कर्म करनेमें उपयोगी सामग्री प्राप्त होती रहे, उसकी कभी कमी न रहे।
अर्जुनकी कर्म न करनेमें जो रुचि थी, उसे दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजीके वचनोंसे भी तुम्हें कर्तव्य-कर्म करनेकी शिक्षा लेनी चाहिये। दूसरोंके हितके लिये कर्तव्य-कर्म करनेसे ही तुम्हारी लौकिक और पारलौकिक उन्नति हो सकती है।
निष्कामभावसे केवल कर्तव्य-पालनके विचारसे कर्म करनेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है और सकामभावसे कर्म करनेपर मनुष्य बन्धनमें पड़ जाता है। प्रस्तुत प्रकरणमें निष्कामभावसे किये जानेवाले कर्तव्य-कर्मका विवेचन चल रहा है। अत: यहाँ ‘इष्टकाम’ पदका अर्थ ‘इच्छित भोग-सामग्री’ (जो सकामभावका सूचक है) लेना उचित प्रतीत नहीं होता। यहाँ इस पदका अर्थ है—यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) करनेकी आवश्यक सामग्री।३
(३-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने कहा कि यज्ञके सिवाय अन्य कर्मोंमें अर्थात् सकामभावसे किये जानेवाले कर्मोंमें लगा हुआ मनुष्य बँध जाता है; और आगे तेरहवें श्लोकमें भी कहा है कि जो अपने लिये अर्थात् सकामभावसे कर्म करते हैं, वे पापीलोग पापका ही भक्षण करते हैं। इस प्रकार पीछेके और आगेके श्लोकोंको देखें तो दोनों ही जगह सकामभावके त्यागकी बात आयी है। अत: बीचके इन (दसवें, ग्यारहवें और बारहवें) श्लोकोंमें भी सकामभावके त्यागकी बात ही आनी उचित है। अगर यहाँ ‘इष्टकाम’ पदका अर्थ ‘इच्छित पदार्थ’ लिया जाय तो (प्रकरण-विरुद्ध होनेके कारण) दोष आता है; क्योंकि इच्छित पदार्थ पानेके लिये किये गये कर्म भगवान् के मतमें बन्धनकारक हैं। अत: ‘इष्टकाम’ पदका अर्थ ‘कर्तव्यके लिये आवश्यक सामग्री’ ही है।)
कर्मयोगी दूसरोंकी सेवा अथवा हित करनेके लिये सदा ही तत्पर रहता है। इसलिये प्रजापति ब्रह्माजीके विधानके अनुसार दूसरोंकी सेवा करनेकी सामग्री, सामर्थ्य और शरीर-निर्वाहकी आवश्यक वस्तुओंकी उसे कभी कमी नहीं रहती। उसको ये उपयोगी वस्तुएँ सुगमतापूर्वक मिलती रहती हैं। ब्रह्माजीके विधानके अनुसार कर्तव्य-कर्म करनेकी सामग्री जिस-जिसको, जो-जो भी मिली हुई है, वह कर्तव्य-पालन करनेके लिये उस-उसको पूरी-की-पूरी प्राप्त है। कर्तव्य-पालनकी सामग्री कभी किसीके पास अधूरी नहीं होती। ब्रह्माजीके विधानमें कभी फर्क नहीं पड़ सकता; क्योंकि जब उन्होंने कर्तव्य-कर्म करनेका विधान निश्चित किया है, तब जितनेसे कर्तव्यका पालन हो सके, उतनी सामग्री देना भी उन्हींपर निर्भर है।
वास्तवमें मनुष्यशरीर भोग भोगनेके लिये है ही नहीं— ‘एहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस ७। ४४। १)। इसीलिये ‘सांसारिक सुखोंको भोगो’— ऐसी आज्ञा या विधान किसी भी सत्-शास्त्रमें नहीं है। समाज भी स्वच्छन्द भोग भोगनेकी आज्ञा नहीं देता। इसके विपरीत दूसरोंको सुख पहुँचानेकी आज्ञा या विधान शास्त्र और समाज दोनों ही देते हैं। जैसे, पिताके लिये यह विधान तो मिलता है कि वह पुत्रका पालन-पोषण करे, पर यह विधान कहीं भी नहीं मिलता कि पुत्रसे पिता सेवा ले ही। इसी प्रकार पुत्र, पत्नी आदि अन्य सम्बन्धोंके लिये भी समझना चाहिये।
कर्मयोगी सदा देनेका ही भाव रखता है, लेनेका नहीं; क्योंकि लेनेका भाव ही बाँधनेवाला है। लेनेका भाव रखनेसे कल्याणप्राप्तिमें बाधा लगनेके साथ ही सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिमें भी बाधा उपस्थित हो जाती है। प्राय: सभीका अनुभव है कि संसारमें लेनेका भाव रखनेवालेको कोई देना नहीं चाहता। इसलिये ब्रह्माजी कहते हैं कि बिना कुछ चाहे, नि:स्वार्थभावसे कर्तव्य-कर्म करनेसे ही मनुष्य अपनी उन्नति (कल्याण) कर सकता है।
‘देवान् भावयतानेन’—यहाँ ‘देव’ शब्द उपलक्षक है; अत: इस पदके अन्तर्गत मनुष्य, देवता, ऋषि, पितर आदि समस्त प्राणियोंको समझना चाहिये। कारण कि कर्मयोगीका उद्देश्य अपने कर्तव्य-कर्मोंसे प्राणिमात्रको सुख पहुँचाना रहता है। इसलिये यहाँ ब्रह्माजी सम्पूर्ण प्राणियोंकी उन्नतिके लिये मनुष्योंको अपने कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञके पालनका आदेश देते हैं। अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेसे मनुष्यका स्वत: कल्याण हो जाता है (गीता अठारहवें अध्यायका पैंतालीसवाँ श्लोक)। कर्तव्य-कर्मका पालन करनेके उपदेशके पूर्ण अधिकारी मनुष्य ही हैं। मनुष्योंको ही कर्म करनेकी स्वतन्त्रता मिली हुई है; अत: उन्हें इस स्वतन्त्रताका सदुपयोग करना चाहिये।
‘ते देवा भावयन्तु व:’—जैसे वृक्ष, लता आदिमें स्वाभाविक ही फूल-फल लगते हैं; परन्तु यदि उन्हें खाद और पानी दिया जाय तो उनमें फूल-फल विशेषतासे लगते हैं। ऐसे ही यजन-पूजनसे देवताओंकी पुष्टि होती है, जिससे देवताओंके काम विशेष न्यायप्रद होते हैं। परन्तु जब मनुष्य अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा देवताओंका यजन-पूजन नहीं करते, तब देवताओंको पुष्टि नहीं मिलती, जिससे उनमें अपने कर्तव्यका पालन करनेमें कमी आ जाती है। उनके कर्तव्य-पालनमें कमी आनेसे ही संसारमें विप्लव अर्थात् अनावृष्टि-अतिवृष्टि आदि होते हैं।
‘परस्परं भावयन्त:’—इन पदोंका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि दूसरा हमारी सेवा करे तो हम उसकी सेवा करें, प्रत्युत यह समझना चाहिये कि दूसरा हमारी सेवा करे या न करे, हमें तो अपने कर्तव्यके द्वारा उसकी सेवा करनी ही है। दूसरा क्या करता है, क्या नहीं करता; हमें सुख देता या दु:ख, इन बातोंसे हमें कोई मतलब नहीं रखना चाहिये; क्योंकि दूसरोंके कर्तव्यको देखनेवाला अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाता है। परिणामस्वरूप उसका पतन हो जाता है। दूसरोंसे कर्तव्यका पालन करवाना अपने अधिकारकी बात भी नहीं है। हमें सबका हित करनेके लिये केवल अपने कर्तव्यका पालन करना है और उसके द्वारा सबको सुख पहुँचाना है। सेवा करनेमें अपनी समझ, सामर्थ्य, समय और सामग्रीको अपने लिये थोड़ी-सी भी बचाकर नहीं रखनी है। तभी जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होगा।
हमारे जितने भी सांसारिक सम्बन्धी—माता-पिता, स्त्री-पुत्र, भाई-भौजाई आदि हैं, उन सबकी हमें सेवा करनी है। अपना सुख लेनेके लिये ये सम्बन्ध नहीं हैं। हमारा जिनसे जैसा सम्बन्ध है, उसीके अनुसार उनकी सेवा करना, मर्यादाके अनुसार उन्हें सुख पहुँचाना हमारा कर्तव्य है। उनसे कोई आशा रखना और उनपर अपना अधिकार मानना बहुत बड़ी भूल है। हम उनके ऋणी हैं और ऋण उतारनेके लिये उनके यहाँ हमारा जन्म हुआ है। अत: नि:स्वार्थभावसे उन सम्बन्धियोंकी सेवा करके हम अपना ऋण चुका दें— यह हमारा सर्वप्रथम आवश्यक कर्तव्य है। सेवा तो हमें सभीकी करनी है; परन्तु जिनकी हमारेपर जिम्मेवारी है, उन सम्बन्धियोंकी सेवा सबसे पहले करनी चाहिये।
शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि अपने नहीं हैं और अपने लिये भी नहीं हैं— यह सिद्धान्त है। अत: अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेसे स्वत: एक-दूसरेकी उन्नति होती है।
कर्तव्य और अधिकार-सम्बन्धी मार्मिक बात
कर्मयोग तभी होता है, जब मनुष्य अपने कर्तव्यके पालनपूर्वक दूसरेके अधिकारकी रक्षा करता है। जैसे, माता-पिताकी सेवा करना पुत्रका कर्तव्य है और माता-पिताका अधिकार है। जो दूसरेका अधिकार होता है, वही हमारा कर्तव्य होता है। अत: प्रत्येक मनुष्यको अपने कर्तव्य-पालनके द्वारा दूसरेके अधिकारकी रक्षा करनी है तथा दूसरेका कर्तव्य नहीं देखना है। दूसरेका कर्तव्य देखनेसे मनुष्य स्वयं कर्तव्यच्युत हो जाता है; क्योंकि दूसरेका कर्तव्य देखना हमारा कर्तव्य नहीं है। तात्पर्य है कि दूसरेका हित करना है—यह हमारा कर्तव्य है और दूसरेका अधिकार है। यद्यपि अधिकार कर्तव्यके ही अधीन है, तथापि मनुष्यको अपना अधिकार देखना ही नहीं है, प्रत्युत अपने अधिकारका त्याग करना है। केवल दूसरेके अधिकारकी रक्षाके लिये अपने कर्तव्यका पालन करना है। दूसरेका कर्तव्य देखना तथा अपना अधिकार जमाना लोक और परलोकमें महान् पतन करनेवाला है। वर्तमान समयमें घरोंमें, समाजमें जो अशान्ति, कलह, संघर्ष देखनेमें आ रहा है, उसमें मूल कारण यही है कि लोग अपने अधिकारकी माँग तो करते हैं, पर अपने कर्तव्यका पालन नहीं करते! इसलिये ब्रह्माजी देवताओं और मनुष्योंको उपदेश देते हैं कि एक-दूसरेका हित करना तुमलोगोंका कर्तव्य है।
‘श्रेय: परमवाप्स्यथ’—प्राय: ऐसी धारणा बनी हुई है कि यहाँ परम कल्याणकी प्राप्तिका कथन अतिशयोक्ति है, पर वास्तवमें ऐसा नहीं है। अगर इसमें किसीको सन्देह हो तो वह ऐसा करके खुद देख सकता है। जैसे धरोहर रखनेवालेकी धरोहर उसे वापस कर देनेसे धरोहर रखने-वालेसे तथा उस धरोहरसे हमारा किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं रहता, ऐसे ही संसारकी वस्तु संसारकी सेवामें लगा देनेसे संसार और संसारकी वस्तुसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं रहता। संसारसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद होते ही चिन्मयताका अनुभव हो जाता है। अत: प्रजापति ब्रह्माजीके वचनोंमें अतिशयोक्तिकी कल्पना करना अनुचित है।
यह सिद्धान्त है कि जबतक मनुष्य अपने लिये कर्म करता है, तबतक उसके कर्मकी समाप्ति नहीं होती और वह कर्मोंसे बँधता ही जाता है। कृतकृत्य वही होता है, जो अपने लिये कभी कुछ नहीं करता। अपने लिये कुछ भी नहीं करनेसे पापका आचरण भी नहीं होता; क्योंकि पापका आचरण कामनाके कारण ही होता है (तीसरे अध्यायका सैंतीसवाँ श्लोक)। अत: अपना कल्याण चाहनेवाले साधकको चाहिये कि वह शास्त्रोंकी आज्ञाके अनुसार फलकी इच्छा और आसक्तिका त्याग करके कर्तव्य-कर्म करनेमें तत्पर हो जाय, फिर कल्याण तो स्वत:सिद्ध है।
अपनी कामनाका त्याग करनेसे संसारमात्रका हित होता है। जो अपनी कामना-पूर्तिके लिये आसक्तिपूर्वक भोग भोगता है, वह स्वयं तो अपनी हिंसा (पतन) करता ही है, साथ ही जिनके पास भोग-सामग्रीका अभाव है, उनकी भी हिंसा करता है अर्थात् दु:ख देता है। कारण कि भोग-सामग्रीवाले मनुष्यको देखकर अभावग्रस्त मनुष्यको उस भोग-सामग्रीके अभावका दु:ख होना स्वाभाविक है। इस प्रकार स्वयं सुख भोगनेवाला व्यक्ति हिंसासे कभी बच नहीं सकता। ठीक इसके विपरीत पारमार्थिक मार्गपर चलनेवाले व्यक्तिको देखकर दूसरोंको स्वत: शान्ति मिलती है; क्योंकि पारमार्थिक सम्पत्तिपर सबका समान अधिकार है। निष्कर्ष यह निकला कि मनुष्य कामना-आसक्तिका त्याग करके अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करता रहे तो ब्रह्माजीके कथनानुसार वह परम कल्याणको अवश्य ही प्राप्त हो जायगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है।
यहाँ परम कल्याणकी प्राप्ति मुख्यतासे मनुष्योंके लिये ही बतायी गयी है, देवताओंके लिये नहीं। कारण कि देवयोनि अपना कल्याण करनेके लिये नहीं बनायी गयी है। मनुष्य जो कर्म करता है, उन कर्मोंके अनुसार फल देने, कर्म करनेकी सामग्री देने तथा अपने-अपने शुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये देवता बनाये गये हैं। वे निष्कामभावसे कर्म करनेकी सामग्री देते हों, ऐसी बात नहीं है। परन्तु उन देवताओंमें भी अगर किसीमें अपने कल्याणकी इच्छा हो जाय, तो उसका कल्याण होनेमें मना नहीं है अर्थात् अगर कोई अपना कल्याण करना चाहे, तो कर सकता है। जब पापी-से-पापी मनुष्यके लिये भी अपना उद्धार करनेकी मनाही नहीं है, तो फिर देवताओंके लिये (जो कि पुण्ययोनि है) अपना उद्धार करनेकी मनाही कैसे हो सकती है? ऐसा होनेपर भी देवताओंका उद्देश्य भोग भोगनेका ही रहता है, इसलिये उनमें प्राय: अपने कल्याणकी इच्छा नहीं होती।
परिशिष्ट भाव—मनुष्य कर्मयोनि है और चौरासी लाख योनियाँ, देवता, नारकीय जीव आदि भोगयोनियाँ हैं। सकामभाववाले मनुष्य भोगोंको भोगनेके लिये ही स्वर्गमें जाते हैं। अत: देवतालोग निष्कामभाव न रखकर अपनी जिम्मेवारीका पालन करते हैं, डॺूटी बजाते हैं। इसलिये यहाँ कल्याणकी बात मनुष्योंके लिये ही समझनी चाहिये।
मुक्ति स्वाभाविक है और बन्धन अस्वाभाविक है। मनुष्ययोनि अपना कल्याण करनेके लिये ही है। इसलिये जो मनुष्य अपने कर्तव्यका पालन करता है, उसका कल्याण स्वाभाविक होता है—‘परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ’। कल्याणके लिये नया काम करनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत जो काम करते हैं, उसीको स्वार्थ, अभिमान और फलेच्छाका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये करें तो कल्याण हो जायगा। निष्कामभावके बिना भी केवल अपने कर्तव्यका पालन करनेसे स्वर्गादि पुण्यलोकोंकी प्राप्ति हो जाती है। जिस स्वर्गकी प्राप्ति बड़े-बड़े यज्ञ करनेसे होती है, उसीकी प्राप्ति क्षत्रिय केवल अपना कर्तव्यकर्म—युद्ध करके प्राप्त कर सकता है।
जैसे ब्रह्माजीने देवताओं और मनुष्योंके लिये परस्पर एक-दूसरेका हित करनेकी बात कही है, ऐसे ही चारों वर्णोंके लिये भी परस्पर एक-दूसरेका हित करनेकी बात समझनी चाहिये। चारों वर्ण परस्पर एक-दूसरेके हितके लिये अपना-अपना कर्तव्यकर्म करें तो वे परम कल्याणको प्राप्त हो जायँगे।
सम्पूर्ण सृष्टिकी रचना ही इस ढंगसे हुई है कि अपने लिये कुछ (वस्तु और क्रिया) नहीं है, दूसरेके लिये ही है—‘इदं ब्रह्मणे न मम’। जैसे पतिव्रता स्त्री पतिके लिये ही होती है, अपने लिये नहीं। स्त्रीके अंग पुरुषको सुख देते हैं, पर स्त्रीको सुख नहीं देते। पुरुषके अंग स्त्रीको सुख देते हैं, पर पुरुषको सुख नहीं देते। माँका दूध बच्चेके लिये ही होता है, अपने लिये नहीं और बच्चेकी चेष्टाएँ माँको सुख देती हैं, बच्चेको नहीं। माता-पिता सन्तानके लिये होते हैं और सन्तान माता-पिताके लिये होती है। श्रोता वक्ताके लिये होता है और वक्ता श्रोताके लिये होता है। तात्पर्य है कि खुद सुख न ले, प्रत्युत दूसरेको सुख दे। सृष्टिकी रचना भोगके लिये नहीं है, प्रत्युत उद्धारके लिये है।
देवता भी स्वार्थका त्याग करके दूसरेका हित कर सकते हैं। इसलिये देवताओंमें भी नारद-जैसे ऋषि हुए हैं। यद्यपि भगवान् की ओरसे किसीको मना नहीं है, तथापि कल्याणका मुख्य एवं स्वत: अधिकारी मनुष्य ही है।
एक शंका हो सकती है कि हम तो दूसरेका भला करें, पर दूसरा हमारा भला न करके बुरा करे तो ‘परस्परं भावयन्त:’ कैसे होगा? इसका समाधान है कि हम दूसरेका भला करेंगे तो दूसरा हमारा बुरा कर सकेगा ही नहीं। उसमें हमारा बुरा करनेकी सामर्थ्य ही नहीं रहेगी। अगर वह बुरा करेगा भी तो पीछे पछतायेगा, रोयेगा। अगर वह हमारा बुरा करेगा तो हमारा भला करनेवाले, हमारे साथ सहानुभूति रखनेवाले कई पैदा हो जायँगे। वास्तवमें किसीका बुरा करनेका विधान कहीं नहीं आता। मनुष्य ही द्वेषके कारण दूसरेका बुरा करता है। ‘परस्परं भावयन्त:’—यह मनुष्यताकी बात है। इसके न होनेसे ही मनुष्य दु:ख पा रहे हैं।