न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्
यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥ २-८॥
न, हि, प्रपश्यामि, मम, अपनुद्यात्,
यत्, शोकम्, उच्छोषणम्, इन्द्रियाणाम्,
अवाप्य, भूमौ, असपत्नम्, ऋद्धम्,
राज्यम्, सुराणाम्, अपि, च, आधिपत्यम्॥ ८॥
हि = क्योंकि, भूमौ = भूमिमें, असपत्नम् = निष्कण्टक, ऋद्धम् = धनधान्य-सम्पन्न, राज्यम् = राज्यको, च = और, सुराणाम् = देवताओंके, आधिपत्यम् = स्वामीपनेको, अवाप्य = प्राप्त होकर, अपि = भी (मैं), तत् = उस (उपाय)को, न = नहीं, प्रपश्यामि = देखता हूँ, यत् = जो, मम = मेरी, इन्द्रियाणाम् = इन्द्रियोंके, उच्छोषणम् = सुखानेवाले, शोकम् = शोकको, अपनुद्यात् = दूर कर सके।
‘मैं पृथ्वी पर किसी प्रकार का समृद्ध राज्य, या स्वर्ग के निवासियों पर कोई आधिपत्य नहीं जानता जो उस शोक को हटा सके जिसने मेरी इन्द्रियों को सुखा दिया है’।
व्याख्या—[अर्जुन सोचते हैं कि भगवान् ऐसा समझते होंगे कि अर्जुन युद्ध करेगा तो उसकी विजय होगी और विजय होनेपर उसको राज्य मिल जायगा, जिससे उसके चिन्ता-शोक मिट जायँगे और संतोष हो जायगा। परन्तु शोकके कारण मेरी ऐसी दशा हो गयी है कि विजय होनेपर भी मेरा शोक दूर हो जाय—ऐसी बात मैं नहीं देखता।]
‘अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यम्’—अगर मेरेको धन-धान्यसे सम्पन्न और निष्कण्टक राज्य मिल जाय अर्थात् जिस राज्यमें प्रजा खूब सुखी हो, प्रजाके पास खूब धन-धान्य हो, किसी चीजकी कमी न हो और राज्यमें कोई वैरी भी न हो—ऐसा राज्य मिल जाय, तो भी मेरा शोक दूर नहीं हो सकता।
‘सुराणामपि चाधिपत्यम्’—इस पृथ्वीके तुच्छ भोगोंवाले राज्यकी तो बात ही क्या, इन्द्रका दिव्य भोगोंवाला राज्य भी मिल जाय, तो भी मेरा शोक, जलन, चिन्ता दूर नहीं हो सकती।
अर्जुनने पहले अध्यायमें यह बात कही थी कि मैं न विजय चाहता हूँ, न राज्य चाहता हूँ और न सुख ही चाहता हूँ; क्योंकि उस राज्यसे क्या होगा? उन भोगोंसे क्या होगा? और उस जीनेसे क्या होगा? जिनके लिये हम राज्य, भोग एवं सुख चाहते हैं, वे ही मरनेके लिये सामने खड़े हैं (पहले अध्यायका बत्तीसवाँ-तैंतीसवाँ श्लोक)। यहाँ अर्जुन कहते हैं कि पृथ्वीका धन-धान्य-सम्पन्न और निष्कण्टक राज्य मिल जाय तथा देवताओंका आधिपत्य मिल जाय, तो भी मेरा शोक दूर नहीं हो सकता, मैं उनसे सुखी नहीं हो सकता। वहाँ (पहले अध्यायके बत्तीसवें-तैंतीसवें श्लोकमें) तो कौटुम्बिक ममताकी वृत्ति ज्यादा होनेसे अर्जुनकी युद्धसे उपरति हुई है, पर यहाँ उनकी जो उपरति हो रही है, वह अपने कल्याणकी वृत्ति पैदा होनेसे हो रही है। अत: वहाँकी उपरति और यहाँकी उपरतिमें बहुत अन्तर है।
‘न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्’—जब कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे ही मेरेको इतना शोक हो रहा है, तब उनके मरनेपर मेरेको कितना शोक होगा! अगर मेरेको राज्यके लिये ही शोक होता तो वह राज्यके मिलनेसे मिट जाता; परन्तु कुटुम्बके नाशकी आशंकासे होनेवाला शोक राज्यके मिलनेसे कैसे मिटेगा? शोकका मिटना तो दूर रहा, प्रत्युत शोक और बढ़ेगा; क्योंकि युद्धमें सब मारे जायँगे तो मिले हुए राज्यको कौन भोगेगा? वह किसके काम आयेगा? अत: पृथ्वीका राज्य और स्वर्गका आधिपत्य मिलनेपर भी इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा शोक दूर नहीं हो सकता।
सम्बन्ध—प्राकृत पदार्थोंके प्राप्त होनेपर भी मेरा शोक दूर हो जाय, यह मैं नहीं देखता हूँ—ऐसा कहनेके बाद अर्जुनने क्या किया? इसका वर्णन संजय आगेके श्लोकमें करते हैं।