इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥67॥
इन्द्रियाणाम्, हि,चरताम्,यत्, मन:, अनु, विधीयते,
तत्, अस्य, हरति, प्रज्ञाम्, वायु:, नावम्, इव, अम्भसि॥ ६७॥
हि = क्योंकि, इव = जैसे, अम्भसि = जलमें,(चलनेवाली), नावम् = नावको, वायु: = वायु, हरति = हर लेती है, (वैसे ही), चरताम् = विषयोंमें विचरती हुई, इन्द्रियाणाम् = इन्द्रियोंमेंसे, मन: = मन, यत् = जिस (इन्द्रियके) अनु = साथ, विधीयते = रहता है, तत् = वह (एक ही इन्द्रिय), अस्य = इस (अयुक्त पुरुष) की, प्रज्ञाम् = बुद्धिको (हर लेती है)।
‘क्योंकि वह मन, जो भटकती हुई इन्द्रियों के पीछे-पीछे दौड़ता फिरता है, वह उसका विवेक हर लेता है, जैसे कि पवन समुद्र में जलयान को अपनी दिशा से भटका देती है’।
व्याख्या—[मनुष्यको यह जन्म केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है। अत: मुझे तो केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है, चाहे जो हो जाय— ऐसा अपना ध्येय दृढ़ होना चाहिये। ध्येय दृढ़ होनेसे साधककी अहंतामेंसे भोगोंका महत्त्व हट जाता है। महत्त्व हट जानेसे व्यवसायात्मिका बुद्धि दृढ़ हो जाती है। परन्तु जबतक व्यवसायात्मिका बुद्धि दृढ़ नहीं होती, तबतक उसकी क्या दशा होती है—इसका वर्णन यहाँ कर रहे हैं।]
‘इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते’*—जब साधक कार्यक्षेत्रमें सब तरहका व्यवहार करता है, तब इन्द्रियोंके सामने अपने-अपने विषय आ ही जाते हैं।
(* इस श्लोकके पूर्वार्धमें कर्मकर्तृ-प्रयोग करनेके पहले कर्तृवाच्य था अर्थात् ‘चरताम् इन्द्रियाणाम् इन्द्रियम् यत् मन: अनुविदधाति’ ऐसा वाक्य था। इस वाक्यमें इन्द्रिय कर्ता थी और मन कर्म था। परन्तु जब वाक्यको सरल बनानेके लिये ‘कमर्कर्तृ’ का प्रयोग किया जाता है अर्थात् कर्मको कर्ता बनाया जाता है, तब वहाँ उस कर्ताको कर्मवद्भाव किया जाता है। इससे कर्मको लेकर जो कार्य होते हैं, वे सभी कार्य कर्ताको लेकर हो जाते हैं। यहाँ मनकी मुख्यता दिखानेके लिये अर्थात् इन्द्रियोंके बिना मन ही सब कुछ करता है—यह दिखानेके लिये कर्मरूप मनको कर्ता बना दिया गया है। मन प्रथम पुरुष होनेसे प्रथम पुरुष ‘अनुविधीयते’ क्रियाका प्रयोग हुआ है। अब जो कर्तृवाच्यका कर्ता इन्द्रिय थी, उसकी आवश्यकता न होनेसे वह कर्ता हट गया, तो पूरा वाक्य बना—‘इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते’ जो कि उपर्युक्त श्लोकमें है। इस कर्मकर्तृका प्रयोग करनेका तात्पर्य यह हुआ कि इन्द्रियाँ जिन विषयोंमें विचरती हैं, उन विषयोंमेंसे मन जिस किसी विषयमें खिंच जाता है, रस लेने लग जाता है, वह अकेला मन ही बुद्धिको हर लेता है अर्थात् मनमें विषयभोगकी प्रधानता हो जाती है।)
उनमेंसे जिस इन्द्रियका अपने विषयमें राग हो जाता है, वह इन्द्रिय मनको अपना अनुगामी बना लेती है, मनको अपने साथ कर लेती है। अत: मन उस विषयका सुखभोग करने लग जाता है अर्थात् मनमें सुखबुद्धि, भोगबुद्धि पैदा हो जाती है; मनमें उस विषयका रंग चढ़ जाता है, उसका महत्त्व बैठ जाता है। जैसे, भोजन करते समय किसी पदार्थका स्वाद आता है तो रसनेन्द्रिय उसमें आसक्त हो जाती है। आसक्त होनेपर रसनेन्द्रिय मनको भी खींच लेती है, तो मन उस स्वादमें प्रसन्न हो जाता है, राजी हो जाता है।
‘तदस्य हरति प्रज्ञाम्’—जब मनमें विषयका महत्त्व बैठ जाता है, तब वह अकेला मन ही साधककी बुद्धिको हर लेता है अर्थात् साधकमें कर्तव्य-परायणता न रहकर भोगबुद्धि पैदा हो जाती है। वह भोगबुद्धि होनेसे साधकमें ‘मुझे परमात्माकी ही प्राप्ति करनी है’—यह व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं रहती। इस तरहका विवेचन करनेमें तो देरी लगती है, पर बुद्धि विचलित होनेमें देरी नहीं लगती अर्थात् जहाँ इन्द्रियने मनको अपना अनुगामी बनाया कि मनमें भोगबुद्धि पैदा हो जाती है और उसी समय बुद्धि मारी जाती है।
‘वायुर्नावमिवाम्भसि’—वह बुद्धि किस तरह हर ली जाती है—इसको दृष्टान्तरूपसे समझाते हैं कि जलमें चलती हुई नौकाको वायु जैसे हर लेती है, ऐसे ही मन बुद्धिको हर लेता है। जैसे, कोई मनुष्य नौकाके द्वारा नदी या समुद्रको पार करते हुए अपने गन्तव्य स्थानको जा रहा है। यदि उस समय नौकाके विपरीत वायु चलती है तो वह वायु उस नौकाको गन्तव्य स्थानसे विपरीत ले जाती है। ऐसे ही साधक व्यवसायात्मिका बुद्धिरूप नौकापर आरूढ़ होकर संसार-सागरको पार करता हुआ परमात्माकी तरफ चलता है, तो एक इन्द्रिय जिस मनको अपना अनुगामी बनाती है, वह अकेला मन ही बुद्धिरूप नौकाको हर लेता है अर्थात् उसे संसारकी तरफ ले जाता है। इससे साधककी विषयोंमें सुखबुद्धि और उनके उपयोगी पदार्थोंमें महत्त्वबुद्धि हो जाती है।
वायु नौकाको दो तरहसे विचलित करती है—नौकाको पथभ्रष्ट कर देती है अथवा जलमें डुबा देती है। परन्तु कोई चतुर नाविक होता है तो वह वायुकी क्रियाको अपने अनुकूल बना लेता है, जिससे वायु नौकाको अपने मार्गसे अलग नहीं ले जा सकती, प्रत्युत उसको गन्तव्य स्थानतक पहुँचानेमें सहायता करती है—ऐसे ही इन्द्रियोंके अनुगामी हुआ मन बुद्धिको दो तरहसे विचलित करता है—परमात्मप्राप्तिके निश्चयको दबाकर भोगबुद्धि पैदा कर देता है अथवा निषिद्ध भोगोंमें लगाकर पतन करा देता है। परन्तु जिसका मन और इन्द्रियाँ वशमें होती हैं, उसकी बुद्धिको मन विचलित नहीं करता, प्रत्युत परमात्माके पास पहुँचानेमें सहायता करता है (दूसरे अध्यायका चौंसठवाँ-पैंसठवाँ श्लोक)।
परिशिष्ट भाव—यहाँ शंका हो सकती है कि प्रस्तुत श्लोकमें आये ‘यत्’ और ‘तत्’ पदोंसे इन्द्रियोंको न लेकर मनको क्यों लिया गया है अर्थात् इन्द्रियको बुद्धिका हरण करनेवाली न बताकर मनको बुद्धिका हरण करनेवाला क्यों बताया गया है? इसका समाधान है कि इसी अध्यायके साठवें श्लोकमें इन्द्रियोंको मनका हरण करनेवाली बताया है और तीसरे अध्यायके बयालीसवें श्लोकमें इन्द्रियोंसे मनको और मनसे बुद्धिको पर (सूक्ष्म, श्रेष्ठ, बलवान्) बताया है। इससे सिद्ध होता है कि इन्द्रियाँ मनका हरण करती हैं और मन बुद्धिका हरण करता है। दूसरी बात, बुद्धिको हरनेके विषयमें मन ही मुख्य है, इन्द्रियाँ नहीं। कारण कि जबतक किसी इन्द्रियके साथ मन नहीं रहता, तबतक उस इन्द्रियको अपने विषयका भी ज्ञान नहीं होता—‘अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते’ (गीता १५। ९)। श्रीमद्भागवतमें दत्तात्रेयजी महाराज कहते हैं—
तदैवमात्मन्यवरुद्धचित्तो
न वेद किञ्चिद् बहिरन्तरं वा।
यथेषुकारो नृपतिं व्रजन्त-
मिषौ गतात्मा न ददर्श पार्श्वे॥
(श्रीमद्भा० ११। ९। १३)
‘जिसका चित्त आत्मामें ही निरुद्ध हो जाता है, उसको बाहर-भीतर कहीं किसी पदार्थका भान नहीं होता। मैंने देखा था कि एक बाण बनानेवाला कारीगर बाण बनानेमें इतना तन्मय हो रहा था कि उसके पाससे ही दलबलके साथ राजाकी सवारी निकल गयी और उसको पतातक न चला।’
बाण बनानेवालेकी कर्णेन्द्रिय भी थी और उसका विषय शब्द भी था, पर मन उस तरफ न रहनेसे वह सुनायी नहीं दिया। तात्पर्य है कि मन साथ रहनेसे ही इन्द्रियको अपने विषयका ज्ञान होता है। जब मन साथ न रहनेसे इन्द्रियको अपने विषयका भी ज्ञान नहीं होता, फिर वह इन्द्रिय बुद्धिको कैसे हर सकती है? नहीं हर सकती।
सम्बन्ध—अयुक्त पुरुषकी निश्चयात्मिका बुद्धि क्यों नहीं होती, इसका हेतु तो पूर्वश्लोकमें बता दिया। अब जो युक्त होता है, उसकी स्थितिका वर्णन करनेके लिये आगेका श्लोक कहते हैं।