नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥66॥
न, अस्ति, बुद्धि:, अयुक्तस्य, न, च, अयुक्तस्य, भावना,
न, च, अभावयत:, शान्ति:, अशान्तस्य, कुत:, सुखम्॥ ६६॥
अयुक्तस्य = न जीते हुए मन और इन्द्रियोंवाले पुरुषमें, बुद्धि: =(निश्चयात्मिका)बुद्धि, न = नहीं, अस्ति = होती, च = और (उस),अयुक्तस्य = अयुक्त मनुष्यके (अन्त:करणमें), भावना = भावना (भी), न = नहीं (होती), च = तथा, अभावयत: = भावनाहीन मनुष्यको, शान्ति: = शान्ति, न = नहीं (मिलती)(और), अशान्तस्य = शान्तिरहित मनुष्यको, सुखम् = सुख, कुत: = कैसे (मिल सकता है)।
‘अस्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति को ‘स्व’ का कोई ज्ञान नहीं हो सकता। न ही वह ध्यान कर सकता है; ध्यान न करने वाले को कोई शान्ति नहीं हो सकती, और जिसे शान्ति नहीं है वह कैसे सुखी हो सकता है।
व्याख्या—[यहाँ कर्मयोगका विषय है। कर्मयोगमें मन और इन्द्रियोंका संयम करना मुख्य होता है। विवेकपूर्वक संयम किये बिना कामना नष्ट नहीं होती। कामनाके नष्ट हुए बिना बुद्धिकी स्थिरता नहीं होती। अत: कर्मयोगी साधकको पहले मन और इन्द्रियोंका संयम करना चाहिये। परन्तु जिसका मन और इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, उसकी बात इस श्लोकमें कहते हैं।]
‘नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य’—जिसका मन और इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे अयुक्त (असंयमी) पुरुषकी ‘मेरेको केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है—ऐसी एक निश्चयवाली बुद्धि नहीं होती*।
* अहंता (‘मैं’-पन) का परिवर्तन हुए बिना इन्द्रियाँ वशमें नहीं होतीं और इन्द्रियोंको वशमें किये बिना एक निश्चयवाली बुद्धि नहीं होती। यदि अहंताका परिवर्तन हो जाय कि ‘मैं साधक हूँ और साधन करना ही मेरा काम है’ तो मन-इन्द्रियाँ अपने-आप वशमें हो जाती हैं, उनको वशमें करना नहीं पड़ता।
कारण कि मन और इन्द्रियाँ संयमित न होनेसे वह उत्पत्ति-विनाशशील सांसारिक भोगों और संग्रहमें ही लगा रहता है। वह कभी मान चाहता है, कभी सुख-आराम चाहता है, कभी धन चाहता है, कभी भोग चाहता है—इस प्रकार उसके भीतर अनेक तरहकी कामनाएँ होती रहती हैं। इसलिये उसकी बुद्धि एक निश्चयवाली नहीं होती।
‘न चायुक्तस्य भावना’—जिसकी बुद्धि व्यवसायात्मिका नहीं होती, उसकी ‘मेरेको तो केवल अपने कर्तव्यका पालन करना है और फलकी इच्छा, कामना, आसक्ति आदिका त्याग करना है’—ऐसी भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होनेमें कारण है—अपना ध्येय स्थिर न होना।
‘न चाभावयत: शान्ति:’—जो अपने कर्तव्यके परायण नहीं रहता, उसको शान्ति नहीं मिल सकती। जैसे साधु, शिक्षक, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि यदि अपने-अपने कर्तव्यमें तत्पर नहीं रहते, तो उनको शान्ति नहीं मिलती। कारण कि अपने कर्तव्यके पालनमें दृढ़ता न रहनेसे ही अशान्ति पैदा होती है।
‘अशान्तस्य कुत: सुखम्’—जो अशान्त है, वह सुखी कैसे हो सकता है? कारण कि उसके हृदयमें हरदम हलचल होती रहती है। बाहरसे उसको कितने ही अनुकूल भोग आदि मिल जायँ तो भी उसके हृदयकी हलचल नहीं मिट सकती अर्थात् वह सुखी नहीं हो सकता।
सम्बन्ध—अयुक्त पुरुषकी बुद्धि एक निश्चयवाली क्यों नहीं होती—इसका कारण आगेके श्लोकमें बताते हैं।