रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥
रागद्वेषवियुक्तै:, तु, विषयान्, इन्द्रियै:, चरन्,
आत्मवश्यै:, विधेयात्मा, प्रसादम्, अधिगच्छति॥ ६४॥
तु = परंतु, विधेयात्मा = अपने अधीन किये हुए अन्त:करणवाला साधक आत्मवश्यै: = अपने वशमें की हुई, रागद्वेषवियुक्तै: = राग-द्वेषसे रहित, इन्द्रियै: = इन्द्रियोंद्वारा, विषयान् = विषयोंमें, चरन् = विचरण करता हुआ (अन्त:करणकी), प्रसादम् = प्रसन्नताको, अधिगच्छति = प्राप्त होता है।
‘किन्तु, इन्द्रिय विषयों के बीच रहता हुआ, अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हुए, और आकर्षण-विकर्षणों से मुक्त होकर आत्म नियंत्रित व्यक्ति शान्ति को प्राप्त होता है’।
(Verse 64 & 65)व्याख्या—‘तु’—पूर्वश्लोकमें भगवान् ने कहा कि आसक्ति रहते हुए विषयोंका चिन्तन करनेमात्रसे पतन हो जाता है और यहाँ कहते हैं कि आसक्ति न रहनेपर विषयोंका सेवन करनेसे उत्थान हो जाता है। वहाँ तो बुद्धिका नाश बताया और यहाँ बुद्धिका परमात्मामें स्थित होना बताया। इस प्रकार पहले कहे गये विषयसे यहाँके विषयका अन्तर बतानेके लिये यहाँ ‘तु’ पद आया है।
‘विधेयात्मा’—साधकका अन्त:करण अपने वशमें रहना चाहिये। अन्त:करणको वशीभूत किये बिना कर्मयोगकी सिद्धि नहीं होती, प्रत्युत कर्म करते हुए विषयोंमें राग होनेकी और पतन होनेकी सम्भावना रहती है। वास्तवमें देखा जाय तो अन्त:करणको अपने वशमें रखना हरेक साधकके लिये आवश्यक है। कर्मयोगीके लिये तो इसकी विशेष आवश्यकता है।
‘आत्मवश्यै: रागद्वेषवियुक्तै: इन्द्रियै:’—जैसे ‘विधेयात्मा’ पद अन्त:करणको वशमें करनेके अर्थमें आया है, ऐसे ही ‘आत्मवश्यै:’ पद इन्द्रियोंको वशमें करनेके अर्थमें आया है। तात्पर्य है कि व्यवहार करते समय इन्द्रियाँ अपने वशीभूत होनी चाहिये और इन्द्रियाँ वशीभूत होनेके लिये इन्द्रियोंका राग-द्वेषरहित होना जरूरी है। अत: इन्द्रियोंसे किसी विषयका ग्रहण रागपूर्वक न हो और किसी विषयका त्याग द्वेषपूर्वक न हो। कारण कि विषयोंके ग्रहण और त्यागका इतना महत्त्व नहीं है, जितना महत्त्व इन्द्रियोंमें राग और द्वेष न होने देनेका है। इसीलिये तीसरे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान् ने साधकके लिये सावधानी बतायी है कि ‘प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष रहते हैं। साधक इनके वशीभूत न हो; क्योंकि ये दोनों ही साधकके शत्रु हैं।’ पाँचवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान् ने कहा है कि ‘जो साधक राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित हो जाता है, वह सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है।’
‘विषयान् चरन्’—जिसका अन्त:करण अपने वशमें है और जिसकी इन्द्रियाँ राग-द्वेषसे रहित तथा अपने वशमें की हुई हैं, ऐसा साधक इन्द्रियोंसे विषयोंका सेवन अर्थात् सब प्रकारका व्यवहार तो करता है, पर विषयोंका भोग नहीं करता। भोगबुद्धिसे किया हुआ विषय-सेवन ही पतनका कारण होता है। इस भोगबुद्धिका निषेध करनेके लिये ही यहाँ ‘विधेयात्मा’, ‘आत्मवश्यै:’ आदि पद आये हैं।
‘प्रसादमधिगच्छति’—राग-द्वेषरहित होकर विषयों-का सेवन करनेसे साधक अन्त:करणकी प्रसन्नता(स्वच्छता)को प्राप्त होता है। यह प्रसन्नता मानसिक तप है (गीता—सत्रहवें अध्यायका सोलहवाँ श्लोक), जो शारीरिक और वाचिक तपसे ऊँचा है। अत: साधकको न तो रागपूर्वक विषयोंका सेवन करना चाहिये और न द्वेषपूर्वक विषयोंका त्याग करना चाहिये; क्योंकि राग और द्वेष—इन दोनोंसे ही संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ता है।
राग-द्वेषसे रहित इन्द्रियोंसे विषयोंका सेवन करनेसे जो प्रसन्नता होती है, उसका अगर संग न किया जाय, भोग न किया जाय, तो वह प्रसन्नता परमात्माकी प्राप्ति करा देती है।
‘प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते’—चित्तकी प्रसन्नता (स्वच्छता) प्राप्त होनेपर सम्पूर्ण दु:खोंका नाश हो जाता है अर्थात् कोई भी दु:ख नहीं रहता। कारण कि राग होनेसे ही चित्तमें खिन्नता होती है। खिन्नता होते ही कामना पैदा हो जाती है और कामनासे ही सब दु:ख पैदा होते हैं। परन्तु जब राग मिट जाता है, तब चित्तमें प्रसन्नता होती है। उस प्रसन्नतासे सम्पूर्ण दु:ख मिट जाते हैं।
जितने भी दु:ख हैं, वे सब-के-सब प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीर-संसारके सम्बन्धसे ही होते हैं और शरीर-संसारसे सम्बन्ध होता है सुखकी लिप्सासे। सुखकी लिप्सा होती है खिन्नतासे। परन्तु जब प्रसन्नता होती है, तब खिन्नता मिट जाती है। खिन्नता मिटनेपर सुखकी लिप्सा नहीं रहती। सुखकी लिप्सा न रहनेसे शरीर-संसारके साथ सम्बन्ध नहीं रहता और सम्बन्ध न रहनेसे सम्पूर्ण दु:खोंका अभाव हो जाता है—‘सर्वदु:खानां हानि:।’ तात्पर्य है कि प्रसन्नतासे दो बातें होती हैं—संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और परमात्मामें बुद्धिकी स्थिरता। यही बात भगवान् ने पहले तिरपनवें श्लोकमें ‘निश्चला’ और ‘अचला’ पदोंसे कही है कि उसकी बुद्धि संसारमें निश्चल और परमात्मामें अचल हो जाती है।
यहाँ ‘सर्वदु:खानां हानि:’ का तात्पर्य यह नहीं है कि उसके सामने दु:खदायी परिस्थिति आयेगी ही नहीं, प्रत्युत इसका तात्पर्य यह है कि कर्मोंके अनुसार उसके सामने दु:खदायी घटना, परिस्थिति आ सकती है; परन्तु उसके अन्त:करणमें दु:ख, सन्ताप, हलचल आदि विकृति नहीं हो सकती।
‘प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते’—प्रसन्न (स्वच्छ) चित्तवालेकी बुद्धि बहुत जल्दी परमात्मामें स्थिर हो जाती है अर्थात् साधक स्वयं परमात्मामें स्थिर हो जाता है, उसकी बुद्धिमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता।
मार्मिक बात
भगवद्विषयक प्रसन्नता हो अथवा व्याकुलता हो—इन दोनोंमेंसे कोई एक भी अगर अधिक बढ़ जाती है, तो वह शीघ्र ही परमात्माकी प्राप्ति करा देती है। जैसे, भगवान् के पास जाती हुई गोपियोंको माता-पिता, भाई, पति आदिने रोक दिया, मकानमें बंद कर दिया, तो उन गोपियोंमें भगवान् से मिलनेकी जो व्याकुलता हुई, उससे उनके रजोगुण-तमोगुण नष्ट हो गये और भगवान् का चिन्तन करनेसे जो प्रसन्नता हुई, उससे उनका सत्त्वगुण नष्ट हो गया। इस प्रकार गुणसंगसे रहित होकर वे शरीरको वहीं छोड़कर सबसे पहले भगवान् से जा मिलीं*।
* अन्तर्गृहगता:काश्चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमा:।
कृष्णं तद्भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचना:॥
दु:सहप्रेष्ठविरहतीव्रतापधुताशुभा:।
ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्वृत्या क्षीणमङ्गला:॥
तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि सङ्गता:।
जहुर्गुणमयं देहं सद्य: प्रक्षीणबन्धना:॥
(श्रीमद्भा० १०। २९। ९—११)
(—इन श्लोकोंकी विस्तृत व्याख्याके लिये गीताप्रेससे प्रकाशित ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकके अन्तर्गत ‘अलौकिक प्रेम’ लेख पढ़ना चाहिये।)
परन्तु सांसारिक विषयोंको लेकर जो प्रसन्नता और खिन्नता होती है, उन दोनोंमें ही भोगोंके संस्कार दृढ़ होते हैं अर्थात् संसारका बन्धन दृढ़ होता है। इसके उदाहरण संसारमात्रके सामान्य प्राणी हैं, जो प्रसन्नता और खिन्नताको लेकर संसारमें फँसे हुए हैं।
प्रसन्नता और व्याकुलता (खिन्नता) में अन्त:करण द्रवित हो जाता है। जैसे द्रवित मोममें रंग डालनेसे मोममें वह रंग स्थायी हो जाता है, ऐसे ही अन्त:करण द्रवित होनेपर उसमें भगवत्सम्बन्धी अथवा सांसारिक—जो भी भाव आते हैं, वे स्थायी हो जाते हैं। स्थायी होनेपर वे भाव उत्थान अथवा पतन करनेवाले हो जाते हैं। अत: साधकके लिये उचित है कि संसारकी प्रिय-से-प्रिय वस्तु मिलनेपर भी प्रसन्न न हो और अप्रिय-से-अप्रिय वस्तु मिलनेपर भी उद्विग्न न हो।
परिशिष्ट भाव—एक विभाग भोगका है और एक विभाग योगका है। राग-द्वेषसे युक्त ‘भोगी’ मनुष्य अगर विषयोंका चिन्तन भी करे तो उसका पतन हो जाता है (गीता—दूसरे अध्यायका बासठवाँ-तिरसठवाँ श्लोक)। परन्तु राग-द्वेषसे रहित ‘योगी’ मनुष्य अगर विषयोंका सेवन भी करे तो उसका पतन नहीं होता, प्रत्युत वह परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है।
राग-द्वेषसे रहित मनुष्य भोगबुद्धिसे विषयोंका सेवन नहीं करता अर्थात् भोगजन्य सुख (रस) नहीं लेता; क्योंकि यह उसका ध्येय नहीं है। वह भोगोंको रागपूर्वक न भोगकर त्यागपूर्वक भोगता है (गीता—तीसरे अध्यायका चौंतीसवाँ श्लोक)। इसलिये उसका अन्त:करण निर्मल हो जाता है। त्यागपूर्वक भोग वास्तवमें भोग है ही नहीं। लोगोंकी दृष्टिमें उसके द्वारा भोगका आचरण दीखता है, इसीलिये यहाँ ‘विषयान् चरन्’ पद आये हैं।
राग-द्वेषसे रहित होनेपर ‘प्रसाद’ की प्राप्ति होती है। हरदम प्रसन्नता रहे, कभी खिन्नता न आये, नीरसता न आये—यह ‘प्रसाद’ है। इस प्रसादकी प्राप्तिमें भी सन्तोष न करे, इसका उपभोग न करे तो बहुत जल्दी परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।
सम्बन्ध—पीछेके दो श्लोकोंमें जो बात कही है, उसीको आगेके दो श्लोकोंमें व्यतिरेक रीतिसे पुष्ट करते हैं।