यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥58॥
यदा, संहरते, च, अयम्, कूर्म:, अङ्गानि, इव, सर्वश:,
इन्द्रियाणि, इन्द्रियार्थेभ्य:, तस्य, प्रज्ञा, प्रतिष्ठिता॥ ५८॥
च = और, कूर्म: = कछुआ, सर्वश: = सब ओरसे (अपने), अंगानि = अंगोंको, इव = जैसे (समेट लेता है, वैसे ही), यदा = जब, अयम् = यह पुरुष, इन्द्रियार्थेभ्य: = इन्द्रियोंके विषयोंसे, इन्द्रियाणि = इन्द्रियोंको, संहरते = सब प्रकारसे हटा लेता है,(तब), तस्य = उसकी, प्रज्ञा = बुद्धि, प्रतिष्ठिता = स्थिर है (ऐसा समझना चाहिये)।
‘तब भी, जब जैसे कछुआ अपने हाथ पैर समेट लेता है, यदि कोई अपनी इन्द्रियों को पूर्णतः इन्द्रियों के विषयों से हटा लेता है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है’।
व्याख्या—‘यदा संहरते…..प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’—यहाँ कछुएका दृष्टान्त देनेका तात्पर्य है कि जैसे कछुआ चलता है तो उसके छ: अंग दीखते हैं—चार पैर, एक पूँछ और एक मस्तक। परन्तु जब वह अपने अंगोंको छिपा लेता है, तब केवल उसकी पीठ ही दिखायी देती है। ऐसे ही स्थितप्रज्ञ पाँच इन्द्रियाँ और एक मन—इन छहोंको अपने-अपने विषयसे हटा लेता है। अगर उसका इन्द्रियों आदिके साथ किंचिन्मात्र भी मानसिक सम्बन्ध बना रहता है, तो वह स्थितप्रज्ञ नहीं होता।
यहाँ ‘संहरते’ क्रिया देनेका मतलब यह हुआ कि वह स्थितप्रज्ञ विषयोंसे इन्द्रियोंका उपसंहार कर लेता है अर्थात् वह मनसे भी विषयोंका चिन्तन नहीं करता।
इस श्लोकमें ‘यदा’ पद तो दिया है, पर ‘तदा’ पद नहीं दिया है। यद्यपि ‘यत्तदोर्नित्यसम्बन्ध:’ के अनुसार जहाँ ‘यदा’ आता है, वहाँ ‘तदा’ का अध्याहार लिया जाता है अर्थात् ‘यदा’ पदके अन्तर्गत ही ‘तदा’ पद आ जाता है, तथापि यहाँ ‘तदा’ पदका प्रयोग न करनेका एक गहरा तात्पर्य है कि इन्द्रियोंके अपने-अपने विषयोंसे सर्वथा हट जानेसे स्वत:सिद्ध तत्त्वका जो अनुभव होता है, वह कालके अधीन, कालकी सीमामें नहीं है। कारण कि वह अनुभव किसी क्रिया अथवा त्यागका फल नहीं है। वह अनुभव उत्पन्न होनेवाली वस्तु नहीं है। अत: यहाँ कालवाचक ‘तदा’ पद देनेकी जरूरत नहीं है। इसकी जरूरत तो वहाँ होती है, जहाँ कोई वस्तु किसी वस्तुके अधीन होती है। जैसे आकाशमें सूर्य रहनेपर भी आँखें बंद कर लेनेसे सूर्य नहीं दीखता और आँखें खोलते ही सूर्य दीख जाता है, तो यहाँ सूर्य और आँखोंमें कार्य-कारणका सम्बन्ध नहीं है अर्थात् आँखें खुलनेसे सूर्य पैदा नहीं हुआ है। सूर्य तो पहलेसे ज्यों-का-त्यों ही है। आँखें बंद करनेसे पहले भी सूर्य वैसा ही है और आँखें बंद करनेपर भी सूर्य वैसा ही है। केवल आँखें बंद करनेसे हमें उसका अनुभव नहीं हुआ था। ऐसे ही यहाँ इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेसे स्वत:सिद्ध परमात्मतत्त्वका जो अनुभव हुआ है, वह अनुभव मनसहित इन्द्रियोंका विषय नहीं है। तात्पर्य है कि वह स्वत:सिद्ध तत्त्व भोगों-(विषयों-) के साथ सम्बन्ध रखते हुए और भोगोंको भोगते हुए भी वैसा ही है। परन्तु भोगोंके साथ सम्बन्धरूप परदा रहनेसे उसका अनुभव नहीं होता और यह परदा हटते ही उसका अनुभव हो जाता है।
सम्बन्ध—केवल इन्द्रियोंका विषयोंसे हट जाना ही स्थितप्रज्ञका लक्षण नहीं है—इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।