यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥46॥
यावान्, अर्थ:, उदपाने, सर्वत:, सम्प्लुतोदके,
तावान्, सर्वेषु, वेदेषु, ब्राह्मणस्य, विजानत:॥ ४६॥
सर्वत: = सब ओरसे, सम्प्लुतोदके = परिपूर्ण जलाशयके, (प्राप्ते सति) = प्राप्त हो जानेपर, उदपाने = छोटे जलाशयमें (मनुष्यका), यावान् = जितना, अर्थ: = प्रयोजन, (अस्ति) = रहता है, विजानत: = (ब्रह्मको)तत्त्वसे जाननेवाले, ब्राह्मणस्य = ब्राह्मणका, सर्वेषु = समस्त, वेदेषु = वेदोंमें, तावान् =उतना (ही प्रयोजन रह जाता है)।
‘उस आध्यात्मिक व्यक्ति के लिये, जिसने ‘स्व’ को जान लिया है, सभी वेद उतने ही उपयोगी हैं जितना कि सब तरफ बाढ़ आने पर किसी तालाब का उपयोग’।
व्याख्या—‘यावानर्थ उदपाने सर्वत: सम्प्लुतोदके’—जलसे सर्वथा परिपूर्ण, स्वच्छ, निर्मल महान् सरोवरके प्राप्त होनेपर मनुष्यको छोटे-छोटे जलाशयोंकी कुछ भी आवश्यकता नहीं रहती। कारण कि छोटे-से जलाशयमें अगर हाथ-पैर धोये जायँ तो उसमें मिट्टी घुल जानेसे वह जल स्नानके लायक नहीं रहता; और अगर उसमें स्नान किया जाय तो वह जल कपड़े धोनेके लायक नहीं रहता और यदि उसमें कपड़े धोये जायँ तो वह जल पीनेके लायक नहीं रहता। परन्तु महान् सरोवरके मिलनेपर उसमें सब कुछ करनेपर भी उसमें कुछ भी फर्क नहीं पड़ता अर्थात् उसकी स्वच्छता, निर्मलता, पवित्रता वैसी-की-वैसी ही बनी रहती है।
‘तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत:’—ऐसे ही जो महापुरुष परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो गये हैं, उनके लिये वेदोंमें कहे हुए यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि जितने भी पुण्यकारी कार्य हैं, उन सबसे उनका कोई मतलब नहीं रहता अर्थात् वे पुण्यकारी कार्य उनके लिये छोटे-छोटे जलाशयोंकी तरह हो जाते हैं। ऐसा ही दृष्टान्त आगे सत्तरवें श्लोकमें दिया है कि वह ज्ञानी महात्मा समुद्रकी तरह गम्भीर होता है। उसके सामने कितने ही भोग आ जायँ, पर वे उसमें कुछ भी विकृति पैदा नहीं कर सकते।
जो परमात्मतत्त्वको जाननेवाला है और वेदों तथा शास्त्रोंके तत्त्वको भी जाननेवाला है, उस महापुरुषको यहाँ ‘ब्राह्मणस्य विजानत:’ पदोंसे कहा गया है।
‘तावान्’ कहनेका तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर वह तीनों गुणोंसे रहित हो जाता है। वह निर्द्वन्द्व हो जाता है अर्थात् उसमें राग-द्वेष आदि नहीं रहते। वह नित्य तत्त्वमें स्थित हो जाता है। वह निर्योगक्षेम हो जाता है अर्थात् कोई वस्तु मिल जाय और मिली हुई वस्तुकी रक्षा होती रहे—ऐसा उसमें भाव भी नहीं होता। वह सदा ही परमात्मपरायण रहता है।
परिशिष्ट भाव—सांसारिक भोगोंका अन्त नहीं है। अनन्त ब्रह्माण्ड हैं और उनमें अनन्त तरहके भोग हैं। परन्तु उनका त्याग कर दें, उनसे असंग हो जायँ तो उनका अन्त आ जाता है। ऐसे ही कामनाएँ भी अनन्त होती हैं। परन्तु उनका त्याग कर दें, निष्काम हो जायँ तो उनका अन्त आ जाता है।
सम्बन्ध—भगवान् ने उनतालीसवें श्लोकमें जिस समबुद्धि-(समता-) को सुननेके लिये अर्जुनको आज्ञा दी थी, अब आगेके श्लोकमें उसकी प्राप्तिके लिये कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।