त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥45॥
त्रैगुण्यविषया:, वेदा:, निस्त्रैगुण्य:, भव, अर्जुन,
निर्द्वन्द्व:, नित्यसत्त्वस्थ:, निर्योगक्षेम:, आत्मवान्॥ ४५॥
अर्जुन = हे अर्जुन!, वेदा: = वेद (उपर्युक्त प्रकारसे), त्रैगुण्यविषया:= तीनों गुणोंके कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनोंका प्रतिपादन करनेवाले हैं (इसलिये तू), निस्त्रैगुण्य: = उन भोगों एवं उनके साधनोंमें आसक्तिहीन, निर्द्वन्द्व: = हर्ष-शोकादि द्वन्द्वोंसे रहित, नित्यसत्त्वस्थ: = नित्यवस्तु परमात्मामें स्थित, निर्योगक्षेम: = योग१ क्षेमको२ न चाहनेवाला और, आत्मवान् = स्वाधीन अन्त:करणवाला, भव = हो।
‘वेद तीनों गुणों पर विचार करता है। हे अर्जुन तुम गुणों की तिकड़ी से, परस्पर विरोधी युग्मों से स्वतंत्र हो जाओ, सदैव संतुलित, प्राप्ति और संचय के विचार से मुक्त, और अपने ‘स्व’ में स्थित’।
व्याख्या—‘त्रैगुण्यविषया वेदा:’—यहाँ वेदोंसे तात्पर्य वेदोंके उस अंशसे है, जिसमें तीनों गुणोंका और तीनों गुणोंके कार्य स्वर्गादि भोग-भूमियोंका वर्णन है।
यहाँ उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य वेदोंकी निन्दामें नहीं है, प्रत्युत निष्कामभावकी महिमामें है। जैसे हीरेके वर्णनके साथ-साथ काँचका वर्णन किया जाय तो उसका तात्पर्य काँचकी निन्दा करनेमें नहीं है, प्रत्युत हीरेकी महिमा बतानेमें है। ऐसे ही यहाँ निष्कामभावकी महिमा बतानेके लिये ही वेदोंके सकामभावका वर्णन आया है, निन्दाके लिये नहीं। वेद केवल तीनों गुणोंका कार्य संसारका ही वर्णन करनेवाले हैं, ऐसी बात भी नहीं है। वेदोंमें परमात्मा और उनकी प्राप्तिके साधनोंका भी वर्णन हुआ है।
‘निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन’—हे अर्जुन! तू तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारकी इच्छाका त्याग करके असंसारी बन जा अर्थात् संसारसे ऊँचा उठ जा।
‘निर्द्वन्द्व:’—संसारसे ऊँचा उठनेके लिये राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंसे रहित होनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है; क्योंकि ये ही वास्तवमें मनुष्यके शत्रु हैं अर्थात् उसको संसारमें फँसानेवाले हैं (गीता—तीसरे अध्यायका चौंतीसवाँ श्लोक)१।
(१-एक ही विषयमें, एक ही वस्तुमें दो भाव कर लेना ‘द्वन्द्व’ है। परन्तु जहाँ विषय, वस्तु अलग-अलग होते हैं, वहाँ द्वन्द्व नहीं होता; जैसे—‘प्रकृति’ और ‘पुरुष’, ‘जड’ और ‘चेतन’—इन दोनोंको अलग-अलग समझना द्वन्द्व नहीं है। ऐसे ही संसारसे विमुख होकर भगवान् के सम्मुख हो जाना द्वन्द्व नहीं है। परन्तु केवल संसारमें ही दो भाव (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दु:ख आदि) हो जायँ, तो यह द्वन्द्व हो जाता है और इसी द्वन्द्वमें मनुष्य फँसता है।)
इसलिये तू सम्पूर्ण द्वन्द्वोंसे रहित हो जा।
यहाँ भगवान् अर्जुनको निर्द्वन्द्व होनेकी आज्ञा क्यों दे रहे हैं? कारण कि द्वन्द्वोंसे सम्मोह होता है, संसारमें फँसावट होती है (गीता—सातवें अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक)। जब साधक निर्द्वन्द्व होता है, तभी वह दृढ़ होकर भजन कर सकता है (गीता—सातवें अध्यायका अट्ठाईसवाँ श्लोक)। निर्द्वन्द्व होनेसे साधक सुखपूर्वक संसार-बंधनसे मुक्त हो जाता है (गीता—पाँचवें अध्यायका तीसरा श्लोक)। निर्द्वन्द्व होनेसे मूढ़ता चली जाती है (गीता—पन्द्रहवें अध्यायका पाँचवाँ श्लोक)। निर्द्वन्द्व होनेसे साधक कर्म करता हुआ भी बँधता नहीं (गीता— चौथे अध्यायका बाईसवाँ श्लोक)। तात्पर्य है कि साधककी साधना निर्द्वन्द्व होनेसे ही दृढ़ होती है। इसलिये भगवान् अर्जुनको निर्द्वन्द्व होनेकी आज्ञा देते हैं।
दूसरी बात, अगर संसारमें किसी भी वस्तु, व्यक्ति आदिमें राग होगा, तो दूसरी वस्तु, व्यक्ति आदिमें द्वेष हो जायगा—यह नियम है। ऐसा होनेपर भगवान् की उपेक्षा हो जायगी—यह भी एक प्रकारका द्वेष है। परन्तु जब साधकका भगवान् में प्रेम हो जायगा, तब संसारसे द्वेष नहीं होगा, प्रत्युत संसारसे स्वाभाविक उपरति हो जायगी। उपरति होनेकी पहली अवस्था यह होगी कि साधकका प्रतिकूलतामें द्वेष नहीं होगा; किन्तु उसकी उपेक्षा होगी। उपेक्षाके बाद उदासीनता होगी और उदासीनताके बाद उपरति होगी। उपरतिमें राग-द्वेष सर्वथा मिट जाते हैं। इस क्रममें अगर सूक्ष्मतासे देखा जाय तो उपेक्षामें राग-द्वेषके संस्कार रहते हैं, उदासीनतामें राग-द्वेषकी सत्ता रहती है, और उपरतिमें राग-द्वेषके न संस्कार रहते हैं, न सत्ता रहती है; किन्तु राग-द्वेषका सर्वथा अभाव हो जाता है।
‘नित्यसत्त्वस्थ:’—द्वन्द्वोंसे रहित होनेका उपाय यह है कि जो नित्य-निरन्तर रहनेवाला सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा है, तू उसीमें निरन्तर स्थित रह।
‘निर्योगक्षेम:’२—तू योग और क्षेमकी३इच्छा भी मत रख; क्योंकि जो केवल मेरे परायण होते हैं, उनके योगक्षेमका वहन मैं स्वयं करता हूँ (गीता—नवें अध्यायका बाईसवाँ श्लोक)।
(२-अप्राप्त वस्तुकी प्राप्तिका नाम ‘योग’ है और प्राप्त वस्तुकी रक्षाका नाम ‘क्षेम’ है।
३-यद्यपि यहाँ कर्मयोगका प्रकरण है, तथापि यहाँ ‘निर्योगक्षेम:’ पद भक्तियोगका वाचक मानना ठीक मालूम देता है। कारण कि भगवान् ने अर्जुनको जगह-जगह भक्त होनेके लिये आज्ञा दी है और अर्जुनको भक्तरूपसे स्वीकार भी किया है (४। ३)। भगवान् ने अपनेको भक्तोंका योग-क्षेम वहन करनेवाला भी बताया है (९। २२)।)
‘आत्मवान्’—तू केवल परमात्माके परायण हो जा। एक परमात्मप्राप्तिका ही लक्ष्य रख।
परिशिष्ट भाव—‘निर्द्वन्द्व:’—वास्तवमें जड़-चेतन, सत्-असत्, नित्य-अनित्य, नाशवान्-अविनाशी आदिका भेद भी द्वन्द्व है। योग और क्षेमकी चाहना भी द्वन्द्व है। द्वन्द्व होनेसे ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’—इस वास्तविकताका अनुभव नहीं होता। कारण कि जब सब कुछ भगवान् ही हैं, तो फिर जड़-चेतन आदिका द्वन्द्व कैसे रह सकता है ? इसलिये भगवान् ने अमृत और मृत्यु, सत् और असत् दोनोंको अपना स्वरूप बताया है—‘अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९। १९)।
सम्बन्ध—तीनों गुणोंसे रहित, निर्द्वन्द्व आदि हो जानेसे क्या होगा—इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।