यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥ 42॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥43॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥44॥
याम्, इमाम्, पुष्पिताम्, वाचम्, प्रवदन्ति, अविपश्चित:,
वेदवादरता:, पार्थ, न, अन्यत्, अस्ति, इति, वादिन:॥ ४२॥
कामात्मान:, स्वर्गपरा:, जन्मकर्मफलप्रदाम्,
क्रियाविशेषबहुलाम्, भोगैश्वर्यगतिम्, प्रति॥ ४३॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम्, तया, अपहृतचेतसाम्,
व्यवसायात्मिका, बुद्धि:, समाधौ, न, विधीयते॥ ४४॥
पार्थ = हे अर्जुन!, कामात्मान: = जो भोगोंमें तन्मय हो रहे हैं, वेदवादरता: = जो कर्मफलके प्रशंसक वेद-वाक्योंमें ही प्रीति रखते हैं, स्वर्गपरा: = जिनकी बुद्धिमें स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है (और जो स्वर्ग-से बढ़कर), अन्यत् = दूसरी (कोई वस्तु ही), न = नहीं, अस्ति = है, इति = ऐसा, वादिन: = कहनेवाले हैं—। अविपश्चित: = वे अविवेकीजन, इमाम् = इस प्रकारकी, याम् = जिस, पुष्पिताम् = पुष्पित यानी दिखाऊ शोभायुक्त, वाचम् = वाणीको, प्रवदन्ति = कहा करते हैं,(जो कि),जन्मकर्मफल प्रदाम् = जन्मरूप कर्म फल देनेवाली (एवं), भोगैश्वर्यगतिं प्रति = भोग तथा ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये नाना प्रकारकी, क्रियाविशेष बहुलाम् = बहुत-सी क्रियाओंको वर्णन करनेवाली है,। तया = उस वाणीद्वारा, अपहृतचेतसाम् = जिनका चित्त हर लिया गया है, भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम् =जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त है उन पुरूषो की, समाधौ = परमात्मामें, व्यवसायात्मिका= निश्चयात्मिका, बुद्धि: = बुद्धि, न = नहीं, विधीयते = होती।
‘हे अर्जुन, वे मूर्ख हैं जो पुष्पित, अर्थात् अलंकृत दिखाऊ बातें बोलते हैं। वे वेदों के अक्षरों का आनन्द उठाकर तर्क करते हैं कि इसके अतिरिक्त्त कुछ और है ही नहीं’। ‘वे वासनाओं से भरे हुए हैं, स्वर्ग को सर्वोच्च समझते हैं, जो कि पुनर्जन्म और कर्म के फल प्रदान करता है, और वे उन विशेष कर्म-काण्डों से भरे हुए हैं जो सुख और शक्ति प्रदान करते हैं’। ‘वे जो कि सुख प्राप्ति और शक्ति के प्रति आसक्त्त हैं, जिनका मन इनका दास बन चुका है, उनके लिए कोई संभावना नहीं है कि वे अपनी बुद्धि का विकास कर पाएँ अथवा ऐसा संकल्प कर सकें जो समाधि की उपलब्धि कर सके’।
(Verse 42 & 43)व्याख्या—‘कामात्मान:’—वे कामनाओंमें इतने रचे-पचे रहते हैं कि वे कामनारूप ही बन जाते हैं। उनको अपनेमें और कामनामें भिन्नता ही नहीं दीखती। उनका तो यही भाव होता है कि कामनाके बिना आदमी जी नहीं सकता, कामनाके बिना कोई भी काम नहीं हो सकता, कामनाके बिना आदमी पत्थरकी तरह जड हो जाता है, उसको चेतना भी नहीं रहती। ऐसे भाववाले पुरुष ‘कामात्मान:’ हैं।
स्वयं तो नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है, उसमें कभी घट-बढ़ नहीं होती, पर कामना आती-जाती रहती है और घटती-बढ़ती है। स्वयं परमात्माका अंश है और कामना संसारके अंशको लेकर है। अत: स्वयं और कामना—ये दोनों सर्वथा अलग-अलग हैं। परन्तु कामनामें रचे-पचे लोगोंको अपने स्वरूपका अलग भान ही नहीं होता।
‘स्वर्गपरा:’—स्वर्गमें बढ़िया-से-बढ़िया दिव्य भोग मिलते हैं, इसलिये उनके लक्ष्यमें स्वर्ग ही सर्वश्रेष्ठ होता है और वे उसकी प्राप्तिमें ही रात-दिन लगे रहते हैं।
यहाँ ‘स्वर्गपरा:’ पदसे उन मनुष्योंकी बात कही गयी है, जो वेदोंमें, शास्त्रोंमें वर्णित स्वर्गादि लोकोंमें आस्था रखनेवाले हैं।
‘वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:’—वे वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंमें प्रीति रखनेवाले हैं अर्थात् वेदोंका तात्पर्य वे केवल भोगोंमें और स्वर्गकी प्राप्तिमें मानते हैं, इसलिये वे ‘वेदवादरता:’ हैं। उनकी मान्यतामें यहाँके और स्वर्गके भोगोंके सिवाय और कुछ है ही नहीं अर्थात् उनकी दृष्टिमें भोगोंके सिवाय परमात्मा, तत्त्वज्ञान, मुक्ति, भगवत्प्रेम आदि कोई चीज है ही नहीं। अत: वे भोगोंमें ही रचे-पचे रहते हैं। भोग भोगना उनका मुख्य लक्ष्य रहता है।
‘यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:’—जिनमें सत्-असत्, नित्य-अनित्य, अविनाशी-विनाशीका विवेक नहीं है, ऐसे अविवेकी मनुष्य वेदोंकी जिस वाणीमें संसार और भोगोंका वर्णन है, उस पुष्पित वाणीको कहा करते हैं।
यहाँ ‘पुष्पिताम्’ कहनेका तात्पर्य है कि भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाली वाणी केवल फूल-पत्ती ही है, फल नहीं है। तृप्ति फलसे ही होती है, फूल-पत्तीकी शोभासे नहीं। वह वाणी स्थायी फल देनेवाली नहीं है। उस वाणीका जो फल—स्वर्गादिका भोग है, वह केवल देखनेमें ही सुन्दर दीखता है, उसमें स्थायीपना नहीं है।
‘जन्मकर्मफलप्रदाम्’—वह पुष्पित वाणी जन्मरूपी कर्मफलको देनेवाली है; क्योंकि उसमें सांसारिक भोगोंको ही महत्त्व दिया गया है। उन भोगोंका राग ही आगे जन्म होनेमें कारण है (गीता—तेरहवें अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक)।
‘क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति’—वह पुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त वाणी भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये जिन सकाम अनुष्ठानोंका वर्णन करती है, उनमें क्रियाओंकी बहुलता रहती है अर्थात् उन अनुष्ठानोंमें अनेक तरहकी विधियाँ होती हैं, अनेक तरहकी क्रियाएँ करनी पड़ती हैं, अनेक तरहके पदार्थोंकी जरूरत पड़ती है एवं शरीर आदिमें परिश्रम भी अधिक होता है (गीता—अठारहवें अध्यायका चौंबीसवाँ श्लोक)।
(Verse 44)व्याख्या—‘तयापहृतचेतसाम्’—पूर्वश्लोकोंमें जिस पुष्पित वाणीका वर्णन किया गया है, उस वाणीसे जिनका चित्त अपहृत हो गया है अर्थात् स्वर्गमें बड़ा भारी सुख है, दिव्य नन्दनवन है, अप्सराएँ हैं, अमृत है— ऐसी वाणीसे जिनका चित्त उन भोगोंकी तरफ खिंच गया है।
‘भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम्’—शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—ये पाँच विषय, शरीरका आराम, मान और नामकी बड़ाई—इनके द्वारा सुख लेनेका नाम ‘भोग’ है। भोगोंके लिये पदार्थ, रुपये-पैसे, मकान आदिका जो संग्रह किया जाता है, उसका नाम ‘ऐश्वर्य’ है। इन भोग और ऐश्वर्यमें जिनकी आसक्ति है, प्रियता है, खिंचाव है अर्थात् इनमें जिनकी महत्त्वबुद्धि है, उनको ‘भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम्’ कहा गया है।
जो भोग और ऐश्वर्यमें ही लगे रहते हैं, वे आसुरी सम्पत्तिवाले होते हैं। कारण कि ‘असु’ नाम प्राणोंका है और उन प्राणोंको जो बनाये रखना चाहते हैं, उन प्राणपोषण-परायण लोगोंका नाम ‘असुर’ है। वे शरीरकी प्रधानताको लेकर यहाँके अथवा स्वर्गके भोग भोगना चाहते हैं*।
(* यहाँ जिन राजसी मनुष्योंका वर्णन हो रहा है, उनको भगवान् ने सोलहवें अध्यायमें आसुरी सम्पत्तिवालोंके प्रकरणमें ‘कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिता:’ (१६। ११), ‘प्रसक्ता: कामभोगेषु’ (१६। १६) आदि पदोंसे कहा है। अत: जो केवल भोग भोगना चाहते हैं, वे आसुरी सम्पत्तिवाले ही हैं।)
‘व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते’—जो मनुष्यजन्मका असली ध्येय है, जिसके लिये मनुष्य-शरीर मिला है, उस परमात्माको ही प्राप्त करना है— ऐसी व्यवसायात्मिका बुद्धि उन लोगोंमें नहीं होती। तात्पर्य यह है कि जो भोग भोगे जा चुके हैं, जो भोग भोगे जा सकते हैं, जिन भोगोंको सुन रखा है और जो भोग सुने जा सकते हैं, उनके संस्कारोंके कारण बुद्धिमें जो मलिनता रहती है, उस मलिनताके कारण संसारसे सर्वथा विरक्त होकर एक परमात्माकी तरफ चलना है—ऐसा दृढ़ निश्चय नहीं होता। ऐसे ही संसारकी अनेक विद्याओं, कलाओं आदिका जो संग्रह है, उससे ‘मैं विद्वान् हूँ’, ‘मैं जानकार हूँ’—ऐसा जो अभिमानजन्य सुखका भोग होता है, उसमें आसक्त मनुष्योंका भी परमात्मप्राप्तिका एक निश्चय नहीं होता।
विशेष बात
परमदयालु प्रभुने कृपा करके इस मनुष्यशरीरमें एक ऐसी विलक्षण विवेकशक्ति दी है, जिससे वह सुख-दु:खसे ऊँचा उठ जाय, अपना उद्धार कर ले, सबकी सेवा करके भगवान् तकको अपने वशमें कर ले! इसीमें मनुष्य-शरीरकी सार्थकता है। परन्तु प्रभुप्रदत्त इस विवेकशक्तिका अनादर करके नाशवान् भोग और संग्रहमें आसक्त हो जाना पशुबुद्धि है। कारण कि पशु-पक्षी भी भोगोंमें लगे रहते हैं, ऐसे ही अगर मनुष्य भी भोगोंमें लगा रहे तो पशु-पक्षियोंमें और मनुष्यमें अन्तर ही क्या रहा?
पशु-पक्षी तो भोगयोनि है; अत: उनके सामने कर्तव्यका प्रश्न ही नहीं है। परन्तु मनुष्यजन्म तो केवल अपने कर्तव्यका पालन करके अपना उद्धार करनेके लिये ही मिला है, भोग भोगनेके लिये नहीं। इसलिये मनुष्यके सामने जो कुछ अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है, वह सब साधन-सामग्री है, भोग-सामग्री नहीं। जो उसको भोग-सामग्री मान लेते हैं, उनकी परमात्मामें व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती।
वास्तवमें सांसारिक पदार्थ परमात्माकी तरफ चलनेमें बाधा नहीं देते, प्रत्युत वर्तमानमें जो भोगोंका महत्त्व अन्त:करणमें बैठा हुआ है, वही बाधा देता है। भोग उतना नहीं अटकाते, जितना भोगोंका महत्त्व अटकाता है। अटकानेमें अपनी रुचि, नीयतकी प्रधानता है। भोग और संग्रहकी रुचिको रखते हुए कोई परमात्माको प्राप्त करना चाहे, तो परमात्माकी प्राप्ति तो दूर रही, उनकी प्राप्तिका एक निश्चय भी नहीं हो सकता। कारण कि जहाँ परमात्माकी तरफ चलनेकी रुचि है, वहीं भोगोंकी रुचि भी है। जबतक भोग और संग्रहमें, मान-बड़ाई-आराममें रुचि है, तबतक कोई भी एक निश्चय करके परमात्मामें नहीं लग सकता; क्योंकि उसका अन्त:करण भोगोंकी रुचिद्वारा हर लिया गया; उसकी जो शक्ति थी, वह भोग और संग्रहमें लग गयी।
परिशिष्ट भाव—अपने कल्याणमें अगर कोई बाधा है तो वह है—भोग और ऐश्वर्य (संग्रह)-की इच्छा। जैसे जालमें फँसी हुई मछली आगे नहीं बढ़ सकती, ऐसे ही भोग और संग्रहमें फँसे हुए मनुष्यकी दृष्टि परमात्माकी तरफ बढ़ ही नहीं सकती। इतना ही नहीं, भोग और संग्रहमें आसक्त मनुष्य परमात्माकी प्राप्तिका निश्चय भी नहीं कर सकता।
जो संसारको सच्चा मानता है, उसके लिये कर्मयोग शीघ्र सिद्धि देनेवाला है। कर्मयोगी अपने कर्तव्य कर्मोंके द्वारा संसारकी सेवा करता है अर्थात् प्रत्येक कर्म निष्कामभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये ही करता है। वह दूसरोंके सुखसे प्रसन्न (सुखी) और दूसरोंके दु:खसे करुणित (दु:खी) होता है। दूसरोंको सुखी देखकर प्रसन्न होनेसे उसमें ‘भोग’ की इच्छा नहीं रहती और दूसरोंको दु:खी देखकर करुणित होनेसे उसमें ‘संग्रह’ की इच्छा नहीं रहती*।
(* वास्तवमें असली सेवा त्यागीके द्वारा ही होती है अर्थात् भोग और संग्रहकी इच्छा सर्वथा मिटनेसे ही असली सेवा होती है, अन्यथा नकली सेवा होती है। परन्तु उद्देश्य असली (सबके हितका) होनेसे नकली सेवा भी असलीमें बदल जाती है।)
सम्बन्ध—किसी बातको पुष्ट करना हो तो पहले उसके दोनों पक्ष सामने रखकर फिर उसको पुष्ट किया जाता है। यहाँ भगवान् निष्कामभावको पुष्ट करना चाहते हैं; अत: पीछेके तीन श्लोकोंमें सकामभाववालोंका वर्णन करके अब आगेके श्लोकमें निष्काम होनेकी प्रेरणा करते हैं।