हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥37॥
हत:, वा, प्राप्स्यसि, स्वर्गम्, जित्वा, वा, भोक्ष्यसे, महीम्,
तस्मात्, उत्तिष्ठ, कौन्तेय, युद्धाय, कृतनिश्चय:॥ ३७॥
वा = या (तो तू युद्धमें), हत: = मारा जाकर, स्वर्गम् = स्वर्गको, प्राप्स्यसि = प्राप्त होगा, वा = अथवा (संग्राममें), जित्वा = जीतकर, महीम् = पृथ्वीका राज्य, भोक्ष्यसे = भोगेगा, तस्मात् = इस कारण, कौन्तेय = हे अर्जुन! (तू), युद्धाय = युद्धके लिये, कृतनिश्चय: = निश्चय करके,उत्तिष्ठ = खड़ा हो जा।
या तो तू युद्धमें मारा जाकर स्वर्गको प्राप्त होगा अथवा संग्राममें जीतकर पृथ्वीका राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा।
व्याख्या—‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्’—इसी अध्यायके छठे श्लोकमें अर्जुनने कहा था कि हमलोगोंको इसका भी पता नहीं है कि युद्धमें हम उनको जीतेंगे या वे हमको जीतेंगे। अर्जुनके इस सन्देहको लेकर भगवान् यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि अगर युद्धमें तुम कर्ण आदिके द्वारा मारे भी जाओगे तो स्वर्गको चले जाओगे और अगर युद्धमें तुम्हारी जीत हो जायगी तो यहाँ पृथ्वीका राज्य भोगोगे। इस तरह तुम्हारे तो दोनों ही हाथोंमें लड्डू हैं। तात्पर्य है कि युद्ध करनेसे तो तुम्हारा दोनों तरफसे लाभ-ही-लाभ है और युद्ध न करनेसे दोनों तरफसे हानि-ही-हानि है। अत: तुम्हें युद्धमें प्रवृत्त हो जाना चाहिये।
‘तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:’—यहाँ ‘कौन्तेय’ सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि जब मैं सन्धिका प्रस्ताव लेकर कौरवोंके पास गया था, तब माता कुन्तीने तुम्हारे लिये यही संदेश भेजा था कि तुम युद्ध करो। अत: तुम्हें युद्धसे निवृत्त नहीं होना चाहिये, प्रत्युत युद्धका निश्चय करके खड़े हो जाना चाहिये।
अर्जुनका युद्ध न करनेका निश्चय था और भगवान् ने इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें युद्ध करनेकी आज्ञा दे दी। इससे अर्जुनके मनमें सन्देह हुआ कि युद्ध करना ठीक है या न करना ठीक है। अत: यहाँ भगवान् उस सन्देहको दूर करनेके लिये कहते हैं कि तुम युद्ध करनेका एक निश्चय कर लो, उसमें सन्देह मत रखो।
यहाँ भगवान् का तात्पर्य ऐसा मालूम देता है कि मनुष्यको किसी भी हालतमें प्राप्त कर्तव्यका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उत्साह और तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये। कर्तव्यका पालन करनेमें ही मनुष्यकी मनुष्यता है।
परिशिष्ट भाव—धर्मका पालन करनेसे लोक-परलोक दोनों सुधर जाते हैं। तात्पर्य है कि कर्तव्यका पालन और अकर्तव्यका त्याग करनेसे लोककी भी सिद्धि हो जाती है और परलोककी भी।