अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥36॥
अवाच्यवादान्, च, बहून्, वदिष्यन्ति, तव, अहिता:,
निन्दन्त:, तव, सामर्थ्यम्, तत:, दु:खतरम्, नु, किम्॥ ३६॥
तव = तेरे, अहिता: = वैरी लोग, तव = तेरे, सामर्थ्यम् = सामर्थ्यकी, निन्दन्त: = निन्दा करते हुए (तुझे), बहून् = बहुत-से, अवाच्यवादान् = न कहनेयोग्य वचन, च = भी, वदिष्यन्ति = कहेंगे, तत: = उससे, दु:खतरम् = अधिक दु:ख, नु = और, किम् = क्या होगा।
‘तुम्हारे शत्रु तुम्हारे विरुद्ध सभी प्रकार के शब्द बोलेंगे जो बोलने योग्य नहीं हैं; वे तुम्हारी क्षमताओं और प्रतिभाओं का उपहास करेंगे’।
व्याख्या—‘अवाच्यवादांश्च ….. निन्दन्तस्तव सामर्थ्यम्’— ‘अहित’ नाम शत्रुका है, अहित करनेवालेका है। तेरे जो दुर्योधन, दु:शासन, कर्ण आदि शत्रु हैं, तेरे वैर न रखनेपर भी वे स्वयं तेरे साथ वैर रखकर तेरा अहित करनेवाले हैं। वे तेरी सामर्थ्यको जानते हैं कि यह बड़ा भारी शूरवीर है। ऐसा जानते हुए भी वे तेरी सामर्थ्यकी निन्दा करेंगे कि यह तो हिजड़ा है। देखो! यह युद्धके मौकेपर हो गया न अलग! क्या यह हमारे सामने टिक सकता है? क्या यह हमारे साथ युद्ध कर सकता है? इस प्रकार तुझे दु:खी करनेके लिये, तेरे भीतर जलन पैदा करनेके लिये न जाने कितने न कहने-लायक वचन कहेंगे। उनके वचनोंको तू कैसे सहेगा?
‘ततो दु:खतरं नु किम्’—इससे बढ़कर अत्यन्त भयंकर दु:ख क्या होगा? क्योंकि यह देखा जाता है कि जैसे मनुष्य तुच्छ आदमियोंके द्वारा तिरस्कृत होनेपर अपना तिरस्कार सह नहीं सकता और अपनी योग्यतासे, अपनी शूरवीरतासे अधिक काम करके मर मिटता है। ऐसे ही जब शत्रुओंके द्वारा तेरा सर्वथा अनुचित तिरस्कार हो जायगा, तब उसको तू सह नहीं सकेगा और तेजीमें आकर युद्धके लिये कूद पड़ेगा। तेरेसे युद्ध किये बिना रहा नहीं जायगा। अभी तो तू युद्धसे उपरत हो रहा है, पर जब तू समयपर युद्धके लिये कूद पड़ेगा, तब तेरी कितनी निन्दा होगी। उस निन्दाको तू कैसे सह सकेगा ?
सम्बन्ध—पीछेके चार श्लोकोंमें युद्ध न करनेसे हानि बताकर अब भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें युद्ध करनेसे लाभ बताते हैं।