अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥34॥
अकीर्तिम्, च, अपि, भूतानि, कथयिष्यन्ति, ते, अव्ययाम्,
सम्भावितस्य, च, अकीर्ति:, मरणात्, अतिरिच्यते॥ ३४॥
च = तथा, भूतानि = सब लोग, ते = तेरी, अव्ययाम् = बहुत कालतक रहनेवाली, अकीर्तिम् = अपकीर्तिका, अपि = भी, कथयिष्यन्ति = कथन करेंगे, च = और, सम्भावितस्य = माननीय पुरुषके लिये, अकीर्ति: = अपकीर्ति, मरणात् = मरणसे (भी), अतिरिच्यते = बढ़कर है।
‘लोग तुम्हारी अपकीर्ति के बारे में बहुत दिनों तक चर्चा करेंगे; और एक सम्माननीय व्यक्ति के लिये, अपकीर्ति मृत्यु से भी बढ़कर है’।
व्याख्या—‘अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्’—मनुष्य, देवता, यक्ष, राक्षस आदि जिन प्राणियोंका तेरे साथ कोई सम्बन्ध नहीं है अर्थात् जिनकी तेरे साथ न मित्रता है और न शत्रुता, ऐसे साधारण प्राणी भी तेरी अपकीर्ति, अपयशका कथन करेंगे कि देखो! अर्जुन कैसा भीरु था, जो कि अपने क्षात्रधर्मसे विमुख हो गया। वह कितना शूरवीर था, पर युद्धके मौकेपर उसकी कायरता प्रकट हो गयी, जिसका कि दूसरोंको पता ही नहीं था; आदि-आदि।
‘ते’ कहनेका भाव है कि स्वर्ग, मृत्यु और पाताल-लोकमें भी जिसकी धाक जमी हुई है, ऐसे तेरी अपकीर्ति होगी। ‘अव्ययाम्’ कहनेका तात्पर्य है कि जो आदमी श्रेष्ठताको लेकर जितना अधिक प्रसिद्ध होता है, उसकी कीर्ति और अपकीर्ति भी उतनी ही अधिक स्थायी रहनेवाली होती है।
‘सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते’—इस श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान् ने साधारण प्राणियोंद्वारा अर्जुनकी निन्दा किये जानेकी बात बतायी। अब श्लोकके उत्तरार्धमें सबके लिये लागू होनेवाली सामान्य बात बताते हैं।
संसारकी दृष्टिमें जो श्रेष्ठ माना जाता है, जिसको लोग बड़ी ऊँची दृष्टिसे देखते हैं, ऐसे मनुष्यकी जब अपकीर्ति होती है, तब वह अपकीर्ति उसके लिये मरणसे भी अधिक भयंकर दु:खदायी होती है। कारण कि मरनेमें तो आयु समाप्त हुई है, उसने कोई अपराध तो किया नहीं है, परन्तु अपकीर्ति होनेमें तो वह खुद धर्म-मर्यादासे, कर्तव्यसे च्युत हुआ है। तात्पर्य है कि लोगोंमें श्रेष्ठ माना जानेवाला मनुष्य अगर अपने कर्तव्यसे च्युत होता है, तो उसका बड़ा भयंकर अपयश होता है।