स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥31॥
स्वधर्मम्, अपि, च, अवेक्ष्य, न, विकम्पितुम्, अर्हसि
धर्म्यात्, हि, युद्धात्, श्रेय:, अन्यत्, क्षत्रियस्य, न, विद्यते॥ ३१॥
च = तथा, स्वधर्मम् = अपने धर्मको, अवेक्ष्य = देखकर, अपि = भी (तू), विकम्पितुम् = भय करने, न अर्हसि = योग्य नहीं है यानी तुझे भय नहीं करना चाहिये, हि = क्योंकि, क्षत्रियस्य = क्षत्रियके लिये, धर्म्यात् = धर्मयुक्त, युद्धात् = युद्धसे (बढ़कर), अन्यत् = दूसरा (कोई), श्रेय: = कल्याणकारी कर्तव्य, न = नहीं, विद्यते = है।
‘तुम्हारे स्वयं के धर्म के दृष्टिकोण से, तुम्हारे लिये विचलित होना उचित नहीं है; एक क्षत्रिय के लिये केवल एक युद्ध से अधिक शुभ कुछ भी नहीं है’।
व्याख्या—[पहले दो श्लोकोंमें युद्धसे होनेवाले लाभका वर्णन करते हैं। ]
‘स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि’—यह स्वयं परमात्माका अंश है। जब यह शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब यह ‘स्व’ को अर्थात् अपने-आपको जो कुछ मानता है, उसका कर्तव्य ‘स्वधर्म’ कहलाता है। जैसे, कोई अपने-आपको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र मानता है, तो अपने-अपने वर्णोचित कर्तव्योंका पालन करना उसका स्वधर्म है। कोई अपनेको शिक्षक या नौकर मानता है तो शिक्षक या नौकरके कर्तव्योंका पालन करना उसका स्वधर्म है। कोई अपनेको किसीका पिता या किसीका पुत्र मानता है, तो पुत्र या पिताके प्रति किये जानेवाले कर्तव्योंका पालन करना उसका स्वधर्म है।
यहाँ क्षत्रियके कर्तव्य-कर्मको ‘धर्म’ नामसे कहा गया है*।
(* अठारहवें अध्यायमें जहाँ (१८। ४२—४८ में) चारों वर्णोंके कर्तव्य-कर्मोंका वर्णन आया है, वहाँ बीचमें ‘धर्म’ शब्द भी आया है—‘श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ’ (१८। ४७)। इससे ‘कर्म’ और ‘धर्म’ शब्द पर्यायवाची सिद्ध होते हैं।)
क्षत्रियका खास कर्तव्य-कर्म है—युद्धसे विमुख न होना। अर्जुन क्षत्रिय हैं; अत: युद्ध करना उनका स्वधर्म है। इसलिये भगवान् कहते हैं कि अगर स्वधर्मको लेकर देखा जाय तो भी क्षात्रधर्मके अनुसार तुम्हारे लिये युद्ध करना ही कर्तव्य है। अपने कर्तव्यसे तुम्हें कभी विमुख नहीं होना चाहिये।
‘धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते’—धर्ममय युद्धसे बढ़कर क्षत्रियके लिये दूसरा कोई कल्याण-कारक कर्म नहीं है अर्थात् क्षत्रियके लिये क्षत्रियके कर्तव्यका अनुष्ठान करना ही खास काम है (गीता—अठारहवें अध्यायका तैंतालीसवाँ श्लोक)। [ ऐसे ही ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रके लिये भी अपने-अपने कर्तव्यका अनुष्ठान करनेके सिवाय दूसरा कोई कल्याणकारी कर्म नहीं है। ]
अर्जुनने सातवें श्लोकमें प्रार्थना की थी कि आप मेरे लिये निश्चित श्रेयकी बात कहिये। उसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं कि श्रेय (कल्याण) तो अपने धर्मका पालन करनेसे ही होगा। किसी भी दृष्टिसे अपने धर्मका त्याग कल्याणकारक नहीं है। अत: तुम्हें अपने युद्धरूप धर्मसे विमुख नहीं होना चाहिये।
परिशिष्ट भाव—देह-देहीके विवेकका वर्णन करनेके बाद अब भगवान् यहाँसे अड़तीसवें श्लोकतक देहीके स्वधर्मपालन (कर्तव्यपालन)-का वर्णन करते हैं। कारण कि देह-देहीके विवेकसे जो तत्त्व मिलता है, वही तत्त्व देहके सदुपयोगसे, स्वधर्मके पालनसे भी मिल सकता है। विवेकमें ‘जानना’ मुख्य है और स्वधर्मपालनमें ‘करना’ मुख्य है। यद्यपि मनुष्यके लिये विवेक मुख्य है, जो व्यवहार और परमार्थमें, लोक और परलोकमें सब जगह काम आता है। परन्तु जो मनुष्य देह-देहीके विवेकको न समझ सके, उसके लिये भगवान् स्वधर्मपालनकी बात कहते हैं, जिससे वह कोरा वाचक ज्ञानी न बनकर वास्तविक तत्त्वका अनुभव कर सके।
तात्पर्य है कि जो मनुष्य परमात्मतत्त्वको जानना चाहता है, पर तीक्ष्ण बुद्धि और तेजीका वैराग्य न होनेके कारण ज्ञानयोगसे नहीं जान सका तो वह कर्मयोगसे परमात्मतत्त्वको जान सकता है; क्योंकि ज्ञानयोगसे जो अनुभव होता है, वही कर्मयोगसे भी हो सकता है (गीता—पाँचवें अध्यायका चौथा-पाँचवाँ श्लोक)।
अर्जुन क्षत्रिय थे, इसलिये भगवान् ने इस प्रकरणमें क्षात्रधर्मकी बात कही है। वास्तवमें यहाँ क्षात्रधर्म चारों वर्णोंका उपलक्षण है। इसलिये ब्राह्मणादि अन्य वर्णोंको भी यहाँ अपना-अपना धर्म (कर्तव्य) समझ लेना चाहिये। (गीता— अठारहवें अध्यायका बयालीसवाँ, तैंतालीसवाँ और चौवालीसवाँ श्लोक)।
[‘स्वधर्म’ को ही स्वभावज कर्म, सहज कर्म, स्वकर्म आदि नामोंसे कहा गया है (गीता—अठारहवें अध्यायके इकतालीसवेंसे अड़तालीसवें श्लोकतक)। स्वार्थ, अभिमान और फलेच्छाका त्याग करके दूसरेके हितके लिये कर्म करना स्वधर्म है। स्वधर्मका पालन ही कर्मयोग है।]