श्रीभगवानुवाच ।
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥ २-२॥
कुत:, त्वा, कश्मलम्, इदम्, विषमे, समुपस्थितम्,
अनार्यजुष्टम्, अस्वर्ग्यम्, अकीर्तिकरम्, अर्जुन॥ २॥
अर्जुन = हे अर्जुन!, त्वा = तुझे (इस), विषमे = असमयमें, इदम् = यह, कश्मलम् = मोह, कुत: = किस हेतुसे, समुपस्थितम् = प्राप्त हुआ, यत: = क्योंकि, अनार्यजुष्टम् = न तो यह श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा आचरित है, अस्वर्ग्यम् = न स्वर्गको देनेवाला है और, अकीर्तिकरम् = न कीर्तिको करनेवाला ही है।
श्रीभगवान् बोले—हे अर्जुन! तुझे इस असमयमें यह मोह किस हेतुसे प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा आचरित है, न स्वर्गको देनेवाला है और न कीर्तिको करनेवाला ही है।
व्याख्या—‘अर्जुन’—यह सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि तुम स्वच्छ, निर्मल अन्त:करणवाले हो। अत: तुम्हारे स्वभावमें कालुष्य—कायरताका आना बिलकुल विरुद्ध बात है। फिर यह तुम्हारेमें कैसे आ गयी?
‘कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्’—भगवान् आश्चर्य प्रकट करते हुए अर्जुनसे कहते हैं कि ऐसे युद्धके मौकेपर तो तुम्हारेमें शूरवीरता, उत्साह आना चाहिये था, पर इस बेमौकेपर तुम्हारेमें यह कायरता कहाँसे आ गयी!
आश्चर्य दो तरहसे होता है—अपने न जाननेके कारण और दूसरेको चेतानेके लिये। भगवान् का यहाँ जो आश्चर्यपूर्वक बोलना है, वह केवल अर्जुनको चेतानेके लिये ही है, जिससे अर्जुनका ध्यान अपने कर्तव्यपर चला जाय।
‘कुत:’ कहनेका तात्पर्य यह है कि मूलमें यह कायरतारूपी दोष तुम्हारेमें (स्वयंमें) नहीं है। यह तो आगन्तुक दोष है, जो सदा रहनेवाला नहीं है।
‘समुपस्थितम्’ कहनेका तात्पर्य है कि यह कायरता केवल तुम्हारे भावोंमें और वचनोंमें ही नहीं आयी है; किन्तु तुम्हारी क्रियाओंमें भी आ गयी है। यह तुम्हारेपर अच्छी तरहसे छा गयी है, जिसके कारण तुम धनुष-बाण छोड़कर रथके मध्यभागमें बैठ गये हो।
‘अनार्यजुष्टम्’२—समझदार श्रेष्ठ मनुष्योंमें जो भाव पैदा होते हैं, वे अपने कल्याणके उद्देश्यको लेकर ही होते हैं।
२-‘अनार्यजुष्टम्’ पदमें जो ‘नञ्’ समास है, वह ‘आर्यैर्जुष्टमार्यजुष्टम्’—इस तृतीया समासके बाद ही करना चाहिये; जैसे—‘न आर्यजुष्टम् अनार्यजुष्टम्।’ अगर ‘नञ्’ समास तृतीया समासके पहले किया जाय कि ‘न आर्या अनार्या: अनार्यैर्जुष्टमनार्यजुष्टम्’ तो यहाँ यह कहना बनता ही नहीं; क्योंकि अनार्य पुरुषोंके द्वारा जिसका सेवन किया जाता है, वह दूसरोंके लिये आदर्श नहीं होता।
इसलिये श्लोकके उत्तरार्धमें भगवान् सबसे पहले उपर्युक्त पद देकर कहते हैं कि तुम्हारेमें जो कायरता आयी है, उस कायरताको श्रेष्ठ पुरुष स्वीकार नहीं करते। कारण कि तुम्हारी इस कायरतामें अपने कल्याणकी बात बिलकुल नहीं है। कल्याण चाहनेवाले श्रेष्ठ मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनोंमें अपने कल्याणका ही उद्देश्य रखते हैं। उनमें अपने कर्तव्यके प्रति कायरता उत्पन्न नहीं होती। परिस्थितिके अनुसार उनको जो कर्तव्य प्राप्त हो जाता है, उसको वे कल्याणप्राप्तिके उद्देश्यसे उत्साह और तत्परतापूर्वक सांगोपांग करते हैं। वे तुम्हारे-जैसे कायर होकर युद्धसे या अन्य किसी कर्तव्य-कर्मसे उपरत नहीं होते। अत: युद्ध-रूपसे प्राप्त कर्तव्य-कर्मसे उपरत होना तुम्हारे लिये कल्याणकारक नहीं है।
‘अस्वर्ग्यम्’—कल्याणकी बात सामने न रखकर अगर सांसारिक दृष्टिसे भी देखा जाय, तो संसारमें स्वर्गलोक ऊँचा है। परन्तु तुम्हारी यह कायरता स्वर्गको देनेवाली भी नहीं है अर्थात् कायरतापूर्वक युद्धसे निवृत्त होनेका फल स्वर्गकी प्राप्ति भी नहीं हो सकता।
‘अकीर्तिकरम्’—अगर स्वर्गप्राप्तिका भी लक्ष्य न हो, तो अच्छा माना जानेवाला पुरुष वही काम करता है, जिससे संसारमें कीर्ति हो। परन्तु तुम्हारी यह जो कायरता है, यह इस लोकमें भी कीर्ति (यश) देनेवाली नहीं है, प्रत्युत अपकीर्ति (अपयश) देनेवाली है। अत: तुम्हारेमें कायरताका आना सर्वथा ही अनुचित है।
भगवान् ने यहाँ ‘अनार्यजुष्टम्’ ‘अस्वर्ग्यम्’ और ‘अकीर्तिकरम्’—ऐसा क्रम देकर तीन प्रकारके मनुष्य बताये हैं—(१) जो विचारशील मनुष्य होते हैं, वे केवल अपना कल्याण ही चाहते हैं। उनका ध्येय, उद्देश्य केवल कल्याणका ही होता है। (२) जो पुण्यात्मा मनुष्य होते हैं, वे शुभ-कर्मोंके द्वारा स्वर्गकी प्राप्ति चाहते हैं। वे स्वर्गको ही श्रेष्ठ मानकर उसकी प्राप्तिका ही उद्देश्य रखते हैं। (३) जो साधारण मनुष्य होते हैं, वे संसारको ही आदर देते हैं। इसलिये वे संसारमें अपनी कीर्ति चाहते हैं और उस कीर्तिको ही अपना ध्येय मानते हैं।
उपर्युक्त तीनों पद देकर भगवान् अर्जुनको सावधान करते हैं कि तुम्हारा जो यह युद्ध न करनेका निश्चय है, यह विचारशील और पुण्यात्मा मनुष्योंके ध्येय—कल्याण और स्वर्गको प्राप्त करानेवाला भी नहीं है, तथा साधारण मनुष्योंके ध्येय—कीर्तिको प्राप्त करानेवाला भी नहीं है। अत: मोहके कारण तुम्हारा युद्ध न करनेका निश्चय बहुत ही तुच्छ है, जो कि तुम्हारा पतन करनेवाला, तुम्हें नरकोंमें ले जानेवाला और तुम्हारी अपकीर्ति करनेवाला होगा।
सम्बन्ध—कायरता आनेके बाद अब क्या करें? इस जिज्ञासाको दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं—