अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥28॥
अव्यक्तादीनि, भूतानि, व्यक्तमध्यानि, भारत,
अव्यक्तनिधनानि, एव, तत्र, का, परिदेवना॥ २८॥
भारत = हे अर्जुन!, भूतानि = सम्पूर्ण प्राणी, अव्यक्तादीनि = जन्मसे पहले अप्रकट थे (और), अव्यक्त निधनानि एव = मरनेके बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं (केवल), व्यक्तमध्यानि = बीचमें ही प्रकट हैं (फिर), तत्र = ऐसी स्थितिमें, का = क्या, परिदेवना = शोक करना है।
हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं, केवल बीचमें ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थितिमें क्या शोक करना है?।
व्याख्या—‘अव्यक्तादीनि भूतानि’—देखने, सुनने और समझनेमें आनेवाले जितने भी प्राणी (शरीर आदि) हैं, वे सब-के-सब जन्मसे पहले अप्रकट थे अर्थात् दीखते नहीं थे।
‘अव्यक्तनिधनान्येव’—ये सभी प्राणी मरनेके बाद अप्रकट हो जायँगे अर्थात् इनका नाश होनेपर ये सभी ‘नहीं’ में चले जायँगे, दीखेंगे नहीं।
‘व्यक्तमध्यानि’—ये सभी प्राणी बीचमें अर्थात् जन्मके बाद और मृत्युके पहले प्रकट दिखायी देते हैं। जैसे सोनेसे पहले भी स्वप्न नहीं था और जगनेपर भी स्वप्न नहीं रहा, ऐसे ही इन प्राणियोंके शरीरोंका पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव रहेगा। परन्तु बीचमें भावरूपसे दीखते हुए भी वास्तवमें इनका प्रतिक्षण अभाव हो रहा है।
‘तत्र का परिदेवना’—जो आदि और अन्तमें नहीं होता, वह बीचमें भी नहीं होता—यह सिद्धान्त है१।
(१-आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा। (माण्डूक्यकारिका ४। ३१))
सभी प्राणियोंके शरीर पहले नहीं थे और पीछे नहीं रहेंगे; अत: वास्तवमें वे बीचमें भी नहीं हैं। परन्तु यह शरीरी पहले भी था और पीछे भी रहेगा; अत: वह बीचमें भी रहेगा ही। निष्कर्ष यह निकला कि शरीरोंका सदा अभाव है और शरीरीका कभी भी अभाव नहीं है। इसलिये इन दोनोंके लिये शोक नहीं हो सकता।
परिशिष्ट भाव—जो आदि और अन्तमें नहीं है, उसका ‘नहीं’-पना नित्य-निरन्तर है तथा जो आदि और अन्तमें है, उसका ‘है’-पना नित्य-निरन्तर है२।
(२-(क) यस्तु यस्यादिरन्तश्च स वै मध्यं च तस्य सन्। (श्रीमद्भा० ११। २४। १७)
‘जिसके आदि और अन्तमें जो है, वही बीचमें भी है और वही सत्य है।’
(ख) आद्यन्तयोरस्य यदेव केवलं कालश्च हेतुश्च तदेव मध्ये॥ (श्रीमद्भा० ११। २८। १८)
‘इस संसारके आदिमें जो था तथा अन्तमें जो रहेगा, जो इसका मूल कारण और प्रकाशक है, वही परमात्मा बीचमें भी है।’
(ग) न यत् पुरस्तादुत यन्न पश्चान्मध्ये च तन्न व्यपदेशमात्रम्। (श्रीमद्भा० ११। २८। २१)
‘जो उत्पत्तिसे पहले नहीं था और प्रलयके बाद भी नहीं रहेगा, ऐसा समझना चाहिये कि बीचमें भी वह है नहीं, केवल कल्पनामात्र, नाममात्र ही है।’)
जिसका ‘नहीं’ पना नित्य-निरन्तर है, वह ‘असत्’ (शरीर) है और जिसका ‘है’-पना नित्य-निरन्तर है, वह ‘सत्’ (शरीरी) है। असत् के साथ हमारा नित्यवियोग है और सत् के साथ हमारा नित्ययोग है।
सम्बन्ध—अब भगवान् शरीरीकी अलौकिकताका वर्णन करते हैं।