जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥27॥
जातस्य, हि, ध्रुव:, मृत्यु:, ध्रुवम्, जन्म, मृतस्य, च, तस्मात्,
अपरिहार्ये, अर्थे, न, त्वम्, शोचितुम्, अर्हसि॥ २७॥
हि = क्योंकि (इस मान्यताके अनुसार), जातस्य = जन्मे हुएकी, मृत्यु: = मृत्यु, ध्रुव: = निश्चित है, च = और, मृतस्य = मरे हुएका, जन्म = जन्म, ध्रुवम् = निश्चित है, तस्मात् = इससे (भी इस), अपरिहार्ये = बिना उपायवाले, अर्थे = विषयमें, त्वम् = तू, शोचितुम् = शोक करनेको, न अर्हसि = योग्य नहीं है।
‘जो भी पैदा हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है; मरने वाले के लिये जन्म भी निश्चित है; अतः इस अपरिहार्य सत्य के कारण तुम्हारे लिये यह शोक करना उपयुक्त नहीं है’।
व्याख्या—‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च’—पूर्वश्लोकके अनुसार अगर शरीरीको नित्य जन्मने और मरनेवाला भी मान लिया जाय, तो भी वह शोकका विषय नहीं हो सकता। कारण कि जिसका जन्म हो गया है, वह जरूर मरेगा और जो मर गया है, वह जरूर जन्मेगा।
‘तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि’—इसलिये कोई भी इस जन्म-मृत्युरूप प्रवाहका परिहार (निवारण) नहीं कर सकता; क्योंकि इसमें किसीका किंचिन्मात्र भी वश नहीं चलता। यह जन्म-मृत्युरूप प्रवाह तो अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकालतक चलता रहेगा। इस दृष्टिसे तुम्हारे लिये शोक करना उचित नहीं है।
ये धृतराष्ट्रके पुत्र जन्में हैं, तो जरूर मरेंगे। तुम्हारे पास ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे तुम उनको बचा सको। जो मर जायँगे, वे जरूर जन्मेंगे। उनको भी तुम रोक नहीं सकते। फिर शोक किस बातका?
शोक उसीका कीजिये, जो अनहोनी होय।
अनहोनी होती नहीं, होनी है सो होय॥
जैसे, इस बातको सब जानते हैं कि सूर्यका उदय हुआ है, तो उसका अस्त होगा ही और अस्त होगा तो उसका उदय होगा ही। इसलिये मनुष्य सूर्यका अस्त होनेपर शोक-चिन्ता नहीं करते। ऐसे ही हे अर्जुन! अगर तुम ऐसा मानते हो कि शरीरके साथ ये भीष्म, द्रोण आदि सभी मर जायँगे, तो फिर शरीरके साथ जन्म भी जायँगे। अत: इस दृष्टिसे भी शोक नहीं हो सकता।
भगवान् ने इन दो (छब्बीसवें-सत्ताईसवें) श्लोकोंमें जो बात कही है, वह भगवान् का कोई वास्तविक सिद्धान्त नहीं है। अत: ‘अथ च’ पद देकर भगवान् ने दूसरे (शरीर- शरीरीको एक माननेवाले) पक्षकी बात कही है कि ऐसा सिद्धान्त तो है नहीं, पर अगर तू ऐसा भी मान ले, तो भी शोक करना उचित नहीं है।
इन दो श्लोकोंका तात्पर्य यह हुआ कि संसारकी मात्र चीजें प्रतिक्षण परिवर्तनशील होनेसे पहले रूपको छोड़कर दूसरे रूपको धारण करती रहती हैं। इसमें पहले रूपको छोड़ना—यह मरना हो गया और दूसरे रूपको धारण करना—यह जन्मना हो गया। इस प्रकार जो जन्मता है, उसकी मृत्यु होती है और जिसकी मृत्यु होती है, वह फिर जन्मता है—यह प्रवाह तो हरदम चलता ही रहता है। इस दृष्टिसे भी क्या शोक करें?
परिशिष्ट भाव—किसी प्रियजनकी मृत्यु हो जाय, धन नष्ट हो जाय तो मनुष्यको शोक होता है। ऐसे ही भविष्यको लेकर चिन्ता होती है कि अगर स्त्री मर गयी तो क्या होगा? पुत्र मर गया तो क्या होगा? आदि। ये शोक-चिन्ता अपने विवेकको महत्त्व न देनेके कारण ही होते हैं। संसारमें परिवर्तन होना, परिस्थिति बदलना आवश्यक है। अगर परिस्थिति नहीं बदलेगी तो संसार कैसे चलेगा? मनुष्य बालकसे जवान कैसे बनेगा? मूर्खसे विद्वान् कैसे बनेगा? रोगीसे नीरोग कैसे बनेगा? बीजका वृक्ष कैसे बनेगा? परिवर्तनके बिना संसार स्थिर चित्रकी तरह बन जायगा! वास्तवमें मरनेवाला (परिवर्तनशील) ही मरता है, रहनेवाला कभी मरता ही नहीं। यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है कि मृत्यु होनेपर शरीर तो हमारे सामने पड़ा रहता है, पर शरीरका मालिक (जीवात्मा) निकल जाता है। अगर इस अनुभवको महत्त्व दें तो फिर चिन्ता-शोक हो ही नहीं सकते। बालिके मरनेपर भगवान् राम इसी अनुभवकी ओर ताराका लक्ष्य कराते हैं—
तारा बिकल देखि रघुराया ।
दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥
छिति जल पावक गगन समीरा ।
पंच रचित अति अधम सरीरा॥
प्रगट सो तनु तव आगें सोवा ।
जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा॥
उपजा ग्यान चरन तब लागी।
लीन्हेसि परम भगति बर माँगी॥
(मानस, किष्किन्धा० ११। २-३)
विचार करना चाहिये कि जब चौरासी लाख योनियोंमें कोई भी शरीर नहीं रहा, तो फिर यह शरीर कैसे रहेगा? जब चौरासी लाख शरीर मैं-मेरे नहीं रहे, तो फिर यह शरीर मैं-मेरा कैसे रहेगा? यह विवेक मनुष्य-शरीरमें हो सकता है, अन्य शरीरोंमें नहीं।
सम्बन्ध—पीछेके दो श्लोकोंमें पक्षान्तरकी बात कहकर अब भगवान् अागेके श्लोकमें बिलकुल साधारण दृष्टिकी बात कहते हैं।