यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥15॥
यम्, हि, न, व्यथयन्ति, एते, पुरुषम्, पुरुषर्षभ,
समदु:खसुखम्, धीरम्, स:, अमृतत्वाय, कल्पते॥ १५॥
हि = क्योंकि, पुरुषर्षभ = हे पुरुषश्रेष्ठ!, समदु:खसुखम् = दु:ख-सुखको समान समझनेवाले, यम् = जिस, धीरम् = धीर, पुरुषम् = पुरुषको, एते = ये (इन्द्रिय और विषयोंके संयोग), न व्यथयन्ति = व्याकुल नहीं करते, स: = वह, अमृतत्वाय = मोक्षके, कल्पते = योग्य होता है।
क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दु:ख-सुखको समान समझनेवाले जिस धीर पुरुषको ये इन्द्रिय और विषयोंके संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्षके योग्य होता है।
व्याख्या—‘पुरुषर्षभ’—मनुष्य प्राय: परिस्थितियोंको बदलनेका ही विचार करता है, जो कभी बदली नहीं जा सकतीं और जिनको बदलना सम्भव ही नहीं। युद्धरूपी परिस्थितिके प्राप्त होनेपर अर्जुनने उसको बदलनेका विचार न करके अपने कल्याणका विचार कर लिया है। यह कल्याणका विचार करना ही मनुष्योंमें उनकी श्रेष्ठता है।
‘समदु:खसुखं धीरम्’—धीर मनुष्य सुख-दु:खमें सम होता है। अन्त:करणकी वृत्तिसे ही सुख और दु:ख— ये दोनों अलग-अलग दीखते हैं। सुख-दु:खके भोगनेमें पुरुष (चेतन) हेतु है, और वह हेतु बनता है प्रकृतिमें स्थित होनेसे (गीता—तेरहवें अध्यायका बीसवाँ-इक्कीसवाँ श्लोक)। जब वह अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है, तब सुख-दु:खको भोगनेवाला कोई नहीं रहता। अत: अपने-आपमें स्थित होनेसे वह सुख-दु:खमें स्वाभाविक ही सम हो जाता है।
‘यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषम्’—धीर मनुष्यको ये मात्रास्पर्श अर्थात् प्रकृतिके मात्र पदार्थ व्यथा नहीं पहुँचाते। प्राकृत पदार्थोंके संयोगसे जो सुख होता है, वह भी व्यथा है और उन पदार्थोंके वियोगसे जो दु:ख होता है, वह भी व्यथा है। परन्तु जिसकी दृष्टि समताकी तरफ है, उसको ये प्राकृत पदार्थ सुखी-दु:खी नहीं कर सकते। समताकी तरफ दृष्टि रहनेसे अनुकूलताको लेकर उस सुखका ज्ञान तो होता है, पर उसका भोग न होनेसे अन्त:करणमें उस सुखका स्थायी रूपसे संस्कार नहीं पड़ता। ऐसे ही प्रतिकूलता आनेपर उस दु:खका ज्ञान तो होता है, पर उसका भोग न होनेसे अन्त:करणमें उस दु:खका स्थायीरूपसे संस्कार नहीं पड़ता। इस प्रकार सुख-दु:खके संस्कार न पड़नेसे वह व्यथित नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि अन्त:करणमें सुख-दु:खका ज्ञान होनेसे वह स्वयं सुखी-दु:खी नहीं होता।
‘सोऽमृतत्वाय कल्पते’—ऐसा धीर मनुष्य अमरताके योग्य हो जाता है अर्थात् उसमें अमरता प्राप्त करनेकी सामर्थ्य आ जाती है। सामर्थ्य, योग्यता आनेपर वह अमर हो ही जाता है, इसमें देरीका कोई काम नहीं। कारण कि उसकी अमरता तो स्वत:सिद्ध है। केवल पदार्थोंके संयोग-वियोगसे जो अपनेमें विकार मानता था, यही गलती थी।
विशेष बात
यह मनुष्य-योनि सुख-दु:ख भोगनेके लिये नहीं मिली है, प्रत्युत सुख-दु:खसे ऊँचा उठकर महान् आनन्द, परम शान्तिकी प्राप्तिके लिये मिली है, जिस आनन्द, सुख-शान्तिके प्राप्त होनेके बाद और कुछ प्राप्त करना बाकी नहीं रहता (गीता ६। २२)। अगर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिके होनेमें अथवा उनकी सम्भावनामें हम सुखी होंगे अर्थात् हमारे भीतर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति आदिको प्राप्त करनेकी कामना, लोलुपता रहेगी तो हम अनुकूलताका सदुपयोग नहीं कर सकेंगे। अनुकूलताका सदुपयोग करनेकी सामर्थ्य, शक्ति हमें प्राप्त नहीं हो सकेगी। कारण कि अनुकूलताका सदुपयोग करनेकी शक्ति अनुकूलताके भोगमें खर्च हो जायगी, जिससे अनुकूलताका सदुपयोग नहीं होगा; किन्तु भोग ही होगा। इसी रीतिसे प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, क्रिया आदिके आनेपर अथवा उनकी आशंकासे हम दु:खी होंगे तो प्रतिकूलताका सदुपयोग नहीं होगा; किन्तु भोग ही होगा। दु:खको सहनेकी सामर्थ्य हमारेमें नहीं रहेगी। अत: हम प्रतिकूलताके भोगमें ही फँसे रहेंगे और दु:खी होते रहेंगे।
अगर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदिके प्राप्त होनेपर सुख-सामग्रीका अपने सुख, आराम, सुविधाके लिये उपयोग करेंगे और उससे राजी होंगे तो यह अनुकूलताका भोग हुआ। परन्तु निर्वाह-बुद्धिसे उपयोग करते हुए उस सुख-सामग्रीको अभावग्रस्तोंकी सेवामें लगा दें तो यह अनुकूलताका सदुपयोग हुआ। अत: सुख-सामग्रीको दु:खियोंकी ही समझें। उसमें दु:खियोंका ही हक है। मान लो कि हम लखपति हैं तो हमें लखपति होनेका सुख होता है, अभिमान होता है। परन्तु यह सब तब होता है, जब हमारे सामने कोई लखपति न हो। अगर हमारे सामने, हमारे देखने-सुननेमें जो आते हैं, वे सब-के-सब करोड़पति हों, तो क्या हमें लखपति होनेका सुख मिलेगा? बिलकुल नहीं मिलेगा। अत: हमें लखपति होनेका सुख तो अभावग्रस्तोंने, दरिद्रोंने ही दिया है। अगर हम मिली हुई सुख-सामग्रीसे अभावग्रस्तोंकी सेवा न करके स्वयं सुख भोगते हैं, तो हम कृतघ्न होते हैं। इसीसे सब अनर्थ पैदा होते हैं। कारण कि हमारे पास जो सुख-सामग्री है, वह दु:खी आदमियोंकी ही दी हुई है। अत: उस सुख-सामग्रीको दु:खियोंकी सेवामें लगा देना हमारा कर्तव्य होता है।
अब विचार यह करना है कि प्रतिकूलताका सदुपयोग कैसे किया जाय? दु:खका कारण सुखकी इच्छा, आशा ही है। प्रतिकूल परिस्थिति दु:खदायी तभी होती है, जब भीतर सुखकी इच्छा रहती है। अगर हम सावधानीके साथ अनुकूलताकी इच्छाका, सुखकी आशाका त्याग कर दें, तो फिर हमें प्रतिकूल परिस्थितिमें दु:ख नहीं हो सकता अर्थात् हमें प्रतिकूल परिस्थिति दु:खी नहीं कर सकती। जैसे, रोगीको कड़वी-से-कड़वी दवाई लेनी पड़े, तो भी उसे दु:ख नहीं होता, प्रत्युत इस बातको लेकर प्रसन्नता होती है कि इस दवाईसे मेरा रोग नष्ट हो रहा है। ऐसे ही पैरमें काँटा गहरा गड़ जाय और काँटा निकालनेवाला उसे निकालनेके लिये सुईसे गहरा घाव बनाये तो बड़ी पीड़ा होती है। उस पीड़ासे वह सिसकता है, घबराता है, पर वह काँटा निकालनेवालेको यह कभी नहीं कहता कि भाई, तुम छोड़ दो, काँटा मत निकालो। काँटा निकल जायगा, सदाके लिये पीड़ा दूर हो जायगी—इस बातको लेकर वह इस पीड़ाको प्रसन्नतापूर्वक सह लेता है। यह जो सुखकी इच्छाका त्याग करके दु:खको, पीड़ाको प्रसन्नतापूर्वक सहना है यह प्रतिकूलताका सदुपयोग है। अगर वह कड़वी दवाई लेनेसे, काँटा निकालनेकी पीड़ासे दु:खी हो जाता है, तो यह प्रतिकूलताका भोग है, जिससे उसको भयंकर दु:ख पाना पड़ेगा।
यदि हम सुख-दु:खका उपभोग करते रहेंगे, तो भविष्यमें हमें भोग-योनियोंमें अर्थात् स्वर्ग, नरक आदिमें जाना ही पड़ेगा। कारण कि सुख-दु:ख भोगनेके स्थान ये स्वर्ग, नरक आदि ही हैं। यदि हम सुख-दु:खका भोग करते हैं, सुख-दु:खमें सम नहीं रहते, सुख-दु:खसे ऊँचे नहीं उठते, तो हम मुक्तिके पात्र कैसे होंगे? नहीं हो सकते।
चौदहवें श्लोकमें भगवान् ने कहा कि ये सांसारिक पदार्थ आदि अनुकूलता-प्रतिकूलताके द्वारा सुख-दु:ख देनेवाले और आने-जानेवाले हैं, सदा रहनेवाले नहीं हैं; क्योंकि ये अनित्य हैं, क्षणभंगुर हैं। इनके प्राप्त होनेपर उसी क्षण इनका नष्ट होना शुरू हो जाता है। इनका संयोग होते ही इनसे वियोग होना शुरू हो जाता है। ये पहले नहीं थे, पीछे नहीं रहेंगे और वर्तमानमें भी प्रतिक्षण अभावमें जा रहे हैं। इनको भोगकर हम केवल अपना स्वभाव बिगाड़ रहे हैं, सुख- दु:खके भोगी बनते जा रहे हैं। सुख-दु:खके भोगी बनकर हम भोगयोनिके ही पात्र बनते जा रहे हैं, फिर हमें मुक्ति कैसे मिलेगी? हमें भुक्ति (भोग) की ही रुचि है, तो फिर भगवान् हमें मुक्ति कैसे देंगे?
इस प्रकार यदि हम सुख-दु:खका उपभोग न करके उनका सदुपयोग करेंगे, तो हम सुख-दु:खसे ऊँचे उठ जायँगे और महान् आनन्दका अनुभव कर लेंगे।
परिशिष्ट भाव—स्वरूप सत्तारूप है। सत्तामें कोई व्यथा नहीं है। शरीरमें अपनी स्थिति माननेसे ही व्यथा होती है। अत: शरीरमें अपनी स्थिति मानते हुए कोई भी मनुष्य व्यथारहित नहीं हो सकता। व्यथारहित होनेका तात्पर्य है— प्रियको प्राप्त होकर हर्षित न होना और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न न होना (गीता—पाँचवें अध्यायका बीसवाँ श्लोक)। व्यथारहित होनेसे मनुष्यकी बुद्धि स्थिर हो जाती है—‘स्थिरबुद्धिरसम्मूढ:’ (गीता ५। २०)।
सुखदायी-दु:खदायी परिस्थितिसे सुखी-दु:खी होना ही व्यथित होना है। सुखी-दु:खी होना सुख-दु:खका भोग है। भोगी व्यक्ति कभी सुखी नहीं रह सकता। साधकको सुख-दु:खका भोग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत सुख-दु:खका सदुपयोग करना चाहिये। सुखदायी-दु:खदायी परिस्थितिका प्राप्त होना प्रारब्ध है और उस परिस्थितिको साधन-सामग्री मानकर उसका सदुपयोग करना वास्तविक पुरुषार्थ है। इस पुरुषार्थसे अमरताकी प्राप्ति हो जाती है। सुखका सदुपयोग है—दूसरोंको सुख पहुँचाना, उनकी सेवा करना और दु:खका सदुपयोग है—सुखकी इच्छाका त्याग करना। दु:खका सदुपयोग करनेपर साधक दु:खके कारणकी खोज करता है। दु:खका कारण है—सुखकी इच्छा—‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते’ (गीता ५। २२)। जो सुख-दु:खका भोग करता है, उस भोगीका पतन हो जाता है और जो सुख-दु:खका सदुपयोग करता है, वह योगी सुख-दु:ख दोनोंसे ऊँचे उठकर अमरताका अनुभव कर लेता है।
सम्बन्ध—अबतक देह-देहीका जो विवेचन हुआ है, उसीको भगवान् दूसरे शब्दोंसे आगेके तीन श्लोकोंमें कहते हैं।