लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥25॥
लभन्ते, ब्रह्मनिर्वाणम्, ऋषय:, क्षीणकल्मषा:,
छिन्नद्वैधा:, यतात्मान:, सर्वभूतहिते, रता:॥ २५॥
क्षीणकल्मषा: = जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, छिन्नद्वैधा: = जिनके सब संशय ज्ञानके द्वारा निवृत्त हो गये हैं, सर्वभूतहिते = जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें, रता: = रत हैं (और), यतात्मान: = जिनका जीता हुआ मन, निश्चलभावसे परमात्मामें स्थित है (वे), ऋषय: = ब्रह्मवेत्ता पुरुष, ब्रह्मनिर्वाणम् = शान्त ब्रह्मको, लभन्ते = प्राप्त होते हैं।
‘वे जिनकी अपूर्णताएँ समाप्त हो गई हैं, संदेह भंग हो गये हैं, इन्द्रियाँ जीत ली गई हैं, और जो सभी प्राणियों के हित साधन में लगे हुए हैं, ऐसे ऋषि ब्रह्म में पूर्ण स्वतंत्रता को प्राप्त करते हैं’।
व्याख्या—‘यतात्मान:’—नित्य सत्यतत्त्वकी प्राप्तिका दृढ़ लक्ष्य होनेके कारण साधकोंको शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि वशमें करने नहीं पड़ते, प्रत्युत ये स्वाभाविक ही सुगमतापूर्वक उनके वशमें हो जाते हैं। वशमें होनेके कारण इनमें राग-द्वेषादि दोषोंका अभाव हो जाता है और इनके द्वारा होनेवाली प्रत्येक क्रिया दूसरोंका हित करनेवाली हो जाती है।
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको अपने और अपने लिये मानते रहनेसे ही ये अपने वशमें नहीं होते और इनमें राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि दोष विद्यमान रहते हैं। ये दोष जबतक विद्यमान रहते हैं, तबतक साधक स्वयं इनके वशमें रहता है। इसलिये साधकको चाहिये कि वह शरीरादिको कभी अपना और अपने लिये न माने। ऐसा माननेसे इनकी आग्रहकारिता समाप्त हो जाती है और ये वशमें हो जाते हैं। अत: जिनका शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिमें अपनेपनका भाव नहीं है तथा जो इन शरीरादिको कभी अपना स्वरूप नहीं मानते, ऐसे सावधान साधकोंके लिये यहाँ ‘यतात्मान:’ पद आया है।
‘सर्वभूतहिते रता:’—सांख्ययोगकी सिद्धिमें व्यक्तित्वका अभिमान मुख्य बाधक है। इस व्यक्तित्वके अभिमानको मिटाकर तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव करनेके लिये सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका भाव होना आवश्यक है। सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें प्रीति ही उसके व्यक्तित्वको मिटानेका सुगम साधन है।
जो सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्वके साथ अभिन्नताका अनुभव करना चाहते हैं, उनके लिये प्राणिमात्रके हितमें प्रीति होनी आवश्यक है। जैसे अपने कहलानेवाले शरीरमें आकृति, अवयव, कार्य, नाम आदि भिन्न-भिन्न होते हुए भी ऐसा भाव रहता है कि सभी अंगोंको आराम पहुँचे, किसी भी अंगको कष्ट न हो, ऐसे ही वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, साधन-पद्धति आदि भिन्न-भिन्न होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें स्वाभाविक ही रति होनी चाहिये कि सबको सुख पहुँचे, सबका हित हो, कभी किसीको किंचिन्मात्र भी कष्ट न हो। कारण कि बाहरसे भिन्नता रहनेपर भी भीतरसे एक परमात्मतत्त्व ही समानरूपसे सबमें परिपूर्ण है। अत: प्राणिमात्रके हितमें प्रीति होनेसे व्यक्तिगत स्वार्थभाव सुगमतासे नष्ट हो जाता है और परमात्मतत्त्वके साथ अपनी अभिन्नताका अनुभव हो जाता है।
‘छिन्नद्वैधा:’—जबतक तत्त्वप्राप्तिका एक निश्चय दृढ़ नहीं होता, तबतक अच्छे-अच्छे साधकोंके अन्त:करणमें भी कुछ-न-कुछ दुविधा विद्यमान रहती है। दृढ़ निश्चय होनेपर साधकोंको अपनी साधनामें कोई संशय, विकल्प, भ्रम आदि नहीं रहता और वे असंदिग्धरूपसे तत्परतापूर्वक अपने साधनमें लग जाते हैं।
‘क्षीणकल्मषा:’—प्रकृतिसे माना हुआ जो भी सम्बन्ध है, वह सब कल्मष ही है; क्योंकि प्रकृतिसे माना हुआ सम्बन्ध ही सम्पूर्ण कल्मषों अर्थात् पापों, दोषों, विकारोंका हेतु है। प्रकृति तथा उसके कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे स्पष्टतया अपना अलग अनुभव करनेसे साधकमें निर्विकारता स्वत: आ जाती है।
‘ऋषय:’—‘ऋष्’ धातुका अर्थ है—ज्ञान। उस ज्ञान-(विवेक)को महत्त्व देनेवाले ऋषि कहलाते हैं। प्राचीनकालमें ऋषियोंने गृहस्थमें रहते हुए भी परमात्मतत्त्वको प्राप्त किया था। इस श्लोकमें भी सांसारिक व्यवहार करते हुए विवेकपूर्वक परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये साधन करनेवाले साधकोंका वर्णन है। अत: अपने विवेकको महत्त्व देनेवाले ये साधक भी ऋषि ही हैं।
‘लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणम्’—ब्रह्म तो सभीको सदा-सर्वदा प्राप्त है ही, पर परिवर्तनशील शरीर आदिसे अपनी एकता मान लेनेके कारण मनुष्य ब्रह्मसे विमुख रहता है। जब शरीरादि उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, तब सम्पूर्ण विकारों और संशयोंका नाश होकर सर्वत्र परिपूर्ण ब्रह्मका अनुभव हो जाता है।
‘लभन्ते’—पदका तात्पर्य है कि जैसे लहरें समुद्रमें लीन हो जाती हैं, ऐसे ही सांख्ययोगी निर्वाण ब्रह्ममें लीन हो जाते हैं। जैसे जल-तत्त्वमें समुद्र और लहरें—ये दो भेद नहीं हैं, ऐसे ही निर्वाण ब्रह्ममें आत्मा और परमात्मा—ये दो भेद नहीं हैं।
परिशिष्ट भाव—लोगोंकी दृष्टिमें ज्ञानयोगी दूसरोंका हित करता हुआ (सर्वभूतहिते रता:) दीखता है, पर वास्तवमें वह दूसरोंका हित करता नहीं, प्रत्युत उसके द्वारा स्वत:-स्वाभाविक दूसरोंका हित होता है।
सम्बन्ध—चौबीसवें-पचीसवें श्लोकोंमें भगवान् ने सांख्ययोगके साधकोंद्वारा निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त करनेकी बात कही। अब आगेके श्लोकमें यह बताते हैं कि निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति होनेपर उसका कैसा अनुभव होता है?