योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥24॥
य:, अन्त:सुख:, अन्तराराम:, तथा, अन्तर्ज्योति:,एव, य:,
स:, योगी, ब्रह्मनिर्वाणम्, ब्रह्मभूत:, अधिगच्छति॥ २४॥
य: = जो पुरुष, एव = निश्चय करके, अन्त:सुख: = अन्तरात्मामें ही सुखवाला है, अन्तराराम: = आत्मामें ही रमण करनेवाला है, तथा = तथा, य: = जो, अन्तर्ज्योति: = आत्मामें ही ज्ञानवाला है, स: = वह, ब्रह्मभूत: = सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माके साथ एकीभावको प्राप्त, योगी = सांख्ययोगी, ब्रह्मनिर्वाणम् = शान्त ब्रह्मको, अधिगच्छति = प्राप्त होता है।
‘जिसकी प्रसन्नता अन्तर में है, जिसकी विश्रान्ति अन्तर में है, जिसकी ज्योति अन्तर में है, केवल वही योगी ब्रह्म बन कर, ब्रह्म में पूर्णस्वतंत्रता को प्राप्त करता है।’
व्याख्या—‘योऽन्त:सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव य:’—जिसको प्रकृतिजन्य बाह्य पदार्थोंमें सुख प्रतीत नहीं होता, प्रत्युत एकमात्र परमात्मामें ही सुख मिलता है, ऐसे साधकको यहाँ ‘अन्त:सुख:’ कहा गया है। परमात्मतत्त्वके सिवाय कहीं भी उसकी सुख-बुद्धि नहीं रहती। परमात्मतत्त्वमें सुखका अनुभव उसे हर समय होता है; क्योंकि उसके सुखका आधार बाह्य पदार्थोंका संयोग नहीं होता।
स्वयं अपनी सत्तामें निरन्तर स्थित रहनेके लिये बाह्यकी किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। स्वयंको स्वयंसे दु:ख नहीं होता, स्वयंको स्वयंसे अरुचि नहीं होती—यह अन्त:सुख है।
जो सदाके लिये न मिले और सभीको न मिले, वह ‘बाह्य’ है। परन्तु जो सदाके लिये मिले और सभीको मिले, वह ‘आभ्यन्तर’ है।
जो भोगोंमें रमण नहीं करता, प्रत्युत केवल परमात्मतत्त्वमें ही रमण करता है, और व्यवहारकालमें भी जिसका एकमात्र परमात्मतत्त्वमें ही व्यवहार हो रहा है, ऐसे साधकको यहाँ ‘अन्तराराम:’ कहा गया है।
इन्द्रियजन्य ज्ञान, बुद्धिजन्य ज्ञान आदि जितने भी सांसारिक ज्ञान कहे जाते हैं, उन सबका प्रकाशक और आधार परमात्मतत्त्वका ज्ञान है। जिस साधकका यह ज्ञान हर समय जाग्रत् रहता है, उसे यहाँ ‘अन्तर्ज्योति:’ कहा गया है।
सांसारिक ज्ञानका तो आरम्भ और अन्त होता है, पर उस परमात्मतत्त्वके ज्ञानका न आरम्भ होता है, न अन्त। वह नित्य-निरन्तर रहता है। इसलिये ‘सबमें एक परमात्मतत्त्व ही परिपूर्ण है’—ऐसा ज्ञान सांख्ययोगीमें नित्य-निरन्तर और स्वत:-स्वाभाविक रहता है।
‘स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति’— सांख्ययोगका ऊँचा साधक ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव करता है, जो परिच्छिन्नताका द्योतक है। कारण कि साधकमें ‘मैं स्वाधीन हूँ’, ‘मैं मुक्त हूँ’, ‘मैं ब्रह्ममें स्थित हूँ’—इस प्रकार परिच्छिन्नताके संस्कार रहते हैं। ब्रह्मभूत साधकको अपनेमें परिच्छिन्नताका अनुभव नहीं होता। जबतक किंचिन्मात्र भी परिच्छिन्नता या व्यक्तित्व शेष है, तबतक वह तत्त्वनिष्ठ नहीं हुआ है। इसलिये इस अवस्थामें सन्तोष नहीं करना चाहिये।
‘ब्रह्मनिर्वाणम्’—पदका अर्थ है—जिसमें कभी कोई हलचल हुई नहीं, है नहीं, होगी नहीं और हो सकती भी नहीं—ऐसा निर्वाण अर्थात् शान्त ब्रह्म।
जब ब्रह्मभूत सांख्ययोगीका व्यक्तित्व निर्वाण ब्रह्ममें लीन हो जाता है, तब एकमात्र निर्वाण ब्रह्म ही शेष रह जाता है अर्थात् साधक परमात्मतत्त्वके साथ अभिन्न हो जाता है—तत्त्वनिष्ठ हो जाता है, जो कि स्वत:सिद्ध है। ब्रह्मभूत अवस्थामें तो साधक ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव करता है, पर व्यक्तित्वका नाश होनेपर अनुभव करनेवाला कोई नहीं रहता। साधक ब्रह्म ही होकर ब्रह्मको प्राप्त होता है—‘ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति’ (बृहदारण्यक० ४। ४। ६)।
परिशिष्ट भाव—यहाँ ‘अन्त:’ पदका अर्थ ‘परमात्मा’ मानना चाहिये, न कि ‘अन्त:करण’। कारण कि अन्त:करणमें सुखवाले अथवा अन्त:करणमें रमण करनेवाले या अन्त:करणमें ज्ञानवाले मनुष्यको ब्रह्मकी प्राप्ति नहीं हो सकती। ब्रह्मकी प्राप्ति तो अन्त:करणसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर होती है।
सम्बन्ध—पूर्वश्लोकमें भगवान् ने निवृत्तिपूर्वक सांख्ययोगकी साधना बतायी। अब आगेके श्लोकमें प्रवृत्तिपूर्वक सांख्ययोगकी साधना बताते हैं।