यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥52॥
यदा, ते, मोहकलिलम्, बुद्धि:, व्यतितरिष्यति,
तदा, गन्तासि, निर्वेदम्, श्रोतव्यस्य, श्रुतस्य, च॥ ५२॥
यदा = जिस कालमें, ते = तेरी, बुद्धि: = बुद्धि, मोहकलिलम् = मोहरूप दलदलको, व्यतितरिष्यति = भलीभाँति पार कर जायगी, तदा = उस समय (तू), श्रुतस्य = सुने हुए, च = और, श्रोतव्यस्य = सुननेमें आनेवाले,(इस लोक और परलोकसम्बन्धी सभी भोगोंसे), निर्वेदम् = वैराग्यको, गन्तासि = प्राप्त हो जायगा।
‘जब तुम्हारी सोच माया के दूषण को पार कर लेती है, तब तुम्हें सुनी हुई और अब सुनी जाने वाली बातों के बारे में उदासीनता का भाव प्राप्त होगा’।
व्याख्या—‘यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति’—शरीरमें अहंता और ममता करना तथा शरीर-सम्बन्धी माता-पिता, भाई-भौजाई, स्त्री-पुत्र, वस्तु, पदार्थ आदिमें ममता करना ‘मोह’ है। कारण कि इन शरीरादिमें अहंता-ममता है नहीं, केवल अपनी मानी हुई है। अनुकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति, घटना आदिके प्राप्त होनेपर प्रसन्न होना और प्रतिकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति आदिके प्राप्त होनेपर उद्विग्न होना, संसारमें—परिवारमें विषमता, पक्षपात, मात्सर्य आदि विकार होना—यह सब-का-सब ‘कलिल’ अर्थात् दलदल है। इस मोहरूपी दलदलमें जब बुद्धि फँस जाती है, तब मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। फिर उसे कुछ सूझता नहीं।
यह स्वयं चेतन होता हुआ भी शरीरादि जड पदार्थोंमें अहंता-ममता करके उनके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। पर वास्तवमें यह जिन-जिन चीजोंके साथ सम्बन्ध जोड़ता है, वे चीजें इसके साथ सदा नहीं रह सकतीं और यह भी उनके साथ सदा नहीं रह सकता। परन्तु मोहके कारण इसकी इस तरफ दृष्टि ही नहीं जाती, प्रत्युत यह अनेक प्रकारके नये-नये सम्बन्ध जोड़कर संसारमें अधिक-से-अधिक फँसता चला जाता है। जैसे कोई राहगीर अपने गन्तव्य स्थानपर पहुँचनेसे पहले ही रास्तेमें अपना डेरा लगाकर खेल-कूद, हँसी-दिल्लगी आदिमें अपना समय बिता दे, ऐसे ही मनुष्य यहाँके नाशवान् पदार्थोंका संग्रह करनेमें और उनसे सुख लेनेमें तथा व्यक्ति, परिवार आदिमें ममता करके उनसे सुख लेनेमें लग गया। यही इसकी बुद्धिका मोहरूपी कलिलमें फँसना है।
हमें शरीरमें अहंता-ममता करके तथा परिवारमें ममता करके यहाँ थोड़े ही बैठे रहना है? इनमें ही फँसे रहकर अपनी वास्तविक उन्नति-(कल्याण) से वंचित थोड़े ही रहना है ? हमें तो इनमें न फँसकर अपना कल्याण करना है—ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाना ही बुद्धिका मोहरूपी दलदलसे तरना है। कारण कि ऐसा दृढ़ विचार होनेपर बुद्धि संसारके सम्बन्धोंको लेकर अटकेगी नहीं, संसारमें चिपकेगी नहीं।
मोहरूपी कलिलसे तरनेके दो उपाय हैं—विवेक और सेवा। विवेक (जिसका वर्णन दूसरे अध्यायके ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक हुआ है) तेज होता है, तो वह असत् विषयोंसे अरुचि करा देता है। मनमें दूसरोंकी सेवा करनेकी, दूसरोंको सुख पहुँचानेकी धुन लग जाय तो अपने सुख-आरामका त्याग करनेकी शक्ति आ जाती है। दूसरोंको सुख पहुँचानेका भाव जितना तेज होगा, उतना ही अपने सुखकी इच्छाका त्याग होगा। जैसे शिष्यकी गुरुके लिये, पुत्रकी माता-पिताके लिये, नौकरकी मालिकके लिये सुख पहुँचानेकी इच्छा हो जाती है, तो उनकी अपने सुख-आरामकी इच्छा स्वत: सुगमतासे मिट जाती है। ऐसे ही कर्मयोगीका संसारमात्रकी सेवा करनेका भाव हो जाता है, तो उसकी अपने सुख-भोगकी इच्छा स्वत: मिट जाती है।
विवेक-विचारके द्वारा अपनी भोगेच्छाको मिटानेमें थोड़ी कठिनता पड़ती है। कारण कि अगर विवेक-विचार अत्यन्त दृढ़ न हो, तो वह तभीतक काम देता है, जबतक भोग सामने नहीं आते। जब भोग सामने आते हैं, तब साधक प्राय: उनको देखकर विचलित हो जाता है। परन्तु जिसमें सेवाभाव होता है, उसके सामने बढ़िया-से-बढ़िया भोग आनेपर भी वह उस भोगको दूसरोंकी सेवामें लगा देता है। अत: उसकी अपने सुख-आरामकी इच्छा सुगमतासे मिट जाती है। इसलिये भगवान् ने सांख्ययोगकी अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्ठ (पाँचवें अध्यायका दूसरा श्लोक), सुगम (पाँचवें अध्यायका तीसरा श्लोक) एवं जल्दी सिद्धि देनेवाला (पाँचवे अध्यायका छठा श्लोक) बताया है।
‘तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च’— मनुष्यने जितने भोगोंको सुन लिया है, भोग लिया है, अच्छी तरहसे अनुभव कर लिया है, वे सब भोग यहाँ ‘श्रुतस्य’ पदके अन्तर्गत हैं। स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक आदिके जितने भोग सुने जा सकते हैं, वे सब भोग यहाँ ‘श्रोतव्यस्य’* पदके अन्तर्गत हैं।
* यहाँ ‘श्रुतस्य’ और ‘श्रोतव्यस्य’ पद शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—इन पाँचों विषयोंके उपलक्षण हैं।
जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको तर जायगी, तब इन ‘श्रुत’—ऐहलौकिक और ‘श्रोतव्य’—पारलौकिक भोगोंसे, विषयोंसे तुझे वैराग्य हो जायगा। तात्पर्य है कि जब बुद्धि मोहकलिलको तर जाती है, तब बुद्धिमें तेजीका विवेक जाग्रत् हो जाता है कि संसार प्रतिक्षण बदल रहा है और मैं वही रहता हूँ; अत: इस संसारसे मेरेको शान्ति कैसे मिल सकती है ? मेरा अभाव कैसे मिट सकता है? तब ‘श्रुत’ और ‘श्रोतव्य’ जितने विषय हैं, उन सबसे स्वत: वैराग्य हो जाता है।
यहाँ भगवान् को ‘श्रुत’ के स्थानपर भुक्त और ‘श्रोतव्य’ के स्थानपर भोक्तव्य कहना चाहिये था। परन्तु ऐसा न कहनेका तात्पर्य है कि संसारमें जो परोक्ष-अपरोक्ष विषयोंका आकर्षण होता है, वह सुननेसे ही होता है। अत: इनमें सुनना ही मुख्य है। संसारसे, विषयोंसे छूटनेके लिये जहाँ ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्गका वर्णन किया गया है, वहाँ भी ‘श्रवण’ को मुख्य बताया गया है। तात्पर्य है कि संसारमें और परमात्मामें लगनेमें सुनना ही मुख्य है।
यहाँ ‘यदा’ और ‘तदा’ कहनेका तात्पर्य है कि इन ‘श्रुत’ और ‘श्रोतव्य’ विषयोंसे इतने वर्षोंमें, इतने महीनोंमें और इतने दिनोंमें वैराग्य होगा—ऐसा कोई नियम नहीं है, प्रत्युत जिस क्षण बुद्धि मोहकलिलको तर जायगी, उसी क्षण ‘श्रुत’ और ‘श्रोतव्य’ विषयोंसे, भोगोंसे वैराग्य हो जायगा। इसमें कोई देरीका काम नहीं है।