एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥39॥
एषा, ते, अभिहिता, साङ्ख्ये, बुद्धि:, योगे, तु, इमाम्, शृणु,
बुद्धॺा, युक्त:, यया, पार्थ, कर्मबन्धम्, प्रहास्यसि॥ ३९॥
पार्थ = हे पार्थ!, एषा = यह, बुद्धि: = बुद्धि, ते = तेरे लिये, साङ्ख्ये = ज्ञानयोगके,विषयमें*, अभिहिता = कही गयी, तु = और (अब तू), इमाम् = इसको, योगे = कर्मयोगके विषयमें, शृणु = सुन, यया = जिस, बुद्धॺा = बुद्धिसे, युक्त: = युक्त हुआ (तू), कर्मबन्धम् = कर्मोंके बन्धनको, प्रहास्यसि = भलीभाँति त्याग देगा यानी सर्वथा नष्ट कर डालेगा।
‘आत्म-बोध का ज्ञान तुम्हें बताया गया है। अब तुम योग का ज्ञान सुनो, जिसे प्राप्त करके, हे पृथापुत्र, तुम कर्म के बन्धनों को तोड़ सकोगे’।
व्याख्या—‘एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु’—यहाँ ‘तु’ पद प्रकरण-सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये आया है अर्थात् पहले सांख्यका प्रकरण कह दिया, अब योगका प्रकरण कहते हैं।
यहाँ ‘एषा’ पद पूर्वश्लोकमें वर्णित समबुद्धिके लिये आया है। इस समबुद्धिका वर्णन पहले सांख्ययोगमें (ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक) अच्छी तरह किया गया है। देह-देहीका ठीक-ठीक विवेक होनेपर समतामें अपनी स्वत:सिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है। कारण कि देहमें राग रहनेसे ही विषमता आती है। इस प्रकार सांख्ययोगमें तो समबुद्धिका वर्णन हो चुका है। अब इसी समबुद्धिको तू कर्मयोगके विषयमें सुन।
‘इमाम्’ कहनेका तात्पर्य है कि अभी इस समबुद्धिको कर्मयोगके विषयमें कहना है कि यह समबुद्धि कर्मयोगमें कैसे प्राप्त होती है? इसका स्वरूप क्या है? इसकी महिमा क्या है? इन बातोंके लिये भगवान् ने इस बुद्धिको योगके विषयमें सुननेके लिये कहा है।
‘बुद्धॺा युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि’— अर्जुनके मनमें युद्ध करनेसे पाप लगनेकी सम्भावना थी (पहले अध्यायका छत्तीसवाँ और पैंतालीसवाँ श्लोक)। परन्तु भगवान् के मतमें कर्मोंमें विषमबुद्धि (राग-द्वेष) होनेसे ही पाप लगता है। समबुद्धि होनेसे पाप लगता ही नहीं। जैसे, संसारमें पाप और पुण्यकी अनेक क्रियाएँ होती रहती हैं, पर उनसे हमें पाप-पुण्य नहीं लगते; क्योंकि उनमें हमारी समबुद्धि रहती है अर्थात् उनमें हमारा कोई पक्षपात, आग्रह, राग-द्वेष नहीं रहते। ऐसे ही तू समबुद्धिसे युक्त रहेगा, तो तेरेको भी ये कर्म बन्धनकारक नहीं होंगे।
इसी अध्यायके सातवें श्लोकमें अर्जुनने अपने कल्याणकी बात पूछी थी। इसलिये भगवान् कल्याणके मुख्य-मुख्य साधनोंका वर्णन करते हैं। पहले भगवान् ने सांख्ययोगका साधन बताकर कर्तव्य-कर्म करनेपर बड़ा जोर दिया कि क्षत्रियके लिये धर्मरूप युद्धसे बढ़कर श्रेयका अन्य कोई साधन नहीं है (दूसरे अध्यायका इकतीसवाँ श्लोक)। फिर कहा कि समबुद्धिसे युद्ध किया जाय तो पाप नहीं लगता (दूसरे अध्यायका अड़तीसवाँ श्लोक)। अब उसी समबुद्धिको कर्मयोगके विषयमें कहते हैं।
कर्मयोगी लोक-संग्रहके लिये सब कर्म करता है— ‘लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि’ (गीता—तीसरे अध्यायका बीसवाँ श्लोक)। लोकसंग्रहके लिये कर्म करनेसे अर्थात् नि:स्वार्थभावसे लोक-मर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये, लोगोंको उन्मार्गसे हटाकर सन्मार्गमें लगानेके लिये कर्म करनेसे समताकी प्राप्ति सुगमतासे हो जाती है। समताकी प्राप्ति होनेसे कर्मयोगी कर्मबन्धनसे सुगमतापूर्वक छूट जाता है।
यह (उनतालीसवाँ) श्लोक तीसवें श्लोकके बाद ही ठीक बैठता है; और यह वहीं आना चाहिये था। कारण यह है कि इस श्लोकमें दो निष्ठाओंका वर्णन है। पहले ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक सांख्ययोगसे निष्ठा (समता) बतायी और अब कर्मयोगसे निष्ठा (समता) बताते हैं। अत: यहाँ इकतीससे अड़तीसतकके आठ श्लोकोंको देना असंगत मालूम देता है। फिर भी इन आठ श्लोकोंको यहाँ देनेका कारण यह है कि कर्मयोगमें समता कहनेसे पहले कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या है? अर्जुनके लिये युद्ध करना कर्तव्य है और युद्ध न करना अकर्तव्य है—इस विषयका वर्णन होना आवश्यक है। अत: भगवान् ने कर्तव्य-अकर्तव्यका वर्णन करनेके लिये ही उपर्युक्त आठ श्लोक (दूसरे अध्यायके इकतीसवेंसे अड़तीसवेंतक) कहे हैं, और फिर समताकी बात कही है। तात्पर्य है कि पहले ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक सत्-असत् के वर्णनसे समता बतायी कि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है। इनमें कोई कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता। फिर इकतीसवेंसे अड़तीसवें श्लोकतक कर्तव्य-अकर्तव्यकी बात कहकर उनतालीसवें श्लोकसे अकर्तव्यका त्याग और कर्तव्यका पालन करते हुए कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धि और फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें समताका वर्णन करते हैं।
परिशिष्ट भाव—कर्मयोगके दो विभाग हैं—कर्तव्यविज्ञान और योगविज्ञान। भगवान् ने इकतीसवेंसे सैंतीसवें श्लोकतक कर्तव्यविज्ञानकी बात कही है, जिसमें कर्तव्य-कर्म करनेसे लाभ और न करनेसे हानिका वर्णन किया। अब यहाँसे तिरपनवें श्लोकतक योग-विज्ञानकी बात कहते हैं।
पूर्व श्लोकमें भगवान् ने जिस समताकी बात कही है, वह सांख्ययोग और कर्मयोग—दोनों साधनोंसे प्राप्त हो सकती है। शरीर और शरीरीके विभागको जानकर शरीर-विभागसे सम्बन्ध-विच्छेद करना ‘सांख्ययोग’ है तथा कर्तव्य और अकर्तव्यके विभागको जानकर अकर्तव्य-विभागका त्याग और कर्तव्यका पालन करना ‘कर्मयोग’ है। मनुष्यको दोनोंमेंसे किसी भी एक साधनका अनुष्ठान करके इस समताको प्राप्त कर लेना चाहिये। कारण कि समता आनेसे मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।
एक धर्मशास्त्र (पूर्वमीमांसा) है और एक मोक्षशास्त्र (उत्तरमीमांसा) है। यहाँ इकतीसवेंसे सैंतीसवें श्लोकतक धर्मशास्त्रकी और उनतालीसवेंसे तिरपनवें श्लोकतक मोक्षशास्त्रकी बात आयी है। धर्मसे लौकिक और पारमार्थिक—दोनों तरहकी उन्नति होती है*।
(* ‘यतोऽभ्युदयनि:श्रेयससिद्धि: स धर्म:’ (वैशेषिक० १। ३) )
धर्मशास्त्रमें कर्तव्य-पालन मुख्य है। धर्म कहो चाहे कर्तव्य कहो, एक ही बात है।
जो करना चाहिये उसको न करना भी अकर्तव्य है और जो नहीं करना चाहिये, उसको करना भी अकर्तव्य है। जिसमें अपने सुखकी इच्छाका त्याग करके दूसरेको सुख पहुँचाया जाय और जिसमें अपना भी हित हो तथा दूसरेका भी हित हो, वह ‘कर्तव्य’ कहलाता है। कर्तव्यका पालन करनेसे ‘योग’ की प्राप्ति अपने-आप हो जाती है। कर्तव्यका पालन किये बिना मनुष्य योगारूढ़ नहीं हो सकता (गीता—छठे अध्यायका तीसरा श्लोक)। योगकी प्राप्ति होनेपर तत्त्वज्ञान स्वत: हो जाता है, जो कर्मयोग तथा ज्ञानयोग—दोनोंका परिणाम है (गीता—पाँचवें अध्यायका चौथा-पाँचवाँ श्लोक)।