अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥33॥
अथ, चेत्, त्वम्, इमम्, धर्म्यम्, सङ्ग्रामम्, न, करिष्यसि,
तत:, स्वधर्मम्, कीर्तिम्, च, हित्वा, पापम्, अवाप्स्यसि॥ ३३॥
अथ = किंतु, चेत् = यदि, त्वम् = तू, इमम् = इस, धर्म्यम् = धर्मयुक्त, सङ्ग्रामम् = युद्धको, न = नहीं, करिष्यसि = करेगा, तत: = तो, स्वधर्मम् = स्वधर्म, च = और, कीर्तिम् = कीर्तिको, हित्वा = खोकर, पापम् = पापको, अवाप्स्यसि = प्राप्त होगा।
‘यदि यह धर्म-युद्ध तुम नहीं लड़ते हो तो अपने धर्म और कीर्ति से विमुख होकर, तुम पाप के भागीदार बनोगे’।
व्याख्या—‘अथ चेत्त्वमिमं………..पापमवाप्स्यसि’— यहाँ ‘अथ’ अव्यय पक्षान्तरमें आया है और ‘चेत्’ अव्यय सम्भावनाके अर्थमें आया है। इनका तात्पर्य है कि यद्यपि तू युद्धके बिना रह नहीं सकेगा, अपने क्षात्र स्वभावके परवश हुआ तू युद्ध करेगा ही (गीता—अठारहवें अध्यायका साठवाँ श्लोक), तथापि अगर ऐसा मान लें कि तू युद्ध नहीं करेगा, तो तेरे द्वारा क्षात्रधर्मका त्याग हो जायगा। क्षात्रधर्मका त्याग होनेसे तुझे पाप लगेगा और तेरी कीर्तिका भी नाश होगा।
आप-से-आप प्राप्त हुए धर्मरूप कर्तव्यका त्याग करके तू क्या करेगा? अपने धर्मका त्याग करनेसे तुझे परधर्म स्वीकार करना पड़ेगा, जिससे तुझे पाप लगेगा। युद्धका त्याग करनेसे दूसरे लोग ऐसा मानेंगे कि अर्जुन-जैसा शूरवीर भी मरनेसे भयभीत हो गया! इससे तेरी कीर्तिका नाश होगा।