अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥25॥
अव्यक्त:, अयम्, अचिन्त्य:, अयम्, अविकार्य:, अयम्, उच्यते,
तस्मात्, एवम्, विदित्वा, एनम्, न, अनुशोचितुम्, अर्हसि॥ २५॥
अयम् = यह आत्मा, अव्यक्त: = अव्यक्त है, अयम् = यह आत्मा, अचिन्त्य: = अचिन्त्य है(और), अयम् = यह आत्मा, अविकार्य: = विकाररहित, उच्यते = कहा जाता है, तस्मात् = इससे (हे अर्जुन!), एनम् = इस आत्माको, एवम् = उपर्युक्त प्रकारसे, विदित्वा = जानकर (तू), अनुशोचितुम् = शोक करनेके, न, अर्हसि = योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना,उचित नहीं है।
‘आत्मा अव्यक्त कही जाती है, चिन्तन से परे, परिवर्तन से परे; इसे इस प्रकार का जान कर, तुम्हारे लिये शोक करना उचित नहीं है’।
व्याख्या—‘अव्यक्तोऽयम्’—जैसे शरीर-संसार स्थूलरूपसे देखनेमें आता है, वैसे यह शरीरी स्थूलरूपसे देखनेमें आनेवाला नहीं है; क्योंकि यह स्थूल सृष्टिसे रहित है।
‘अचिन्त्योऽयम्’—मन, बुद्धि आदि देखनेमें तो नहीं आते, पर चिन्तनमें आते ही हैं अर्थात् ये सभी चिन्तनके विषय हैं। परन्तु यह देही चिन्तनका भी विषय नहीं है; क्योंकि यह सूक्ष्म सृष्टिसे रहित है।
‘अविकार्योऽयमुच्यते’—यह देही विकाररहित कहा जाता है अर्थात् इसमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। सबका कारण प्रकृति है, उस कारणभूत प्रकृतिमें भी विकृति होती है। परन्तु इस देहीमें किसी प्रकारकी विकृति नहीं होती; क्योंकि यह कारण सृष्टिसे रहित है।
यहाँ चौबीसवें-पचीसवें श्लोकोंमें अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य, अचल, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य—इन आठ विशेषणोंके द्वारा इस देहीका निषेधमुखसे और नित्य, सर्वगत, स्थाणु और सनातन— इन चार विशेषणोंके द्वारा इस देहीका विधिमुखसे वर्णन किया गया है। परन्तु वास्तवमें इसका वर्णन हो नहीं सकता; क्योंकि यह वाणीका विषय नहीं है। जिससे वाणी आदि प्रकाशित होते हैं, उस देहीको वे सब प्रकाशित कैसे कर सकते हैं? अत: इस देहीका ऐसा अनुभव करना ही इसका वर्णन करना है।
‘तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि’—इसलिये इस देहीको अच्छेद्य, अशोष्य, नित्य, सनातन, अविकार्य आदि जान लें अर्थात् ऐसा अनुभव कर लें तो फिर शोक हो ही नहीं सकता।
सम्बन्ध—अगर शरीरीको निर्विकार न मानकर विकारी मान लिया जाय (जो कि सिद्धान्तसे विरुद्ध है), तो भी शोक नहीं हो सकता—यह बात आगेके दो श्लोकोंमें कहते हैं।